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प्रतिरोध की सशक्त लघुकथाएँ: किसका दोष

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आशमा कौल श्रीनगर कश्मीर में जन्मी और दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षित सुपरिचित कवयित्री है। अब तक इनके छह काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। जिनमें कश्मीरियत की खुशबू को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। अभी हाल में इनका लघुकथा- संग्रह ‘किसका दोष’ प्रकाशित हुआ है,जिसमें 90 लघुकथाएँ हैं। ये लघुकथाएँ देश के गंभीर मुद्दों के साथ समाज के बिगड़े ताने बाने का आधार बनती हैं। आदमी के चेहरे पर लगे मुखौटों को उतारने का प्रयास करती नजर आती हैं।

लघुकथा‘ खानदानी’ में व्यक्ति के उसी मुखौटे को उतार फेंकने का प्रयास हुआ है। एक तरफ व्यक्ति दूसरे व्यक्ति में अवगुणों को देखता है जबकि उसी तरह के कीटाणु उसके अंदर ही कुलबुला रहे हैं। अपनी पत्नी को औरों की नजरों से बचने की सलाह देता है जबकि उसकी खुद की नजरें अपने घर की नौकरानी के वक्ष पर गढ़ी हुई हैं।

जिस देश का बचपन ही भूखा हो ऐसे देश में पत्थर के भगवान को भोग लगाया जाए, समझ से परे है।  लघुकथा‘ अपना-अपना भगवान’ जहाँ पत्थर के भगवान को दूध पिलाया जाता है, जबकि जीते जागते बच्चे भूखे मर रहे हैं। यह लघुकथा जहाँ हमारी दिखावा प्रवृत्ति पर प्रहार करती है, वहीं समाज के यथार्थ का भी चित्रण करती है।

कहने को पहाड़ जन्नत हैं, पर उसी जन्नत में आतंकवाद का काला साया किस तरह लोगों की हँसती-खेलती जिंदगी पर ग्रहण लगा देता है, उसका भयावह रूप देखने को मिलता है लघुकथा ‘दोज़ख’ में।

बानगी के तौर पर माँ बेटी के संवाद देखिए-आतंकवादियों के चंगुल से फँसी लड़की जब घर आई तो माँ रोते-रोते बोली-‘‘या खुदा, तेरा शुक्र है, मेरी बच्ची उस दोज़ख से वापस घर आ गई।

’’फातिमा अपनी माँ के आँसू पोंछते हुए धीरे से बोली- ‘‘माँ! मेरे लिए तो अब यह पूरी कायनात ही दोज़ख है।’’

सुन्दर भावों की अभिव्यक्ति है लघुकथा जीत। लघुकथा में मूक-बधिर दम्पती को यदि इस तरह से स्वस्थ बच्चा हो जाए, तो उन्हें लगता है जैसे जिंदगी की हर जंग जीत ली है।

‘औरत सूरज है’ प्रतीकात्मक लघुकथा चिंतन के विविध आयाम खोलती है। औरत सूरज की भॉति पूरा दिन अपनी ऊर्जा लुटाकर उसी तरह थक जाती है जैसे सूरज। और फिर सूर्य के निकलने से पहले ही एक नई ताजगी के साथ उठ खड़ी होती है। नारी सशक्तीकरण की सुन्दर मिसाल है यह लघुकथा।

‘कुछ छूट गया क्या’ लघुकथा में युवा पीढ़ी के मनोभावों का गहन विश्लेषण किया है। आजकल वह अकेला रहना पसंद करती है। उन्होंने इस बात से कोई सरोकार नहीं कि उनके माता-पिता अकेले रहेंगे। यह लघुकथा कहीं न कहीं आज के यथार्थ का ही चित्रण है।

लघुकथा ‘आत्म सम्मान’ में वृद्धों के प्रति अमानवीय सोच को इस कद्र प्रकट किया है कि पाठक तिलमिलाकर रह जाता है। इसी तरह का रूप लघुकथा ‘मुक्ति’ में भी देखने को मिलता है। बहुएँ अपने सास-ससुर को जैसे भार समझने लगी हैं। वृद्धों के प्रति ऐसा व्यवहार देख पाठक भी भावुक हो उठता है।

जब अपने ही देश में, अपने ही घर से कोई बाहर का रास्ता दिखा दे….और उन्हें रातों-रात अपना सब कुछ छोड़कर भागना पड़े… कल्पना मात्र से ही मनुष्य सिहर उठता है; परन्तु जिन कश्मीरी पंडितों ने इस त्रासदी को भोगा है, उनपर क्या गुजरी होगी? कश्मीरी पंडितों के दर्द की दास्तां दर्ज है लघुकथा ‘देश निकाला’ में। लघुकथा में डॉ. रैना जैसे लोग इस सदमे को सह नहीं पाते और बेमौत मौत के आगोश में चले जाते हैं।

इसी लघुकथा की अगली कड़ी के रूप में आती है लघुकथा ‘घर वापसी’ और ‘घर’। 30 वर्षों के बाद फिर से कश्मीर जाकर बसना इतना आसान तो नहीं होता।

यह कैसी विडम्बना है कि देश की संसद जहाँ पूरे देश के विकास हेतु, विधान तय होते हैं ,उसी संसद के सामने चौखट पर बैठी कोई माँ अपने दुधमुँहे बच्चे के लिए भीख की गुहार लगा रही है। करारा व्यंग्य लिए है लघुकथा ‘देश का भविष्य’।

आजकल घरों में कलह का कारण सास-हू के रिश्तों में आई खटास होती है, परन्तु यदि हर सास अपनी बहू को अपनी बेटी समझने लगे तो हर घर से कलह दुम दुमाकर भाग जाए। लघुकथा ‘बेटी’ उम्मीद की नई खिड़की खोलती नजर आती है।

‘दरियादिल’ लघुकथा संस्मरण के करीब पहुँच गई।

आजकल के बच्चों के पास अपने वृद्ध माता-पिता के लिए समय ही नहीं है। ऐसे में उन माता-पिता को उस घर से वृद्धाश्रम अच्छा लगने लगा है। यहाँ एक नया प्रयोग देखने को मिलता है। लघुकथा‘ अपना-घर’ में बेटे के जाने पर माँ रोती नहीं; बल्कि बेटा रोता है, माँ वृद्धाश्रम में ही खुश है।

लेखिका लघुकथा ‘किसका दोष’ में एक ज्वलंत समस्या उठाती है। ईश्वर की सर्वोत्तम कृति माना गया है मनुष्य को, पर वही मनुष्य अपनी नीचता की हर सीमा लाँघ जाता है। वह छोटी छोटी बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बना लेता है। उस पर समाज के ठेकेदार लड़कियों में दोष निकालते हैं कि वे ढंग के कपड़े नहीं पहनती। लघुकथा चिंता और चिंतन को बाध्य करती है।

लघुकथा ‘एन.जी.ओ’ के माध्यम से लेखिका ने उन एनजीओ की पोल खोली है, जो संस्था को कमाई का ज़रिया बना लेते हैं।

‘ईश्वर की लाठी’ लघुकथा हमारी चेतना पर दस्तक देती है। कोरोना काल में अनाथ हुए बच्चें की मर्मान्तक स्थिति का चित्रण किया गया है।

समाज की बेहतरी के लिए प्रतिरोध रचना साहित्य का मूल उद्देश्य है। लघुकथा ‘प्यास’ उसी प्रतिरोध को रचती है। यह लघुकथा अनेक कारणों से पाठक का ध्यान आकर्षित ही नहीं करती;  बल्कि प्रश्न भी खड़े करती है- सदियों से खड़े ये जात-पाँत के दुर्ग कब ढहेंगे?  कब आदमी आदमी की कीमत समझेगा? कब गरीब को कुदरत के दिए संसाधनों पर हक मिलेगा? कब समाज के ठेकेदार गरीबों की बहू-बेटियों की इज्जत से अपनी प्यास बुझाते रहेंगे। लघुकथा का एक संवाद पाठकों के रोंगटे खड़े कर देता है-

‘‘तुमने तो कुएँ का पानी खराब कर दिया, अब इसका तो यही दंड है कि तुम मेरी प्यास बुझाओ और मैं तुम्हारी।’’ लगभग चीखते हुए जमींदार ने इशारा किया।

लघुकथा ‘सुनसान गली’ में जिस तरह आज के युवा विदेशों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं, उससे गलिया सूनी होती जा रही है। गली का बच्चों से सूना होना उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।

इस संग्रह में‘ प्रकृति और लेखक’ कंक्रीट के जंगल’ प्रकृति से जुड़ी लघुकथा हैं, तो  कईं लघुकथाएँ कोरोना काल के काले अध्याय का पाठ भी करती हैं।

लघुकथाओं में पात्रानुकूल भाषा लघुकथाओं को जीवंत बनाती है। कईं लघुकथाओं में तो कविता का रस घुला मिलता है। इसी आशा के साथ लेखिका को बधाई कि यह संग्रह साहित्य- जगत् में अपनी एक पहचान बनायेगा।

-0-किसका दोष( लघुकथा-संग्रह):आशमा कौल: प्रथम संस्करण: 2021,पृष्ठ:112, मूल्य: 150,बोधि प्रकाशन, सी – 46, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन,नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर -302006

-0-राधेश्याम भारतीय, नसीब विहार कालोनी, घरौंडा करनाल 132114


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