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मेरी पसन्द

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साहित्य की समकालीन विधाओं में लघुकथाएँ अपने तीव्र आवेग एवं व्यंजना-शक्ति के कारण खासा लोकप्रिय हो गईं हैं। लघुकथाओं में अभिव्यक्ति ज्यादा मुखरित होती हैं, संवेदनाएँ अधिक गहरी , भाषा सशक्त और पैनी होती हैं। लघुकथाओं के पात्र ज्यादा जीवंत नज़र आते हैं और पाठकों के दिल में सहजता से उतर जाते हैं। लघुकथाओं को जबसे मैंने जाना और समझा है, उसे जीने की कोशिश करती रही हूँ। लघुकथाओं के प्रति आकर्षण बढ़ता ही गया और अपने पहले प्रयास में ही पुरस्कृत होने पर मनोबल भी बढ़ता गया। महेश शर्मा भी अपनी पहली लघुकथा से ही पुरस्कृत और काफी चर्चित हुए थे। कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 2016 में मेरी लघुकथा ‘एक स्पेस’ नवें स्थान पर आई थीं और इसी प्रतियोगिता में महेश शर्मा की लघुकथा ‘ज़रूरत’ प्रथम स्थान पर थी। मैंने इस लघुकथा को कई बार पढ़ा और तबसे महेश शर्मा मेरी पसंद बन गए। कथादेश के उस अंक में सुकेश साहनी ने अपने आलेख में महेश शर्मा की लघुकथा और अन्य पुरस्कृत लघुकथाओं के बीच एक बड़ा फासला बताया। तब मैं इस फासले को समझने की कोशिश करने लगी।

मैं हमेशा से पत्रिकाओं में सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ , सतीशराज पुष्करणा, मधुदीप, बलराम अग्रवाल, योगराज प्रभाकर, कमल चोपड़ा जैसे वरिष्ठ लघुकथाकारों की टिप्पणियाँ और आलेख पढ़कर ही इस विधा की बारीकियों को समझने की कोशिश करती रही हूँ।

मेरी पसंद को जानने और लिखने के क्रम में मैंने महेश शर्मा के पूरे व्यक्तित्व को पढ़ने का प्रयास किया। महेश शर्मा के लेखन और उनके फेसबुक पोस्ट शुरू से ही मुझे भीड़ से अलग दिखते थे। मेरा मानना है एक संवेदनशील कलाकार कला के क्षेत्र को जिस गहराई से परखता है और जीता है या उसमें डूबकर खुद को प्रस्तुत करता है, वह और कोई नहीं कर सकता है। चाहे वह लेखन का क्षेत्र हो या अभिनय का उसकी रचनाओं और व्यंजनाओं में उसकी अंतरात्मा मुखरित होती है। महेश शर्मा अपने लेखन और अभिनय दोनों में बिंदास रहते हैं, जीते हैं और बहुत गहराई से विषय को पकड़ते हैं। यही कारण है कि आज अनेक लघुकथाकारों के बीच वह अपनी लघुकथाओं के साथ विशिष्ट हैं। इन्हीं लघुकथाओं में से मैं अपनी पसंद की लघुकथा  आपलोगों के समक्ष रख रही हूँ।

मेरी पसन्द की पहली लघुकथा है महेश शर्मा की ज़रूरत। सुकेश साहनी के एक आलेख में गौतम सान्याल की टिप्पणी अंकित की गई थी-लघुकथा हठात् जन्म नहीं लेती, अकस्मात् पैदा नहीं होती। जब कोई कथ्य-निर्देश देर तक माँ में थिरता है और लोक-संवृत्त में अँखुआ उठता है, तब जाकर जन्म ले पाती है लघुकथा-जैसे सीपी में मोती जन्म लेता है। सच! इन्हीं मोतियों को ढूँढकर पिरोना ही लघुकथा की रचना प्रक्रिया है। महेश शर्मा की लघुकथा ‘ज़रूरत’ लघुकथाओं के गुणधर्म के पूर्णतया अनुरूप है। इस लघुकथा में अत्यंत सरलता और सहजता से रचना को चरमोत्कर्ष पर समाप्त किया है। पुरानी और आधुनिक पीढ़ियों की सोच और मानसिकता को छेड़ा है। इस लघुकथा को न तो पात्रों की अनावश्यक उपस्थिति और न ही अतिरिक्त संवादों से बोझिल किया गया है। वर्तमान पीढ़ी की आधुनिकतावाद की ओर बढ़ते कदम और पुरानी हो गई या पुरानी दिखने लगी वस्तुओं का बिना किसी मोह-माया के हटा देने के बढ़ते प्रचलन की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। यहाँ इसी मानसिकता से आहत होते घर के बड़े-बुजुर्गों के अंदर समाते एक भय को बड़ी कुशलता से उजागर किया गया है। इस लघुकथा की पंक्तियाँ अनावश्यक विस्तार नहीं लाती और न ही प्रवाह को बाधित करती हैं।

दिवाली की सफाई के दौरान मिले एलबम की तस्वीरों से पुरानी यादों का ताज़ा करना, फोटो खिंचवाने के दौरान पत्नी को यह बोलना ‘तस्वीर खिंचवाते वक्त मुस्कुराया करो। हमेशा सन्न-सी खड़ी रह जाती हो-भौंचक्की-सी’ से लघुकथा को समापन तक जिस तरह लाया गया है वह अद्भुत है। ‘कैमरे का फ्लैश तेजी से उनकी तरफ़ लपका और वे पहली बार तस्वीर खिंचवाते हुए सन्न से खड़े रह गए’ -लेखक वृद्धावस्था के उस मनोविज्ञान को छूता है ,जहाँ वृद्ध खुद को घर के किसी पुराने और गैर जरूरी सामान-सा खुद को महसूस करता है और सहसा भयभीत हो जाता है कि कहीं उसकी अवस्था त्याज्य तो नहीं हो गई।

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मेरी पसन्द की दूसरी लघुकथा है- सुभाष नीरव की ‘दो हज़ार का नोट’ 

 वरिष्ठ कथाकार , कवि और अनुवादक सुभाष नीरव अपनी रचनाओं और जीवंत अनुवादों से साहित्य जगत में अपना लोहा मनवा चुके हैं। फेसबुक के ज़रिए मैं जिनका जान सकी हूँ , उनका व्यक्तित्व अत्यंत सरल , सहज और प्रभावशाली है । इनकी रचनाओं में इनकी सरलता बहुत ही सहजता से उतरती है और पाठकों के दिल पर गहरा प्रभाव छोड़ती है ।

 कहते हैं न जब लेखक का चिंतन और दृष्टिकोण परिपक्व होता है तब लेखन अपने आप सम्पूर्णता पा लेती है । सुभाष नीरव की प्रस्तुत लघुकथा सभी दृष्टि से एक सशक्त और सफल लघुकथा है । इस लघुकथा में ‘दो हज़ार के नोट’ की महत्ता को अलग – अलग पड़ावों पर अलग – अलग लोगों के जरिए परिभाषित किया गया है । जरूरी नहीं कि जीवन में जिस चीज़ से मुझे अत्यधिक खुशी मिलती है, वह दूसरों के लिए भी खुशी का जरिया हो । छोटी – छोटी और टुकड़ों में बँटी खुशियाँ अपना अस्तित्व ढूँढकर अपने स्तर पर स्थान बना लेती हैं । लघुकथा का मुख्य पात्र जिस दो हज़ार के नोट को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुआ था, अंततः वही नोट उसकी परेशानियों का कारण बन जाता है । इस पूरी घटना को बेहद ख़ूबसूरत एवं जीवंत रूप  में दर्शाया गया है ।

 इस लघुकथा में पात्र की मनःस्थिति को परिवेश के अनुसार प्रभावी ढंग से चित्रित किया गया है । दो हज़ार का नोट  हाथ में आने पर पात्र की मनःस्थिति जो अकल्पनीय सुख एवं क़िला फ़तह करने जैसी खुशी मिलने की थी, वह अंततः अपने परिवेश का सामना करते हुए किस तरह आहत होती है , इसका चित्रण इस लघुकथा को चरम पर पहुँचाती है । मेरी नज़र में पाठक जब अपनी भावनाओं को लेखकीय संवेदनाओं से जुड़ा हुआ पाता है, तब वह लेखक अपने उद्देश्य में सफल होता है । किरानेवाले , सब्ज़ीवाले और केमिस्ट के द्वारा उस दो हज़ार नोट को देखकर दी गई प्रतिक्रियाएँ पात्र की मनःस्थिति से विरोधाभास करती हुई उसको यथार्थ तक पहुँचाती है और अपनी सार्थकता सिद्ध करती है। लघुकथा के प्रारम्भ में पात्र की स्थिति चार घंटे लाइन में खड़े रहने और उसकी दुखती टांगों के दर्द का जिक्र करते हुए दर्शाया गया और वही स्थिति लघुकथा के अंत में पात्र पाता है । और इस बीच का विवरण और विस्तार लघुकथा में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परिवेश को जोड़ती हुई बहुत खूबसूरती के साथ किया गया है ।

 लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य ( लघुकथा समालोचना ) जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ अपने एक आलेख में कहते हैं– “पात्र , पात्र की मनःस्थिति , परिवेश , स्तर , परिस्थिति  बहुत सारे ऐसे कारक हैं , जो भाषा का स्वरूप निर्धारण करते हैं।” और  “भाषा सीमाओं में नहीं बँधती।” एक लघुकथा का सम्पूर्ण और सटीक होना इन्हीं पंक्तियों की सार्थकता पर निर्भर है। मेरी दृष्टि में यह लघुकथा हर कसौटी पर खरी उतरती है ।

 विषय की जरूरत के मुताबिक इस लघुकथा में विवरण , विश्लेषण एवं दृश्यबंध किया गया है । वरिष्ठ लघुकथाकार अशोक भाटिया के अनुसार रचना प्रक्रिया का सबसे बड़ा नियम यही होता है कि उसे लिखने का कोई नियम नहीं होता ; स्व-अनुशासन तो होता ही है । जिस प्रकार उद्गम के पश्चात् नदी अपने दो किनारे स्वयं बनाती जाती है , इसी प्रकार रचना का वस्तु – जल अपना स्वरूप स्वयं निश्चित करता है ।

 साहित्य जगत में ऐसी लघुकथाओं का स्वागत है जो पाठकों के दिल तक पहुँचकर न केवल घर करती है बल्कि उसे परिवेश और समाज के विभिन्न पहलुओं पर सोचने को विवश करती है । लेखक का सृजन तभी संतुष्ट होता है ।

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1-ज़रूरत/  महेश शर्मा

दीपावली की सफाई धूम-धाम से चल रही थी। बेटा-बहू, पोता-पोती सब, पूरे मनोयोग से लगे हुए थे।

वे सुबह से ही छत पर चले आये थे। सफाई में एक पुराना एलबम हाथ लग गया था, सो कुनकुनी धूप में बैठे, पुरानी यादों को ताजा कर रहे थे।

ज़्यादातर तस्वीरें उनकी जवानी के दिनों की थीं जिसमें वे अपनी दिवंगत पत्नी के साथ थे। तकरीबन हर तस्वीर में पत्नी किसी बुत की तरह थी, तो वे मुस्कुराते हुए, बल्कि ठहाका लगाते हुए कैमरा फेस कर रहे थे। उन्हें सदा से ही खासा शौक था तस्वीरें खिंचवाने का। वे पत्नी को अक्सर डपटते-’तस्वीर खिंचवाते वक्त मुस्कुराया करो। हमेशा सन्न-सी खड़ी रह जाती हो-भौंचक्की-सी!’

चाय की तलब के चलते नीचे उतरकर आये तो देखा, घर का सारा पुराना सामान इकट्ठा करके अहाते में करीने से जमा कर दिया गया था और पोता अपने फोन कैमरा से उसकी तस्वीरें ले रहा था।

यह उनके लिए एक नई बात थी। -पता चला कि आजकल पुराने सामान को ऑन-लाइन बेचने का चलन है।

वे बेहद दिलचस्पी से इस फोटो-सेशन को देखने लगे। एकाएक, उनके शरीर में एक सिहरन-सी उठी-और ठीक उसी वक्त पोते ने शरारत से मुस्कुराते हुए कैमरा उनकी तरफ़ करके क्लिक कर दिया-’ग्रैंडपा, स्माइल’

-कैमरा की फ़्लश तेजी से उनकी तरफ लपकी-और वे पहली बार तस्वीर खिंचवाते हुए सन्न से खड़े हो गए।

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2-दो हज़ार का नोट  /  सुभाष नीरव

लगातार चार घंटे बैंक के बाहर लाइन में खड़े रहने के बाद जब उन्हें सफलता मिली और दो हजार का नया चमचमाता नोट उनके हाथ में आया तो दुखती टांगों का दर्द भूल गये। एक अकल्पनीय सुख की अनुभूति हुई उन्हें। मानो उन्होंने कोई किला फतह कर लिया हो। वे विजयी भाव से सीना ताने बैंक के बाहर खड़ी भीड़ पर नज़रें डालते हुए बाहर निकले। खुशी-खुशी वह एक किराने की दुकान पर पहुँचे और चमचमाता नोट दिखाकर बोले कि भैया, डेढ़ थैली दूध दे दो और एक नमक की थैली! इसपर दुकान वाले ने हाथ जोड़ दिए-’भाई साहब, इतने छुट्टे तो मेरे पास नहीं है। सॉरी!’ दूसरे के पास गये, उसका भी यही जवाब था।

वह सब्जी वाले के पास गये, इकट्ठी हफ़्ते भर की सब्जी लेकर दो हजार का नया नोट आगे बढ़ाया तो सब्जी वाला बोला–’तो इह हैय दुई हजार का नया नोट! हम पहिली बार देखा! पर हमरा पास इत्ता छुट्टा नहीं है।’ पटरी पर बैठे कई सब्जीवालों के पास वह गये, पर सबकी मुंडियाँ दायें-बायें इन्कार में घूमती रहीं। गली के बाहर एक छोटी-सी कैमिस्ट की दुकान थी। सोचा–दवा खत्म होने वाली है, वही लेता चलूं। यह तो इस नये नोट को लपक ही लेगा। पर वह भी नोट देखकर ‘हें-हें’ हंस दिया, ‘बाबा जी, मेरे पास इतनी चेंज नहीं है कि मैं आपको दवा दे सकूं।’

कुछ समय पहले हासिल हुआ सुख का अहसास अब टुकड़ा-टुकड़ा होकर दुख में बदल गया। घर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उन्हें लगा कि उनकी टांगों का दर्द एकाएक तेज़ हो उठा है।

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