1-आउटगोइंग
सुदूर पहाड़ में रहकर खेतीबाड़ी करने वाले अपने अनपढ़ एवं वृद्ध माता पिता के हाथ में शहर जाकर बस गए लड़कों ने परमानेंट इन्कमिंग फ्री वाला मोबाइल फ़ोन पकड़ा दिया. साथ ही फ़ोन रिसीव करना व काटना भी अच्छी तरह से समझा दिया. बेटे चिंता से अब पूर्णतः मुक्त।
रविवार –
बड़ा लड़का “इजा प्रणाम, कैसी हो?”
इजा की आंखों में आंसू, ‘कितना ख्याल है बड़के को हमारा, हर रविवार को नियम से फ़ोन करता है’.
“ठीक हूँ बेटा, तू कैसा है?’
“मैं ठीक हूँ, बाबू कहाँ हैं?”
“ले बाबू से बात कर ले, तुझे बहुत याद करते हैं”.
“प्रणाम बाबू, कैसे हो?”
“जीते रहो।”
“बाबू तबियत कैसी है?”
“सब ठीक चल रहा है ना? खेत ठीक हैं? सुना है इस साल फसल बहुत अच्छी हुई है. ऑफिस के चपरासी को भेज रहा हूँ, गेंहूँ, दाल, आलू और प्याज भिजवा देना. यहाँ एक तो महंगाई बहुत है दूसरे शुद्धता नहीं है. जरा इजा को फ़ोन देना.”
“इजा, तेरी तबियत कैसी है?”
“बेटा, मेरा क्या है? तेरे बाबू की तबियत ठीक नहीं है तू………..”. “बाबू इतनी लापरवाही क्यों करते हैं? ठीक से ओढ़ते नहीं होंगे. नहाते भी ठंडे पानी से ही होंगे. बुढापे में भी अपनी जिद थोड़े ही छोडेंगे. इजा, तू उनको तुलसी-अदरक की चाय पिलाती रहना, ठीक हो जाएँगे>”
“पर मेरी……।”
“अच्छा इजा, अब फ़ोन रखता हूँ, अपना ख्याल रखना. फ़ोन में पैसे बहुत कम बचे हैं” कहकर बेटे ने फ़ोन काट दिया।
“अरे, असल बात तो मैं कहना ही भूल गई कि अब हम दोनों यहाँ अकेले नहीं रहना चाहते. आकर, हमें अपने साथ ले जाये. कैसी पागल हूँ मैं, सठिया गई हूँ शायद”, माँ ने पिता कि ओर देख कर कहा तभी फ़ोन कि घंटी दुबारा बजी, ‘शायद छोटू का होगा’, दोनों की आंखों में चमक आ गई। “हेलो इजा, मैं छोटू, अभी-अभी दद्दा के घर आया हूँ। तू जब दद्दा के लिए सामान भेजेगी, मेरे लिए भी भिजवा देना। हमारी भी इच्छा है कि गाँव का शुद्ध अनाज खाने को मिले”, कहकर छोटू ने फ़ोन काट दिया।
माँ ने जब उसका नम्बर मिलाया तो आवाज़ आई, ‘इस नम्बर पर आउटगोइंग की सुविधा उपलब्ध नहीं है’।
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2-सच
“यह मेरे साइन नहीं हैं, बोलो तुमने ही किए हैं ना मेरे साइन।” सुमन ने कड़क कर पूछा।
“नहीं मैडम”. तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम में, कक्षा तीन में पढ़ने वाली रेखा ने डरते हुए जवाब दिया।
“झूठ बोलती हो, हाथ उल्टा करके मेज़ पर रखो।”
रेखा ने सहमते हुए हाथ आगे किए। ‘तडाक’, सुमन ने लकड़ी के डस्टर से उसके कोमल हाथों पर प्रहार किया. रेखा रोने लगी.
“अगर तुम सच बोल दोगी ,तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगी। बोलो, कह रही किए हैं ना।”
“नहीं मैडम, मैं सच कह रही हूँ।”
सुमन गुस्से से पागल हो गई। ‘तड़ाक, तड़ाक, तड़ाक, तड़ाक’. सुमन ने उन मासूम हाथों पर अनगिनत प्रहार कर डाले। रेखा से दर्द सहन नहीं हुआ, तो उसने स्वीकार कर लिया कि वह साइन उसने ही किए थे। सुमन के चेहरे पर विजयी मुस्कराहट तैर गई। ‘आखिरकार, सच उगलवा ही लिया।’
शाम को घर पहुँच कर सुमन ने कॉपियों का बंडल जाँचने के लिए बैग से निकाला ही था कि उसका नन्हा बेटा खेलता हुआ वहाँ आ गया, “मम्मी, मुझे तुम्हारी तरह कॉपी चेक करना बहुत अच्छा लगता है. प्लीज़, एक कॉपी मुझे भी दे दो.” सुमन का माथा ठनका, “तूने कल भी यहाँ से कॉपी उठाई थी क्या?”
“हाँ मम्मी, बहुत मज़ा आया। बिल्कुल तुम्हारी तरह कॉपी चेक करी मैंने।” सुमन ने अपना माथा पकड़ लिया।
उधर, रेखा के माँ बाप उसका सूजा हुआ हाथ देखकर सन्न रह गए। दिन-रात खेतों मैं कड़ी मेहनत करने वाले उसके माता-पिता का एकमात्र उद्देश्य यही था कि उनकी बेटी कुछ पढ़-लिख जाए, “आग लगे ऐसे स्कूल को। कल से मेरे साथ खेत पर काम करने चलेगी, समझ गई। बड़ी आई स्कूल जाने वाली।” माँ उसके नन्हे हाथों पर हल्दी लगाती जा रही थी और साथ ही साथ रोए भी जा रही थी।
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3-मिस हॉस्टल
आज हॉस्टल में बहुत गहमागहमी का वातावरण था क्योंकि आज समस्त वरिष्ठ छात्राओं के मध्य में से कोई एक मिस हॉस्टल का बहुप्रतीक्षित ताज पहनने वाली थी। विश्वस्तरीय सौंदर्य प्रतियोगिताओं की तर्ज पर कई राउंड हुए। अन्तिम राउंड प्रश्न-उत्तर का था, जिसके आधार पर मिस हॉस्टल का चुनाव किया जाना था।
प्रश्नोत्तर राउंड के उपरांत जिस छात्रा को गत्ते का बना चमकीला ताज पहनाया गया, उसने अपने मार्मिक उत्तर से सभी छात्राओं का दिल जीत लिया।
उससे पूछा गया था, “जाते समय दुनिया को क्या दे कर जाएँगी आप?”
“मैं अपनी आँखें एवं गुर्दे दान करके जाऊँगी,ताकि ये किसी जरूरतमंद के काम आ सकें।”
तालियों की गड़गडाहट के साथ सभी छात्राओं ने उसके साथ विभिन्न कोणों से फोटो खिंचवाए। पूरे हॉस्टल एवं कॉलेज में उसके महान विचारों की चर्चा हुई।
कुछ महीनों के पश्चात परीक्षाएँ ख़त्म हुईं । सभी छात्राएँ अपने-अपने घरों को लौटने लगीं । मिस हॉस्टल ने भी सामान बाँध लिया था और अपनी रूम-मेट के साथ पुरानी बातों को याद कर रही थी। बातों-बातों में वह आक्रोशित हो गयी और फट पड़ी-“इतने सड़े हॉस्टल में दो साल गुज़ारना एक नरक के समान था। टपकती हुई दीवारें, गन्दा खाना, पानी की समस्या, टॉयलेट की गन्दगी और सबसे खतरनाक ये लटकते हुए तार। उफ़, दोबारा कभी न आना पड़े ऐसे हॉस्टल में”।
रूममेट ने हाँ में हाँ मिलाई तो मिस हॉस्टल का क्रोध और बढ़ गया।
“जब मैं यहाँ आई थी, तो इस कमरे में न कोई बल्ब था, न रॉड और न ही स्विच बोर्ड. वॉर्डेन से शिकायत की, तो उसने कहा, “हम क्या करें, जितना यूनिवर्सिटी देगी उतना ही तो खर्च करेंगे।”
“सब कुछ मुझे खरीदना पड़ा अपनी पॉकेटमनी से। इनको अपने साथ ले जा तो नहीं सकती, पर ये स्विच उखाड़कर और ये बल्ब फोड़कर नहीं जाऊँगी, तो मेरी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी।”
मिस हॉस्टल अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख सकी। उसने एक कंकड़ उठाया और पहले बल्ब पर निशाना साधा, फ़िर रॉड को नेस्तनाबूद कर दिया। रोशनी चूर-चूर होकर फर्श पर बिखर गई……..
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4-लिस्ट
“इस बार सभी प्रकार के स्थानान्तरणों में पूर्णतः ईमानदारी बरती जा रही है। हम चाहते हैं कि हमारा सिस्टम एकदम पारदर्शी हो। पिछली सरकारों ने स्थानांतरण को एक व्यापार बना रखा था, परन्तु अब ऐसा नहीं होगा। हमने नवनियुक्त निदेशक से भी कह दिया है कि किसी भी प्रकार के दबाव में न आएँ और पूरी ईमानदारी से अपना काम करें”।
मंत्री जी ने अख़बारों में लंबे-लंबे बयान दिए। कर्मचारियों के मन में कुछ उम्मीद जगी। नवनियुक्त निदेशक ख़ुशी से फूला न समाया। पहली ही नियुक्ति में उसे अपनी ईमानदारी एवं कर्मठता को सिद्ध करने का मौका मिलेगा। घर आकर अपने बीमार पिता के पास आकर उसने अपनी ख़ुशी का इज़हार किया।
“पिताजी,देखना मैं कैसे इस भ्रष्ट विभाग को ठीक करता हूँ। मंत्री जी भी मेरे साथ हैं। उन्होंने कहा है कि मेरे काम में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।”
“अच्छा ….. !”. पिताजी की आँखें आश्चर्य से फैल गईं।
निदेशक ने प्रार्थनापत्रों की भली प्रकार जाँच करके एक अन्तिम लिस्ट तैयार कर ली। अगले ही दिन मंत्री जी ने उन्हें अपने ऑफिस में बुलवाया ।
“सुना है स्थानांतरण लिस्ट बन गई है, ज़रा दिखाएँगे।”
“जी सर. आपके कथनानुसार पूरी ईमानदारी से लिस्ट बनाई है”, कहकर उन्होंने लिस्ट मंत्री जी की ओर बढ़ा दी।
मंत्री जी एक नज़र लिस्ट पर दौड़ाई और एक किनारे कर दी। “ऐसा है महोदय, हमें अपने लोगों का भी ख्याल रखना पड़ता है। एक लिस्ट हमने भी बनाई है, यही फाइनल होगी। आप इस पर हस्ताक्षर कर दीजिए, इसे कल ही जारी करना है।”
निदेशक को जैसे काठ मार गया हो. “परन्तु सर,………”
“किंतु, परन्तु मत लगाइए। आपको क्या फ़र्क पड़ता है, लिस्ट कोई सी भी हो।”
“लेकिन ज़रूरतमंद लोग इस साल भी रह जाएँगे। उन्होंने इस साल बहुत उम्मीद लगा रखी है।”
“देखिये श्रीमान, हमें पता है की आपके पिताजी बीमार हैं। माताजी भी स्वर्ग सिधार गई हैं। ख्वामखाह दूर किसी कोने में पटक दिए जाएँगे तो आपको बहुत परेशानी हो जाएगी। समझदारी इसी में है कि इसपर हस्ताक्षर कर दीजिए। मज़े से रहिए और हमें भी रहने दीजिए।”
निदेशक महोदय ने काँपते हाथों से लिस्ट पर हस्ताक्षर कर दिए। उनकी आँखों के आगे कई चेहरे तैर गए, जो न जाने कितनी उम्मीदें लेकर उनके पास आए थे और जिनको उसने स्थानांतरण का पूरा आश्वासन दे रखा था।
लिस्ट जारी होने के बाद पूरे विभाग में यह ख़बर फ़ैल गई कि मंत्री जी ने स्थानान्तरणों के मामले में पूरी पारदर्शिता एवं ईमानदारी बरती थी; पर इस नवनियुक्त भ्रष्ट अफसर ने उनकी एक न सुनी और घूस खाकर सुविधाजनक स्थान लोगों को बाँट दिए ।
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5-जंगली
विद्यालय में अपनी पहली नियुक्ति के तहत संगीता को सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में जाने का अवसर मिला। छोटे-छोटे गरीब, फटेहाल बच्चों को देखकर उसका दिल भर आया। कड़कडाती सर्दी में भी उनमें से कई के पास न गर्म कपड़े थे, न ही जूते-चप्पल। ‘अगली बार घर जाऊँगी तो इनके लिए कुछ गर्म कपड़े ख़रीद लाऊँगी’, संगीता ने मन ही मन सोचा।
बच्चे आँखें बंद करके प्रार्थना करने में तल्लीन थे। संगीता ने पास खड़ी प्रधानाध्यापिका से कहा,”कितने प्यारे बच्चे हैं न मैडम?”
“प्यारे?” प्रधानाध्यापिका को जैसे करेंट मार गया हो,”जंगली कहो मैडम जंगली, पचास सालों में भी नहीं सुधरने वाले हैं ये, देख लेना।”
संगीता सकपकाकर चुप हो गई।
प्रार्थना के पश्चात् प्रधानाध्यापिका ने बच्चों को संबोधित किया,”बच्चों, जैसा मैंने तुम्हें कल बताया था मुझे पीलिया हुआ है, अतः मेरे लिए अपने अपने घरों से हरी सब्जियाँ ले आना. जो-जो बच्चे लाए हैं, वे नीचे मेरे घर में रख आएँ।”
देखते ही देखते उनके घर में हरी सब्जियों का ढेर लग गया। संगीता प्रधानाध्यापिका की कर्मठता से बहुत प्रभावित हुई, “मैडम आपको पीलिया हुआ है और आप विद्यालय आ रही हैं। आपको घर पर आराम करना चाहिए, वरना आपकी तबीयत और बिगड़ जाएगी।”
प्रधानाध्यापिका ने अपना मुँह संगीता के पास ले जाकर कहा,”अरे मैडम, पीलिया हो मेरे दुश्मनों को। यह नाटक तो मुझे हर हफ्ते करना पड़ता है। अरे, गाँव में रहकर भी खरीद कर खाया, तो क्या फायदा हुआ यहाँ रहने का? मैं तो यहाँ से ट्रांसफर की कोशिश भी नहीं करती हूँ। मेरा तो लगभग पूरा ही वेतन बच जाता है। जब यहाँ आई थी, तो मेरा हीमोग्लोबिन 8 था, अब बड़कर 13 हो गया है। अब से आप भी ऐसा ही करना।”
फ़िर उन्होंने बच्चों की ओर रुख किया,”अरे ओ चंदन, तू और गिरीश जाकर मेरे कमरे के बाहर रखे खाली सिलेंडर को ले जाकर, सड़क पर जो चाय की दुकान है, वहाँ रख देना। उसे अपने पिताजी से कहकर भरवा देना और कल स्कूल आते समय लेते आना, अच्छा।”
संगीता का दिमाग जंगली शब्द पर उलझकर रह गया।
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6-प्रॉब्लम चाइल्ड
एक सरकारी इंटर कॉलेज का प्रार्थनास्थल। प्रार्थना का समय। पच्चीस अध्यापक एवं लगभग पाँच सौ छात्र एकत्र हैं। सर्वधर्म प्रार्थना के उपरांत राष्ट्रगान शुरू हुआ। कतिपय छात्र हमेशा की तरह देर से आ रहे हैं और राष्ट्रगान सुनकर भी चलना बंद नहीं कर रहे हैं। कुछ अपनी नाक में उंगली डालने में असीम आनंद अनुभव कर रहे हैं। किसी के सिर में ठीक इसी समय खुजली लग रही है।
बच्चों की इन हरकतों से नवनियुक्त प्रधानाचार्य का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया,”यह क्या हो रहा है? बिना हिले-डुले खड़े नहीं हो सकते हो? इतनी जल्दी राष्ट्रगान ख़त्म कर दिया। हारमोनियम के साथ सुर क्यों नहीं मिलाते हो? जानते हो, यह राष्ट्रगान का अपमान है। इसका अपमान करने पर जेल हो जाती है।”
एक वरिष्ठ अध्यापक ने साहब का समर्थन किया,”साहब ये तो कुत्ते की पूँछ हैं, कितनी भी सीधी करो टेढी ही रहती है। लाख समझाओ पर ‘गुजरात’ को ‘गुज्राष्ट्र’ ही कहेंगे, ‘बंग’ को ‘बंगा’ ही कहेंगे। हम लोग तो कहते-कहते थक गए हैं, अब आप ही कुछ कीजिए।”
“आप लोग चिंता मत कीजिए। आज पूरा दिन इनको यही अभ्यास करवाया जाएगा। जब तक बिना हिले सही उच्चारण करके नहीं गा लेंगे, घर को नहीं जा पाएँगे”, प्रधानाचार्य ने कड़क स्वर में आदेश सुनाया।
कक्षा बारह का एक छात्र उठकर बोला,”माफ़ कीजिए सर, मेरा एक सुझाव है। यदि आप लोग भी हमारे साथ रोज़ राष्ट्रगान गाएँगे< तो हमें जल्दी समझ में आ जाएगा।”
” ज़ुबान लड़ाता है कमबख़्त। क्या नाम है तेरा? चल, किनारे जाकर खड़ा हो जा। अभी तुझे ठीक करता हूँ”, प्रधानाचार्य को मानो बिच्छू ने डंक मार दिया हो।
दो तीन और वरिष्ठ अध्यापक भी मैदान में आ गए,”साहब, यह प्रॉब्लम चाइल्ड है। इसने हमारी भी नाक में दम कर रखा है। हमसे कहता है की मेरी कॉपी रोज़ जाँच दिया कीजिए। अरे, हम लोग लेक्चरर लोग हैं, हमारा एक स्टैण्डर्ड है। हम क्या एल. टी. वालों की तरह कॉपियाँ जाँचते रहेंगे?”
और कोई दिन होता तो इसी बात पर एल. टी. वालों और लेक्चररों के बीच महाभारत छिड़ जाती, परन्तु आज अद्भुत एकता स्थापित हो गई। सभी एक स्वर से बोल पड़े,”हाँ, हाँ, बिल्कुल. टीचरों से राष्ट्रगान गाने के लिए कहता है। सारे स्कूल का अनुशासन बिगाड़कर रख दिया है। इसे आज अच्छा सबक सिखाइए, ताकि आगे से किसी की इतनी हिम्मत न पड़े।”
सारा स्टाफ उसे सबक सिखाने में जुट गया।कभी किसी बात पर एकमत न होने वाले गुरुजनों में आज गज़ब की एकता आ गई थी।
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