प्रस्तावना:
सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना के परिणामस्वरूप आधुनिक हिन्दी लघुकथा का
प्रादुर्भाव बीसवीं सदी के आठवें दशक से माना जाता है। लघुकथा विधा के लिए पुनर्स्थापना काल के रूप में यह एक सुखद पक्ष है। यहाँ से लेखन कर्म प्रारम्भ करने वाले लघुकथाकारों की लघुकथाओं में भाषा-शैली, शिल्प-परिवर्तन और जीवन-समाज से सम्बन्धित विषयवस्तुओं के प्रति गहरा सरोकार मिलता है। इन्हें देखकर प्रतीत होता है कि ये शांत भाव से अपने लघुकथा-कर्म में संलग्न हैं, अर्थात आधुनिक अग्रज-हितैषी के रूप में लघुकथा विधा के प्रति पूर्णतः समर्पित। इतना ही नहीं अपितु नई पीढ़ी को तैयार करने के लिए भी हर संभव उद्यत। इसमें संशय नहीं कि इन उदारमना लघुकथाकारों ने हंगामा या विवाद किए बिना हिन्दी लघुकथा का परिदृश्य परिवर्तित किया है। उनकी दृष्टि में विधा, विधागत समर्पण, समय और संवाद-परिसंवाद महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी लघुकथा की धरती पर इन लघुकथाकारों में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ निश्चित ही एक सजग नाम-रूप, हस्ताक्षर हैं। वह बीसवीं सदी के नौवें-दसवें दशक के प्रमुख लघुकथाकार है जिनके लिए लघुकथा का प्रश्न और अस्तित्व सदैव महत्त्वपूर्ण रहा है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ इक्कीसवीं सदी में भी निरंतर सक्रिय हैं। चूँकि उनका रचनात्मक-सृजनात्मक अवदान कई चरणों में विभक्त है अतः इस शोध-आलेख के अन्तर्गत केवल उनकी लघुकथाओं पर चर्चा होगी।
परिचय और मंतव्य:
19 मार्च 1949 को जिला सहारनपुर में जन्में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ लघुकथा सहित साहित्य की कई विधाओं में रचनारत् हैं। उनकी लघुकथा की विकास-यात्रा पर विचार करें तो यह यात्रा लगभग पचास वर्षों अर्थात पाँच दशकों की है। उनकी पहली लघुकथा 1972 में जगदीश कश्यप के संपादन में ‘मिनीयुग’ में प्रकाशित हुई थी। तब से लेकर आज तक वह ऊर्जस्वित रूप में क्रियाशील हैं। अब तक उनकी 37 पुस्तकें, 2 अनूदित पुस्तकें आ चुकी हैं। इसके साथ ही उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के 14 विशेषांकों का सम्पादन किया है। इस समय हिन्दी प्रचारिणी सभा कैनेडा से प्रकाशित अन्तर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका ‘हिन्दी चेतना’ और सुप्रसिद्ध लघुकथाकार सुकेश साहनी के साथ वर्ष 2007 से हिन्दी लघुकथा की प्रथम पूर्णकालिक ई-पत्रिका ‘लघुकथा डॉट कॉम’ के संपादन कार्यों में संलग्न हैं। ध्यातव्य हो कि वर्ष 2000 से प्रारम्भ ‘लघुकथा डॉट कॉम’ ने लघुकथा विधा को वैश्विक स्तर बहु प्रचारित-प्रसारित कर, उसे सर्वांगीण पहचान दी है। इस बिन्दु से साहित्य-खेमा भली-भाँति परिचित है।
अभी हाल ही में कथाशिल्पी सुकेश साहनी और उनके सम्पादन में नई दिल्ली स्थित अयन प्रकाशन से लघुकथा-विमर्श की किताब ‘आयोजन’ का (द्वितीय संस्करण 2021) प्रकाशित हुआ है और चर्चा के केन्द्र में है। इसका प्रथम संस्करण 1989 में प्रकाशित हुआ था। किताब को पढ़ने के बाद प्रतीत होता है कि लघुकथा की समृद्धि हेतु वर्ष 1989 में आयोजित यह वृहद् आयोजन तब भी, और वर्तमान कालावधि में भी अति महत्त्वपूर्ण है। इस आयोजन द्वारा निश्चित ही लघुकथा विधा की नींव मजबूत हुई है। इसके अतिरिक्त रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा-समालोचना पुस्तक ‘लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य’, जिसमें लघुकथा विषयक 22 आलेख संगृहीत हैं, लघुकथा के साथ-साथ समाज-संस्कृति को समझने में बहुत सहायक है। ‘लघुकथा: संचेतना एवं अभिव्यक्ति’ शीर्षक आलेख में उनका मंतव्य स्पष्ट है , ‘‘आवश्यकता है कि नए से नए विषयों का संधान किया जाए, जिससे लघुकथा गिने-चुने विषयों के दायरे से बाहर आकर अपने सशक्त रूप की छाप छोड़ सके। यह तभी संभव है, जब पूर्वाग्रह-मुक्त होकर लघुकथाओं पर विचार किया जाए।’’1
इस प्रकार रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ लघुकथाकार होने के अतिरिक्त लघुकथा-समालोचक भी है। आलोचना-समालोचना भी स्वयं में रचनात्मक-सृजनात्मक कार्य है, अतः वह पूर्णरूपेण परिचित हैं कि यदि लघुकथा को जीवन-समाज के सभी विषयों की सीमा-रेखा का अतिक्रमण करना है तो इसके लिए नित-नवीन विषयों का अनुसंधान आवश्यक है। यह कार्य पूर्णतः लघुकथाकारों के हिस्से में है।
पाठकीय अवधारणा
प्रायः यह मंतव्य प्रकट किया जाता रहा है कि हिन्दी लघुकथा सीधे विषय या मुद्दों पर वार्तालाप करती है। सोशल मीडिया या पत्र-पत्रिकओं में यह कई बार दिख जाता है! विचार करें तो यह पत्रकारिता की भाषा है, अतः यह भाषा-परिभाषा लघुकथा को समझने हेतु अपर्याप्त है। कारण… लघुकथा को समझने के लिए परिभाषाओं की नहीं अपितु सर्वप्रथम लघुकथाओं की आवश्यकता होती है। परिभाषाओं से लघुकथा का कथानक नहीं अपितु उसकी बुनावट, उसका शिल्प समझ में आता है। साहित्यकार हरिशंकर परसाई जब कहते हैं – ‘‘लघुकथा कथात्मक अभिव्यक्ति का लघुतम रूप है।’’2 तब इस कथन के आलोक में लघुकथा विधा की कथा हेतु एक स्तरीय भाषा-शैली और लघुता की दृष्टि से उसके शिल्प की समझ बढ़ती दिखती है।
अतः जब यह मंतव्य प्रकट किया जाता है कि हिन्दी लघुकथा सीधे मुद्दों पर बातचीत करती है, तब यह समझना आवश्यक है कि हिन्दी लघुकथा टीवी-रेडियो पर प्रसारित समाचार नहीं, कि सीधे मुद्दे या घटनाओं पर आ गए। गंगा नदी के तट पर सैकड़ों लाशें पड़ी मिलीं…..हॉस्टिपल में कॉविड-19 से दस लोगों की मृत्यु हुई! या किसी अमीरजादे की कार से फुटपाथ पर सो रहे गरीब लोग कुचल दिए गए… ये समाचार हैं, लघुकथा नहीं। लघुकथा विधा या साहित्य को पत्रकारिता की भाषा में समझना अथवा इस प्रकार की सभी अप्रसांगिक धारणा-अवधारणाओं को रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथाएँ बहुत सरलता से परिवर्तित या धराशायी कर देती हैं। उनकी लघुकथाएँ भाषा-शैली, शिल्प, विषयवस्तु, ताना-बाना, संवदेनाओं में व्यक्ति या पाठकीय अवचेतन को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए- ‘ऊँचाई’, ‘कालचिड़ी’, ‘पिघलती हुई बर्फ’, ‘उड़ान’ और ‘पागल’ आदि लघुकथाएँ। वास्तव में अपनी सृजनात्मक क्रियाओं द्वारा यह अवधारणात्मक संभावनाओं की बड़ी खोज है जो सहृदयों के हृदय में सामाजिक अनुशासन की सीमाओं का निर्धारण करती है।
यह दुनिया की बिडंबना कहें अथवा सामाजिक-राजनीतिक अनुशासनों की घोर कमी कि पाँच हजार वर्षों के मानव-इतिहास में मानव ने पन्द्रह हजार युद्ध किए! उसके लिए आज भी देशभक्ति, जाति, रंगभेद और धर्म के नाम पर लड़ना-लड़वाना सरलतम कार्य है। इस सन्दर्भ में ‘हिमाशु’ की लघुकथा ‘धर्मनिरपेक्ष’3 उल्लेखनीय और प्रासंगिक प्रस्तुति है। धर्मनिरपेक्ष के अर्थ-भाव, सार से जितना एक कुत्ता सीखता-समझता है, उतना मनुष्य कभी भी सीख-समझ नहीं पाया। वह अभी भी सीखना-समझना नहीं चाहता। कहने का आशय है कि अन्तर्वस्तु के आधार पर रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथाएँ पाठकीय अवधारणाओं को बदलने में सक्षम हैं। स्मरण करें उनकी एक अन्य लघुकथा ‘नवजन्मा’ का। क्या अद्वितीय प्रस्तुति है! मन में बैठे काँटें को नष्ट-भ्रष्टकर जोश-जूनून, उत्साह भर देने वाली इस कालजयी लघुकथा ‘नवजन्मा’ की प्रासंगिकता सदा सदियों तक रहेगी।
‘नवजन्मा’ के नायक जिलेसिंह से यह कतई उम्मीद नहीं थी कि पत्नी-बेटी और समाज के लिए वह इतना बड़ा कदम उठाएगा! भारतीय समाज, रूढ़ि-आस्था, (जिसमें विश्वास कम और अन्धविश्वास का समावेश अधिक होता है), विसंगतियाँ और परम्परा-परिवर्तन पर पहल नहीं करता अपितु ‘सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग’ की चादर ओढ़कर अपनी निद्रा पूर्ण करने में विश्वास अधिक रखता है। पर मन-समाज की सतह पर साँप की तरह कुंडली मारकर बैठी परम्पराओं को छिन्न-भिन्न करना भी अति आवश्यक है। जिलेसिंह जैसा नायक यह कार्य बखूबी करता है। बोलता है कुछ नहीं, बस करता है। इस अंदाज में करता है कि नई परम्पराओं की नींव पड़ जाती है। आधुनिक समाज जिलेसिंह जैसे पिताओं को आदर सहित याद रखता है, न कि वंशवृद्धि के नाम पर कन्याभ्रूण हत्या कर देने वाले संकीर्ण सोच के पिताओं को। यकीनन ‘नवजन्मा’ संदर्भ-प्रसंग, परिपक्वता अर्थात हर दृष्टिकोण से उत्कृष्ट रचना-निष्पत्ति है। इस श्रम के पीछे भी स्वयं लघुकथाकार का कथन निहित है, ‘‘लघुकथा को परिपक्व होने में कई महीने भी लग सकते हैं, कई बरस भी।’’4 ऐसा ही सुकेश साहनी का मानना है, ‘‘लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया अंतःस्फूर्त है। इसमें बरसों लग सकते हैं।’’5
सन्दर्भ-प्रसंग: विश्लेषण
हिन्दी लघुकथा के साथ एक समस्या सन्दर्भ-प्रसंग की है। प्रायः उसके पाठ के समय न उसके सन्दर्भ का पता चलता है, प्रसंग का। पत्र-पत्रिकाओं, सोशल मीडिया, ब्लॉग और ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित लघुकथाओं में यह समस्या प्रायः दृष्टिगोचर होती हैं। ऐसी लघुकथाएँ यदि सन्दर्भ-प्रसंग, दरकिनार कर या घालमेल के साथ अस्तित्व में आती हैं तो निस्संदेह वह पाठकीय आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतरतीं। लघुकथा के आस्वाद के पश्चात भी पाठकगण उसकी विषयवस्तु से कनेक्ट नहीं हो पाते! कहने का तात्पर्य है कि सन्दर्भ जहाँ विधा से सम्बद्ध है और यह रचना को विधागत अतिक्रमण करने से रोकती है। वहीं प्रसंग, विषयवस्तु-घटनाओं और उसके समुचित निर्वहन से संबद्ध है। ये दोनों शब्द हिन्दी लघुकथा-शिल्प विधान हेतु महत्त्वपूर्ण हैं। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथाएँ अपने स्तर से इसी कमी को पूरा करती हैं। उनमें सन्दर्भ भी है और प्रसंग भी। दोनों का सही-सार्थक निर्वाह भी। उदाहरणार्थ- ‘उड़ान’ और ‘अच्छे पड़ोसी’। दोनों लघुकथाओं के दो दृश्य सहृदयों के हृदय को भिगो देते हैं। दोनों में सन्दर्भ भी है और प्रसंग भी। ‘अच्छे पड़ोसी’ के पात्रों के मन-मस्तिष्क में लड़ाई-झगडे़ के बाद ईर्ष्या-जलन, पूर्वाग्रह आदि सब कुछ हैं पर मनुष्य के रूप में मनुष्यता भी है। ‘अच्छे पड़ोसी’6 के पाठ के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता हैं कि दो पक्षों की पंगत में यदि, किसी भी एक पक्ष के मन में सहयोग की जीवित भावनाएँ उपज रही हैं तो, लाख लड़ाई-झगड़े के बाद भी द्वितीय पक्ष का हृदय परिवर्तन स्वतः हो जाएगा। आवश्यकता सिर्फ पहल करने की है। इसी प्रकार से ‘ऊँचाई’ शीर्षक लघुकथा। सन्दर्भ और प्रसंग, दोनों में अबााधित। बहू-बेटा, सादगी, शर्मिन्दगी, तंगदिली-संकीर्ण दृष्टि और पिता की आसमानी सोच पर क्या गजब की प्रस्तुति है। ऐसी लघुकथाएँ ही पाठकों को विश्वास में लेकर, उन्हें पूर्ण कथा का आस्वाद देती हैं।
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथाओं की विशेषता है कि उन्हें अलग-अलग अनुच्छेदों में रखा-परखा जा सकता है। हिन्दी लघुकथा संसार में इस रंग-रूप, तेवर की लघुकथाएँ कम ही दृष्टिगोचर होती हैं, जो बार-बार परखने पर बार-बार और भिन्न-भिन्न अर्थ प्रदान करें। इस दृष्टि से उनकी प्रतीकात्मक शैली की लघुकथा ‘कालचिड़ी’ का उल्लेख प्रासंगिक प्रतीत होता है। पर उससे पूर्व थोड़ी चर्चा अभी पुनः ‘नवजन्मा’ पर। जो क्रान्तिकारी भी है और हिन्दी लघुकथा विधा की स्वर्णिम धरोहर भी हैं। बहरहाल…‘नवजन्मा’ के दो दृश्य निम्नवत हैं-
1.जिलेसिंह शहर से वापस आया तो आँगन में पैर रखते ही उसे अजीब-सा सन्नाटा पसरा हुआ मिला।
दादी ने ऐनक नाक पर ठीक-से रखते हुए उदासी भरी आवाज में कहा, ‘‘जिल्ले! तेरा तो इभी से सिर बँध ग्या रे। छोरी हुई है!’’7
2.सन्तु और जोर से ढोल बजाने लगा- तिड़-तिड़-तिड़ तिड़क धुम्म, तिड़क धुम्म! तिड़क धुम्म! तिड़क धुम्म!8
उपर्युक्त दोनों दृश्यों में, एक दृश्य लघुकथा के प्रारम्भ का है, दूसरा अन्त का। दोनों दृश्यों के मध्य लड़की की पैदाइश पर घर-समाज में क्या-क्या कोहराम मच रहा है, वह सब कुछ चित्रित है। पर जिलेसिंह कुछ बोलता नहीं है बल्कि सभी की सुनकर, मन की करता है। वह अपने मन की ओर बहता है और साथ-साथ पाठकों को भी बहाकर ले जाता है। इस लघुकथा को अब तक लाखों पाठकों ने पढ़ चुके होंगे, जिनके घरों में स्त्रियों-लड़कियों की स्थिति दोयम दर्जें की या दबी-कुचली है। कहीं न कहीं उनके मन में खटका जरूर होगा कि वंशवृद्धि-लिंगभेद के नाम पर जो अन्याय लड़कियों के साथ हो रहा है, वह उचित नहीं। जिलेसिंह जैसे पिता इस ‘खटके’ को सूदसहित खत्म कर देते हैं। सूद क्या है… लड़की अर्थात ‘नवजन्मा’ के जन्म पर ढोल बजवाना। इतना नाचना कि जो देखे-सुने वही हैरत में पड़ जाए!
‘नवजन्मा’ के सहृदय पाठकों को स्मरण होगा जिलेसिंह की पत्नी मनदीप, जो लड़की के जन्म के कारण अपराधबोध से ग्रस्त है। बिना कोई अपराध किए ही अपराधबोध! बहुत अजीब मामला है यह! क्या लड़की का जन्मना इतना भयानक अपराध? भारत की भूमि पर लगा हुआ यह ऐसा कलंक है जिसे जिलेसिंह जैसे पिता ही धो सकते हैं। तभी तो कुछ क्षण पहले तक जो मनदीप स्वयं को कोस रही थी! अपने पति को ढोलकिए के सुर, लय-ताल पर नाचते पाकर ऐसा लगा जैसे उसके सामने- ‘‘उजाले का सैलाब उमड़ पड़ा हो।’’ पूरे मोहल्लेवाले भी चौंक पड़े। ऐसा महान व्यवहार किया जिलेसिंह ने नवजन्मा, अपनी पत्नी, घर-परिवार और समाज के साथ। उसकी ‘नवजन्मा’ जब बड़ी होगी और अपने पिता की महान दास्तान सुनेगी… कि लड़कियों के जन्म पर जब घर-समाज में चहूँ दिशा अंधकार छा जाता था! तब उसके पिता जिलेसिंह ने किस प्रकार एक सुखद आयोजन कर चारों ओर उजाला किया। तब यकीनन… यह अनुभूतिगम्य क्षण उस ‘नवजन्मा’ को कितना सुख पहुँचाएगा।
परम्परा से असहमति होने के बाद ही प्रतिरोध की भूमि तैयार होती है। क्या किसी में इतना प्रतिरोध है जो अंगद की तरह पैर पटककर, सीना ठोंककर कह सके… ओए जिल्ले… मैं भी हूँ तेरे जैसा पिता, देवर या भाई! कारण… लड़कियों के सामने ‘नवजन्मा’ जैसी ही नहीं अपितु ‘कालचिड़ी’ जैसी समस्याएँ भी हैं। इसी प्रकार की सैकड़ों समस्याएँ हैं जो उनके मार्ग में आकर उन्हें असमय लील जाती हैं।
समाज का विमर्श, साहित्य का विमर्श बने इस हेतु आवश्यक है कि लघुकथाओं में समाज की सभी समस्याएँ सूक्ष्मरूप चिह्नित हों। इन संमस्याओं में एक रंगभेद भी है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘कालचिड़ी’ में यह स्थिति बहुत गम्भीरता और सूक्ष्मता से चित्रित है। विचारणीय है कि यह कोई समस्या नहीं पर गोरी चमड़ी-काली चमड़ी की मानसिकता के कीड़े जब निशदिन काटे, तब कौन सी दवाई दी जाए जिससे इन कीड़ों का नाश हो। आधुनिक शिक्षा नामक दवाई तो असफल रही! पर आस-विश्वास भी अन्ततः उसी से है। बहरहाल, अपने पात्रों एवं समस्याओं को लेकर ‘कालचिड़ी’ की कथावस्तु जिन बिन्दुओं पर समाप्त होती है, संभव है कि घर-परिवार में बहुत छोटा प्रतीत हो। परन्तु ऐसा है नहीं! यह लघुकथा घर, परिवार, समाज और सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त रंगभेद की समस्या की ओर संकेत करती है। रंगभेद अर्थात् रंग-वर्ण को लेकर भेद करने की मानसिकता! विश्व के कई देश इससे पीड़ित हैं। भारतीय समाज का सन्दर्भ ग्रहण करें तो यहाँ की मन-मिट्टी में भी यह मानसिकता सदियों से उगी बैठी है। इसी कारण ‘कालचिड़ी’ की शुचिता की प्रतिभा, पढ़ाई, समझदारी और खूबसूरती के समक्ष भी उसका सांवला रंग अत्यधिक भारी पड़ रहा है। इसी वजह से घर आए लड़के वाले उसे नापसंद कर देते है। ‘कालचिड़ी’ की नायिका के बहाने यह लघुकथा उन लाखों-करोड़ों लड़कियों की कथा-व्यथा है जो रंग-रूप से साँवली हैं। प्रतीकात्मक शैली में प्रस्तुत की गई यह ऐसी उत्कृष्ट लघुकथा है, जो कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है। इसमें एक कथा काली चिड़िया की है, और दूसरी कथा शुचिता की। अन्त में यह बात शुचिता सहित पाठकों की समझ में आ जाती है कि काली चिड़िया बरामदे में लगे आईने पर प्रतिदिन चोंच क्यों मारती है। निस्संदेह… लघुकथा पूर्ण होने तक रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने इसकी कथावस्तु, भाषा-शैली और शिल्प पर कई कोणों से विचार किया है, तब यह लघुकथा अस्तित्व में आई होगी।
‘कालचिड़ी’ की कथावस्तु का पहला स्तर यही है कि शुचिता, उस काली चिड़िया को रोज-रोज भगा देती है। उसके मन में खीझ भी उत्पन्न होती है कि इसे आईने से इतनी चिढ़ क्यों है? एक दिवस हँसते-मुस्कुराते हुए घर में लड़के वाले आते हैं और चंद क्षणों में उदासी की वर्षा करके चले जाते हैं। फिर अन्त में कथावस्तु का दूसरा स्तर प्रारम्भ होता है। वह स्तर क्या है? इसे लघुकथाकार के शब्दों में इस प्रकार देखें- ‘‘काली चिड़िया बरामदे में लगे दर्पण पर अब भी चोंच मार रही थी।
शुचिता ने इस बार उसको उड़ाने की चेष्टा नहीं की।’’9
दुख के समय दुखी व्यक्ति की दृष्टि प्रत्येक उस व्यक्ति-वस्तु को पहचान लेती है, जो किसी कारण दुख के रंग में रंगा है। जितना सुख नहीं जोड़ता, उतना दुख जोड़ता है। ‘कालचिड़ी’ इस विचार की पूर्ति करती है। लघुकथा में समस्या-मुक्ति की बेचैनी और असंमजस की छाया, स्पष्ट चित्रित है।
समस्याओं का हल करने की सबसे अधिक बेचैनी साहित्य में समाहित होती है। यह मनुष्य से मनुष्यता और संवेदना की अपेक्षा रखता है। इसलिए उसकी दृष्टि उन सभी विषय-क्षेत्रों पर है, जिनमें मनुष्यों की घुसपैठ है। एक लेखक अपने समाज का बड़ा बुद्धिजीवी होता है। उसे विश्वास है कि वह कठिन से कठिन विषयों को, मौखिक वार्तालाप की अपेक्षा साहित्य द्वारा प्रस्तुत करके उसका समाधान प्रस्तुत कर देगा, क्योंकि कला-साहित्य, संगीत का विषय हृदय, संवेदना और प्रतिरोध से जुड़ा हुआ है। बुद्धिजीवी के सन्दर्भ में साहित्य के प्रोफेसर एडवर्ड सईद का मानना है, ‘‘बुद्धिजीवी की भूमिका जड़ता को तोड़ने, सवाल उठाने तथा बातें कहने की होती है जिसे लोग नहीं कहेंगे, तथा जो स्थितियाँ हैं, जानी, समझी जिनके साथ तालमेल बैठाकर हममें से ज्यादातर लोग जीते हैं, उनके आगे जाने की हिम्मत बुद्धिजीवी दिखाते हैं।’’10
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ इसी प्रकार के बुद्धिजीवी और लघुकथाकार हैं। लघुकथा के द्वारा जड़ता तोड़ने वाले। सवाल उठाने वाले। इस संदर्भ में उनकी लघुकथा ‘कटे हुए पंख’ का पाठ-कर, देश की सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक संरचना को समझने का प्रयत्न उचित होगा। आपात्काल में लिखी यह लघुकथा तोते के माध्यम से सारी स्थिति बयान कर देती है। इसका निम्न संवाद बहुत महत्त्वपूर्ण है- ‘‘बेटा, प्रजा शेर होती है। बादशाह की कुशलता इसी में है कि शेर पर सवार रहे। नीचे उतरने का मतलब है मौत।’’11 यह एक निरंकुश बादशाह को उसके मरते हुए बाप से तकनीकी सीख थी। फिर निरंकुश बादशाह ने यही किया भी। ऐसे में एक तोता ने उड़-उड़कर चहुँदिशा चेतना जगाने का कार्य किया, तब बादशाह ने बहुत चालाकी से तोता के पर काटकर उसे सदैव के लिए एक जगह पर स्थिर-खामोश भी कर दिया। बादशाह ने ऐसी कथा रची कि जनता भी मूर्ख बन गई।
मानव और मानवेतर पात्रों का आधार बनाकर ‘कटे हुए पंख’ विस्तृत फलक की लघुकथा है। इसके आलोक में कहना उचित होगा कि आज का समय भी ऐसा है। जिसने चेतना का प्रसार किया… मार दिया गया। स्मरण करें नरेन्द्र दाभोलकर, जो आधुनिक समाज के बहुत बड़े बुद्धिजीवी और समाज सुधारक थे! शंकर शैलेन्द्र के गीत का मुखड़ा है-
‘‘तू ज़िन्दा है तू ज़िन्दगी की जीत में यक़ीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर।’’12
स्वर्ग को ज़मीन पर उतार लाने का कार्य, जिसने भी किया। संकीर्ण समाज और लंपटधारियों ने उस व्यक्ति या बुद्धिजीवी के प्राण हर लिये। सर्वप्रथम इसके शिकार बने सुकरात। वर्तमान कालावधि में भी मरने वालों की गणना नहीं! दुनिया को स्वर्ग बनाने का सपना देख रहे बुद्धिजीवियों का अपराध यही है कि उनका कोई ‘अपराध’ नहीं। फिर भी वे मार दिए जाते हैं। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘अपराधी’ में भी यही सब कुछ है। लघुकथा के समतल परिदृश्य पर एक ऐसा व्यक्ति है, जिसका टूटना-बिखरना ही उसकी नियति है। इसमें दो बिन्दु महत्त्वपूर्ण है। एक, मनुष्य का स्वाभाविक चाल-ढाल, रंग-रूप। दूसरा, लंपट टाइप मनुष्य-चरित्र का यथार्थ। ऐसे में फिर सदा हँसाने-खिलखिलाने वाला एक व्यक्ति, विसंगतियों-बिडंबनाओं और बुरे चरित्रों का शिकार होकर इस दुनिया से असमय रुख़सत हो जाता है। पर मृत्यु से पूर्व उसने कई अच्छे कार्य किए। ये कार्य ही उसके शत्रु बन गए। लघुकथा की अंतिम पंक्ति द्रष्टव्य है , ‘‘लोग कह रहे थे’ उसने आत्महत्या की है।’’13
यह है इस दुनिया की वास्तविकता… चेतनाशील व्यक्तियों को मारकर जस्टीफाई भी कर देती है, पर अपनी गलती नहीं स्वीकारती। यह अंधभक्ति, धार्मिक कट्टरता को शय देने के कारण अधिक होता है कि धर्म-संप्रदाय के खिलाफ बोलने पर यह हुआ। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की इस विषयक ‘पागल’, कट्टरपंथी और ‘धर्मनिरपेक्ष’ आदि लघुकथाओं की अनुगूँज, क्षण-क्षण सोचने-विचारने पर विवश करती हैं।
यहाँ एक प्रश्न है कि क्या वास्तव में साम्प्रदायिकता और धर्म का आपस में कोई सम्बन्ध है? या साम्प्रदायिकता का प्रश्न अलग है और धर्म का भी अलग! या इन दोनों नामों के आधार पर साम-दाम-दंड-भेद के पोषक तत्त्वों द्वारा कोई खूनी खेल खेलने का खेला चल रहा है! इस सम्बन्ध में हिन्दी के शीर्षस्थ कवि नरेश सक्सेना की उक्ति बहुत महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है, ‘‘साम्प्रदायिकता का धर्म से कुछ लेना देना नहीं है। यह मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियाँ हैं, जो तरह-तरह से अपना खेल खेलती है। विडंबना यह है कि ‘पशु’ संगठित हैं और तथाकथित मनुष्य असंगठित।’’14
निष्कर्ष:
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथाओं के विषय में निष्कर्ष निकालना अधिक कठिन नहीं। लघुकथाओं के आस्वादोपरान्त उनके पाठकगण भी भली-भाँति परिचित हैं कि वह सरल हृदय के सरल-शांत, सक्रिय लघुकथाकार हैं। उनकी लघुकथाओं की जड़-ज़मीन इतनी साफ़-सुथरी होती है कि उसे देखकर, नई पीढ़ी की भी…. अपनी जड़-ज़मीन साफ-सुथरी करने की इच्छा बलवती हो उठती है। उनकी लघुकथाएँ जीवन समाज, मनोविज्ञान और अपने पर्यावरण की सूक्ष्म एवं सुन्दरतम अभिव्यक्ति हैं, जो थोड़ा रुक-ठह कर सोचने पर विवश करती हैं। एक प्रकार से वह लेखनी द्वारा सर्वप्रथम अपनी लघुकथाओं से, तदुपरान्त लघुकथाओं द्वारा सहृदयों से संवाद करते हैं। इस प्रकार उनकी लघुकथाएँ संवाद की प्रक्रिया में गहरे रूप में संवादी होती हैं। इस क्रम में आदर्श प्रस्तुति ‘ऊँचाई’ का बिम्ब मन-मस्तिष्क में रखना होगा।
प्रेमचंद साहित्य के मर्मज्ञ कमलकिशोर गोयनका का कथन है – ‘‘लघुकथा एक लेखकविहीन विधा है’’,15 यह कथन रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के सन्दर्भ में पूर्णतः औचित्यपूर्ण है। वह कभी भी लघुकथा की कथा के अन्तःपुर में खड़े नहीं होते! न इस पक्ष में, न उस विपक्ष में। न बीच में। पर… कथावस्तु की स्वाभाविक प्रवाह की दिशा में अवश्य होते है। तभी उनकी लेखनी से स्मरणीय लघुकथाएँ निकलती हैं। इन्हीं कारणों से वह आधुनिक हिन्दी लघुकथा के क्षेत्र में ऊँचाई के उच्च पायदान पर खड़े हैं… कि उन्हें न देखना कभी संभव नहीं।
सन्दर्भ सूची:
1.रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 21
2.हरिशंकर परसाई, लघुकथा-विमर्श, सं0-डॉ. रामकुमार घोटड़, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2009, पृष्ठ 27
3.पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-7, संपादक-मधुदीप, दिशा प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2014, पृष्ठ 91
4.रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 7
5.सुकेश साहनी, लघुकथा सृजन और रचना-कौशल, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2019, पृष्ठ 99
6.गद्यकोश, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु, अनुभाग: लघुकथाएँ
7.पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-7, संपादक-मधुदीप, दिशा प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2014, पृष्ठ 104
8.वही, पृष्ठ 105
9.गद्यकोश, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु, अनुभाग: लघुकथाएँ
10.बुद्धिजीवी की भूमिका, (संकलन), गार्गी प्रकाशन दिल्ली, संस्करण-जनवरी 2018, पृष्ठ 50
11.गद्यकोश, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु, अनुभाग: लघुकथाएँ
12.समर तो शेष है, परिकल्पना प्रकाशन लखनऊ, संस्करण:जनवरी 2014, पृष्ठ 23
13.जनगाथा, ब्लॉग, संपादक-डॉ0. बलराम अग्रवाल
14.नरेश सक्सेना, कथाक्रम, जुलाई-सितंबर 2003, संपादक- शैलेन्द्र सागर, पृष्ठ 134
15.डॉ0 बलराम अग्रवाल, पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-7, संपादक-मधुदीप, दिशा प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2014, पृष्ठ 25