नरेन्द्र कोहली लघुकथा लेखकों को चेतावनी देते हुए कहते हैं, ‘लघुकथा अनिवार्य रूप से संक्षिप्त होगी, इसके स्थूल रूप में कौशलहीन ढंग से अपनी बात उगल देने का लोभ किसी भी लेखक को होगा, किंतु इस लोभ का संवरण करना होगा, अन्यथा शिल्पहीनता का नाम लघुकथा हो जाएगा’ , यानी लघुकथा की जगह घटना-कथा केन्द्र में आ जाएगी। किसी घटना की अखबार में रिर्पोटिंग और उस पर आधारित लघुकथा में फर्क तो होना चाहिए। वे रचनाएँ जो पाठक में ललित साहित्य के सौन्दर्यबोध को न जगा सके, निरर्थक है।
लघुकथा के रूप में वे कथानक ढ़लते हैं जिन्हें चाहकर भी विस्तार नहीं दिया जा सकता। जो अपने आप में एक सम्पूर्ण इकाई होते है। ऐसी स्थिति में संक्षिप्तीकरण का सहारा नहीं लिया जाता, बल्कि विस्तारित कथा को संक्षिप्त करना हो तो संक्षिप्तीकरण का सहारा लिया जाता है। सार-संक्षेप की शैली लघुकथा के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है। जब नरेन्द्र कोहली ‘संक्षिप्त’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसका अर्थ लघु या छोटी से ही है। लेखक, सावधानी बरते कि कहीं वह कहानी को तो लघुकथा नहीं बना रहा है, कहीं वह कौशलहीन ढंग से तो कथा नहीं कह रहा है। यह चेतावनी इसलिए जरूरी है कि लघुकथा लेखन अब भी इस प्रवृति से ग्रसित है।
कथा में सहजता एवं प्रवहमानता होनी चाहिए । सारे कथन , संवाद कथा से निःसृत होने चाहिए । सूचनात्मक विवरण का समावेश होने पर कथा के सहज प्रवाह में बाधा पहुंचती है , लेखक का यह प्रयास कथा में पैच वर्क सा लगता है , जो उसके सौन्दर्य को नष्ट कर देगा । सूचनाएँ कथा को उबाउ , निर्जीव व सौन्दर्य हीन बना देती है । लघुता के लिए बिम्ब , प्रतीक , मुहावरे , छोटे व सार्थक वाक्य का प्रयोग किया जाता है । दुर्घटना हो गई , कहने की बजाय दुर्घटना का संक्षिप्त किन्तु सटीक शब्द चित्र प्रस्तुत करना बेहतर होगा। अगर दुर्घटना लघुकथा की अहम घटना हो तो । लेखक को सीधे वास्तविक जीवन के परिदृश्य पर शब्द चित्र प्रस्तुत करने चाहिए । जगदीश कश्यप ऐसी रचनाओं को पूरे लघुकथा साहित्य पर प्रश्न चिन्ह मानते हैं . ‘ऐसी रचनाएँ रिर्पोटिंग , डायरी , घटना कथा और रेखाचित्र बन जाती हैं’ ।
लघुकथा में असामान्य कथ्य एँव अतिरंजित घटनाएँ या कथानक यथासम्भव नहीं होने चाहिए । जैसे सैक्स से संबधित ऐसी घटनाएँ पढ़ने में आती है जिनमें नजदीकी वर्जित रिश्तों में सेक्स संबध होते हैं , ऐसे कथानक सामान्य सामाजिक जीवन से परे हैं इसलिए त्याज्य है । साहित्य सामान्य अनुभव को सृजन क्षेत्र का विषय बनाता है असामान्य घटनाओं का समावेश लघुकथा को सत्यकथा के नजदीक ले जाएगा , जिनमें घटनाएँ महत्वपर्ण हो जाएगी । , अनुभवजन्य संवेदना या कथ्य पीछे छूट जाएगा , अतः ऐसी घटनाओं का उल्लेख हो तो संवेदना , विचार या मूल्य व्यक्त करने के लिए हो न कि घटना के विवरण के लिए ।
लघुकथा कथ्य प्रधान विधा है, और लेखक का सारा आयोजन कथ्य को पाठक तक संप्रेषित करने के लिए है । सामान्य कथ्य को व्यक्त करने के लिए अतिरंजना का उपयोग हो सकता है , जैसा व्यंग्य करता है । लेकिन असामान्य घटनाओं के निष्कर्ष अक्सर खतरनाक होते हैं मुआवजा’ लघुकथा में माँ – बाप अपने मरे बच्चे को बाढ़ में फेंककर मुआवजा माँगते हैं (चलो गनीमत है कि जिन्दे बच्चे को बाढ़ में फेंककर मुआवजा नहीं माँगा)। सहज मानवीय संवेदनाएँ क्या पूर्णतः समाप्त हो गई है ? यह अतिरंजना हमें अनावश्यक ही भयभीत करती है, आशाओं पर तुषारापात करती हे , कि अब जिंदा रहना अमानवीयता की शर्त पर ही सम्भव है ।
नरेन्द्र कोहली ने एक बार चेतावनी देते हुए कहा था कि लघुकथा में चमत्कार के प्रति आग्रह बढ़ता जा रहा है और कहीं यह वीभत्सता को जन्म न दे दे । मुझे लगता है यह चेतावनी ठीक से जेहन में उतारने की जरूरत है । हॅंसराज रहबर ने भी ऐसी चमत्कारिक लघुकथाओं पर टिप्पणी की थी कि यह प्रवृति सड़क पर लालकोट पहन कर टहलने जैसी है , ध्यान आकृष्ट करने की सबसे सस्ती तरकीब है । मंटो का कथ्य तो खैर धारदार रहता था लेकिन आज लिखी जा रही लघुकथाएँ चौकाने की प्रवृति के साथ हास्य उत्पन्न कर , चुटकुले जैसी मालूम होती है । ‘नवतारा’ पत्रिका ने जब यह विवाद चलाया तो उसकी पृष्ठभूमि में ऐसी ही लघुकथाएँ थी .
ज्ञानरंजन ने ऐसी ही लघुकथाओं को देखकर कहा था कि लघुकथाओं में झम्म से उतरता हुआ जादू मिलता है , या चमत्कार या मानवीय हाहाकार या आदर्श सूक्ति , जिसको वे हास्यास्पद मानते हैं । सत्य एवं रोमांचक कथाओं के सन्दर्भ में उपरोक्त बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता । दो -तीन पंक्तियों की ऐसी लघुकथाऐं भी देखने में आई हैं जो सूक्तियों के नजदीक चली जाती है।
मृणाल पाण्डे को लघुकथाएँ इंस्टेंट कहानियाँ(तात्कालिक कथाएँ) लगती हैं जो पूरे साहित्य पर भारी खतरा हैं तात्कालिक लघुकथाएँ तुरत फुरत रची जाने वाली , आज के परिदृश्य , पर आधारित , अखबारों की रिर्पोटिंग / खबरें पढ़कर लिखने वाले तथाकथित कथाकार , उन्हें प्रकाशित करने वाले सम्पादक व पत्रिकाएँ लघुकथा के लिए खतरा है , क्योंकि वे लघुकथाएँ के साहित्यिक गौरव को कम करते हैं । उन रचनाओं में अनुभव का ताप नहीं होता , लेखकीय कौशल नहीं होता , यथार्थ का आभ्यांतीकरण भी नहीं होता ।
लघुकथा साहित्य की इसी कमजोरी की ओर इंगित करते हुए डॉक्टर कमल किशोर गोयनका कहते हैं कि लघुकथा के नाम पर ‘सुने सुनाये चुटकुले , विनोद कथन , मुहावरे , पहेली आदि भी प्रकाशित हो रहे है। अधिकांश में अनुभूति का ताप नहीं , संवेदना की निजता , जीवतंता तथा गहराई नहीं है इनके अभाव में कोई भी रचना कलाकृति नहीं बन सकती’ ।
लघुकथा एक लघुविधा है लेकिन इसके लिए इतनी ही घनीभूत एकाग्र , जीवन्त तथा गहरी संवेदना की आवश्यकता है . बिखरी – उथली संवेदना एक श्रेष्ठ लघुकथा को जन्म नहीं दे सकती ।
घटना या सत्यकथा लघुकथा नहीं है . सुन सुनाये किस्से और संस्मरण भी लघुकथा नहीं है वास्तव में जब घटना लेखकीय प्रतिभा, संवेदनशीलता , व चिंतन का भीतरी हिस्सा बनकर उतरती है तब उसमें ललित साहित्य का सौन्दर्य दिखलाई पड़ता है । यान्त्रिक ढंग से लिखी जाने वाली लघुकथाऐं विसंगतियों के अन्तरविरोध को उघाड़ती तो है लेकिन बिल्कुल यान्त्रिक तरीके से , जैसे भारत के गोदाम गेहूँ चावल से भरे हैं और लोग भूखे मर रहे हैं , और भारत अनाज निर्यात कर कीर्तिमान स्थापित कर रहा है । कथनी – करनी के भेद जैसी सैकड़ों रचनाएँ लघुकथा साहित्य में मिल जायेंगी , उन्हें भी लेखक की संवेदना और सृजन का ताप मिलना चाहिए ।
‘अगर चिंतन युक्त लघुकथाएँ अत्याधिक लिखी जाय तो यह विधागत हर्ष का विषय है, लेकिन सत्य ऐसा नहीं है, जैसे – तैसे लिखकर कथाकारों की श्रेणी में अपना नाम दर्ज करा लेना मात्र उद्देश्य है रामनारायण उपाध्याय कथाकार को सचेत करते हुए कहते हैं, आज तुम लघुकथा के लिए चिंतन नहीं करोगे तो कल लघुकथा तुम्हारे लिए चिंता नहीं करेगी ।
डाॅ. चन्देश्वर कर्ण की चेतावनी भी जेहन में उतारने की जरूरत है ‘लघुकथा प्रचारधर्मियों , यश लिप्सुओं, ध्वजधर्मियों , पण्डों और मठवादियों से घिर गयी है इसे उनसे बचाना होगा , लघुकथा को लेकर अनेक छोटे – बड़े मठ स्थापित है , उनके अपने कर्मकाण्ड हैं , अपने पंडे , संतमहात्मा ओर चेले हैं, अपने-अपने आलोचक-समीक्षक भी हैं , जो उनके अनुरूप व्यवस्था देते है।’
आज स्थिति में परिवर्तन आया है , मठ ढह गये हैं या ढहने की कगार पर हैं , खूब दण्ड पेलने पर भी यशलिप्सा पूरी नहीं हुई । यश सृजन से प्राप्त होता है साहित्य में इसका कोई शोर्टकट नहीं है ।
3-श्रवण कुमार गोस्वामी समीचीन -1 में यही चेतावनी देते हैं ‘ मेरे जानते लघुकथा को सबसे अधिक खतरा लघुकथाकारों एवं उसके क्षेत्रीय ठेकेदारों से ही है , इसके प्रत्येक ठेकेदार के साथ लघुकथा लेखकों का एक बड़ा हजूम भी है । यह हजूम लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिख रहा है नयी कविता के जमाने में जैसी अराजकता देखी गयी थी लगभग वैसी ही अराजकता आज लघुकथा के क्षेत्र में भी देखने को मिल रही है । श्रवण कुमार लघुकथा लेखकों को सचेत करते हुए आगे लिखते हैं ‘‘लघुकथा के अनेक क्षेत्रीय शिविर बन गये हैं और शिविर के सूत्रधार ने अपने को लघुकथा का जनक घोषित कर दिया है । परिणाम यह है कि ये सभी जनक अब दूसरे से भिड़ने के लिए ताल ठोंक रहे हैं और अपने को चक्रवर्ती सिद्ध करवाने में लगे है। वक्त गुजरने के बाद चक्रवर्ती तो एक सिपाही की हैसियत मिल जाये तो बहुत है . ऐसी प्रवृतियाँसाहित्य जगत में ज्यादा देर नहीं टिकती ।
इस सन्दर्भ में डॉ. कमलकिशोर गोयनका का भी यही मत है ‘लघुकथा में मठों की कमी नहीं है । ये मठ बड़े नहीं है , छोटे -छोटे है और इसलिए चारों ओर बिखरे नजर आते हैं लघुकथा प्रान्तो के आधार पर , वैचारिक गुटों के आधार पर छोटे – छोटे मठों में बंट गई है …. बिहार , हरियाणा , उत्तरप्रदेश , राजस्थान आदि प्रदेशों में लघुकथा के कई -कई गुट हैं , जिनके बीच कई बार ऐसी प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हो जाती है जैसे उनके बीच शीत युद्ध हो गया हो । ’ डॉ .गोयनका स्वयं ऐसे ही एक मठ के शिकार रहे है और उसका जवाब देने के लिए ‘लघुकथा का व्याकरण‘ पुस्तक के पचास पेज व्यर्थ कर दिये । शायद उन्होनें आवश्यक समझा। हो , कि ऐसी प्रवति से लोहा लेना जरूरी है ।
श्याम बिहारी ‘श्यामल’ की चिंता – लघुकथा के सीने पर जमा होता कूड़े का यह पहाड़ कौन ढहाएगा ? लघुकथा क्षेत्र के स्वघोषित मसीहाओं की भौं – भौं के आतंक से कैसे निपटा जाएगा ? जो लघुकथा क्षेत्र में समीक्षकों को घुसने नहीं देते । …… जैसे लघुकथा इनकी जागीर है ….. आज इस अराजक व्यूह को भेदना ही इस क्षेत्र की बड़ी चुनौती है । ’
विद्यानिवास मिश्र को लघुकथा की गम्भीरता पर संदेह है , कईयों का मानना है कि लघुकथा लेखन अगम्भीर है इसमें मेहनत नहीं करनी पड़ती । आधे घंटे की सीटिंग में सरलता से लिख ली जाती है और लेखक होने का भ्रम भी पल जाता है । लघुकथा , साहित्यकार बनने का शॅार्टकट है वे इसे आसान काम समझते है और कुछ लिखकर लेखक बनने का दिव्य स्वप्न पाल लेते है।। इसी तरह के सरल लेखन ने लघुकथा साहित्य में कूड़े की समस्या पैदा कर दी है । राजेन्द्र यादव कह रहे हैं -‘लघुकथा में अति हो रही है ; यही नहीं गोविन्द मिश्र तो उसकी पाठकीय भूमिका व गंभीरता पर संदेह व्यक्त करते हैं । इसकी भूमिका को शोर्टकट देना मात्र मानते हैं । ‘लेकिन साहित्य में शॉर्ट कट नहीं चलता है , जो चलाते हैं । वे शोर्ट होकर हर भी गये है।’ (डॉ. कमलकिशोर गोयनका)
‘कथात्मकता की प्रवृति फैलने की है , संक्षिप्तीकरण उसे विकृत पंगु एवं नीरस बना देती है ’ सूर्यनारायण रणसुभे यह कह कर लघुकथा पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देते है। अगर इनकी बात मानली जाय या इस बात में दम खम हो तो लघुकथा को स्क्रेप करने में ही कथासाहित्य की भलाई है , क्योंकि ऐसी विकृत एवं नीरस रचनाओं को साहित्य में स्थान देने का कोई मतलब नहीं है । अगर कथा की प्रकृति फैलने की है तो फिर वृहद उपन्यास से उपन्यास , लघुउपन्यास , लम्बी कहानी तक ही क्यों कहानी और लघुकहानी तक क्यों आ गया साहित्य ? क्यों आज कहानी साहित्य का केन्दीय विधा के रूप में स्थापित है ? फिर लघुकथा किसी लम्बी कहानी का संक्षिप्तीकरण नहीं है । कोई जीवन प्रसंग अगर कम शब्दों में व्यक्त हो सकता है तो उसे विस्तार देना व्यर्थ होगा । कथानक का छोटा या बड़ा होना तय करता है कि रचना लघु होगी या दीर्घ । यह जानबुझकर किया गया चुनाव नहीं है ।
डाॅ रणसुभे के मत में , ‘ आरम्भ के दिनों में इस विधा ने जिस मुद्रा को धारण कर लिया था , आज वहाँ जोकर का चेहरा दिख रहा है …. लघुकथा के नाम पर आजकल जो भी छप रहा है उनमें से अधिकतर को चुटकुले के अन्तर्गत ही रखा जा सकता है , अगर चुटकुला नहीं है तो किसी बीती घटना का नीरस शब्दाकंन …… घटित घटना की शाब्दिक अभिव्यक्ति ही लघुकथा है । … नीरस निवेदन या हुबहू वर्णन के आगे इसकी शैली बढ़ नहीं पायी है । अलबत्ता कुछ कथाकारों ने प्रतीक , मिथक और रूपक का प्रयोग कर अप्रतिम लघुकथाएँ प्रस्तुत की हैं । ’ कथाकारों को सजग होना होगा , शैली को परिष्कृत करना होगा और लघुकथा के चेहरे पर जो जोकर का चेहरा लगा है उसे उतारना होगा तभी साहित्य जगत में इसे गम्भीरता से लिया जाएगा । लेकिन डाॅ रणसुभे अतिवादी कथन पर उतर आते है । प्रबुद्ध पाठक उस विधा केा गंभीरता से ग्रहण नहीं करता उन्हें लघुकथा के जन्म ने कथात्मक साहित्य की गम्भीरता, संवेदनशीलता और कलात्मकता की हत्या कर दी है । ’ डॉ. रणसुभे ने घटिया लघुकथाओं तक ही यह मंतव्य सीमित किया होता तो बेहतर होता क्योंकि लघुकथा के बारे में कोई टिप्पणी श्रेष्ठ लघुकथाओं के आइने में भी होनी चाहिए । एक तरफा बयान अन्य तरह की प्रतिक्रिया पैदा करते हैं जो उचित नहीं कही जा सकती ।
अमर गोस्वामी की लघुकथा के बारे में राय है ‘ लघुकथा जीवन की भूमिका हो सकती है , व्याख्या नहीं और बिना व्याख्या दिये रचनाकार श्रेष्ठ कृति नहीं दे सकता । जीवन और विचार में निरन्तर जूझने की क्रिया तभी संभव हो सकती हे जब व्यक्ति का आकाश विस्तृत हो , वह उसमें उॅंची तथा लम्बी उड़ान भरने में समर्थ हो अपने रचना के आकाश को सीमा बद्ध कर देने से या डैनों को फैलाकर उड़ने के डर से वह ज्ञान विज्ञान की नूतन संभावनाओं से खुद को वंचित कर सकता है किसी रचनाकार के लिए यह घातक स्थिति हो सकती है ।’ गद्य और पद्य की विधाएँ सिमट रही है महाकाव्य से कविता अब एक पेज तक आ गई है यही हालत गद्य की भी है । हालाँकि गद्य में अभी उपन्यास लिखे जाते है। , कहानियाँभी लिखी जाती है लेकिन अब कहानियाँ115 पेज की नहीं लिखी जाती 4-5 पेज में सिमट रही है । तो क्या वे जीवन के विभिन्न आयामो को नहीं छू रही है उन आयामों की व्याख्या क्या उनमें नहीं है ?
लघुकथा जीवन की भूमिका हो सकती है ,व्याख्या क्यों नहीं ? क्योंकि जीवन विशाल है जिसे लघुकथा व्यक्त नहीं कर सकती । हां एक – अकेली लघुकथा नहीं कर सकती , सो तो कहानी भी नहीं कर सकी है और जीवन इतना विशाल है , कि एक वृहद् उपन्यास भी जीवन की व्याख्या नहीं कर सकता कोई भी विधा जीवन के कुछ आयामों को ही छू सकती है जीवन अति विशाल है उसके विविध आयाम है , जो निरन्तर गतिशील है , उसे एक पुस्तक तो क्या कई पुस्तकों में समेटना भी संम्भव नहीं है , तभी तो लेखक जीवन भर लिखता है सैकड़ों कहानियाँ, उपन्यास फिर भी वह जीवन की व्याख्या कर पाता है ? जीवन की व्याख्या करने के प्रयत्न है और सभी रचनाकार करते हैं । लघुकथा का सृजित साहित्य जीवन की खंड – खंड व्याख्या प्रस्तुत करने का सामर्थ्य रखता है ।
राजेन्द्र यादव ‘हॅंस’ के सम्पादक हैं और उनकी नजरों से सैंकड़ों लघुकथाएँ गुजरी है उसी सन्दर्भ में वे कह रहे हैं – ‘इधर लघुकथाओं की बाढ़ आई है , राजनैतिक विडम्बनाओं से भरपूर । हर मंचीय कवि इनका इस्तेमाल करता है । शायद यह कहना सही होगा कि लघुकथाओं के नाम पर 99 प्रतिशत ये चुटकुले ही होते हैं । नेताओं के भ्रष्टाचार , आडम्बर , ढोंग , हृदयहीनता ही अनिवार्यता ; इन चुटकुलों के कथ्य हैं । इससे लेखकों के सामाजिक सरोकार तो पता लगते हैं , मगर प्रायः दो विरोधी स्थितियों को रखकर ही यहां चमत्कार पैदा कर दिया जाता है – धार्मिक अनुष्ठानी नेता चकलाघर चलाते है। और न्याय और अपरिग्रह की बात करने वाले स्मग्लिंग करते है। कभी – कभी तो फूहड़पने की यह स्थिति है कि नामों को लेकर ‘लघुकथा’ गढ़ दी जाती है जैसे दयाराम नाम के साहब मूलतः कितने क्रूर है अक्सर हृदयहीनता भी इनके विषय होते हैं , भूखे मरते आदमी के लिए खाना नही हैं लेकिन कुत्तों और गायों को भोजन कराया जाता है । मैं नहीं कहता कि हमारा समाज इन भयावह स्थितियों से नहीं गुजर रहा , मगर अखबार की कतरनें लघुकथाएँ नहीं होती । इन लघुकथाओं का दूसरा प्रिय विषय है पशु – पक्षियों के माध्यम से राजनैतिक टिप्पणी । हालत यह है कि लघुकथाओं की दुनिया “राजनैतिक भेडि़यों , सियारों , शेर – भालूओं , बंदरों और कुत्तों से भरी पड़ी है । लगता है सारी लघुकथा मदारियों सरकस – मालिकों यह जू – व्यवस्थापकों के हाथों में चली गई है” । वस्तुतः लघुकथा आज गिने -चुने फार्मूलों का विस्तार होकर रह गई है । लघुकथाओं के वर्तमान परिदृश्य पर टिप्पणी को आगे बढ़ाते हुए राजेन्द्र यादव कहते है। हिन्दी में आज की लघुकथाओं में सामाजिक – राजनैतिक सरोकार और बैचेनी तो बहुत है मगर प्रायः समकालीन जीवन स्थितियों के अनुभूति स्पंदित क्षणों से बचने की प्रवृत्ति है हममें से अधिकांश रूपक ,प्रतीक दृष्टांत जैसी ‘तरकीबों’ का सहारा लेना ज्यादा पंसंद करते है। वे मानते है कि लघुकथा के लिए अलग एप्रोच की जरूरत है ।
इन्हीं चिंताओं को व्यक्त करते हुए बलराम अग्रवाल लिखते हैं – अधिकांश लघुकथा लेखकों द्धारा जीवनानुभव से रिक्त पैटर्न – लिंक्ड लेखन करना इसकी कमजोरी बन गई है । एक ही पैटर्न पर एक लघुकथाकार की ढेरों रचनाए। , फिर उसी पैटर्न को फोलो करती हुई अन्य लेखकों की रचनाएँ आपकों लघुकथा साहित्य में उपलब्ध हो जाएगी । इसे सृजनात्मकता का संकट कहें तो उचित होगा ।
राजेन्द्र यादव के इस कथन से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि लघुकथा को रूपक , प्रतीक , दृष्टांत जैसी ‘तरकीबो’ से बचना चाहिए । यें तरकीबें नहीं है ,बल्कि परम्परागत शिल्प है जिसमें पूर्ववर्ती लेखक आदर्श , नीति और उपदेश जैसी विषय वस्तु व्यक्त करते थे । आधुनिक लघुकथा यथार्थ की भूमि पर खड़ी है , यदि समकालीन यथार्थवादी कथ्य को व्यक्त करने में पारम्परिक शिल्प उपयोगी है , तो उनका निश्चित ही उपयोग करना चाहिए. समयानुसार उनमें परिवर्तन हो सकता है , और होना भी चाहिए । जीवन के व्यापक सत्य को संक्षिप्त में कह सकने की सामर्थ्य इन्हीं रूपक और प्रतीक कथाओं में होती है । इसी तरह शाश्वत एवं दार्शनिक विषय वस्तु भी रूपक , प्रतीक एवं या काव्यमय भाषा में अधिक अच्छी तरह व्यक्त होती है ।
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लघुकथा लेखनः आरोप, चेतावनियाँ व कमजोरियाँ
नरेन्द्र कोहली लघुकथा लेखकों को चेतावनी देते हुए कहते हैं, ‘लघुकथा अनिवार्य रूप से संक्षिप्त होगी। इसके स्थूल रूप में कौशलहीन ढंग से अपनी बात उगल देने का लोभ किसी भी लेखक को होगा। किंतु इस लोभ का संवरण करना होगा, अन्यथा शिल्पहीनता का नाम लघुकथा हो जाएगा’, यानी लघुकथा की जगह घटना-कथा केन्द्र में आ जाएगी। किसी घटना की अखबार में रिर्पोटिंग और उस पर आधारित लघुकथा में फर्क तो होना चाहिए। वे रचनाएँ जो पाठक में ललित साहित्य के सौन्दर्यबोध को न जगा सके निरर्थक है।
लघुकथा के रूप में वे कथानक ढलते हैं जिन्हें चाहकर भी विस्तार नहीं दिया जा सकता जो अपने आप में एक सम्पूर्ण ईकाई होते हंै। ऐसी स्थिति में संक्षिप्तीकरण का सहारा नहीं लिया जाता, बल्कि विस्तारित कथा को संक्षिप्त करना हो तो संक्षिप्तीकरण का सहारा लिया जाता है। सार-संक्षेप की शैली लघुकथा के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है। जब नरेन्द्र कोहली ‘संक्षिप्त’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसका अर्थ लघु या छोटी से ही है। लेखक, सावधानी बरते कि कहीं वह कहानी को तो लघुकथा नहीं बना रहा है, कहीं वह कौशलहीन ढंग से तो कथा नहीं कह रहा है। यह चेतावनी इसलिए जरूरी है कि लघुकथा लेखन अब भी इस प्रवृति से ग्रसित है।
कथा में सहजता एवं प्रवहमानता होनी चाहिए। सारे कथन व संवाद कथा से निःस्रत होने चाहिए। सूचनात्मक विवरण का समावेश होने पर कथा के सहज प्रवाह में बाधा पहुँचती है। लेखक का ऐसा प्रयास (सूचनात्मक विवरण) कथा में पैच वर्क सा लगता है, जो उसके सौन्दर्य को नष्ट कर देता है। सूचनाएँ कथा को उबाऊ, निर्जीव व सौन्दर्य हीन बना देती है। लघुता के लिए बिम्ब, प्रतीक, मुहावरे, छोटे व सार्थक वाक्यों का प्रयोग किया जाता है। दुर्घटना हो गई, कहने की बजाय दुर्घटना का संक्षिप्त किन्तु सटीक शब्द चित्र प्रस्तुत करना बेहतर होगा अगर दुर्घटना लघुकथा की अहम घटना हो तो। लेखक को सीधे वास्तविक जीवन के परिदृश्य पर शब्द चित्र प्रस्तुत करने चाहिए। जगदीश कश्यप ऐसी रचनाओं को पूरे लघुकथा साहित्य पर प्रश्न चिह्न मानते हैं। ‘ऐसी रचनाएँ- रिर्पोटिंग, डायरी, घटना कथा और रेखाचित्र बन जाती हैं।’
लघुकथा में असामान्य कथ्य एवं अतिरंजित घटनाएँ या कथानक यथासम्भव नहीं होने चाहिए। जैसे सैक्स से संबधित ऐसी घटनाएँ पढ़ने में आती है जिनमें नजदीकी वर्जित रिश्तों में सेक्स संबंध होते हैं, ऐसे कथानक सामान्य सामाजिक जीवन से परे हैं इसलिए त्याज्य है। साहित्य सामान्य अनुभव को सृजन क्षेत्र का विषय बनाता है असामान्य घटनाओं का समावेश लघुकथा को सत्यकथा के नजदीक ले जाएगा, जिनमें घटनाएँ महत्वपूर्ण हो जाएगी। अनुभवजन्य संवेदना या कथ्य पीछे छूट जाएगा, अतः ऐसी घटनाओं का उल्लेख हो तो संवेदना, विचार या सामाजिक मूल्य व्यक्त करने के लिए हो, न कि घटना के विवरण के लिए।
लघुकथा कथ्य प्रधान विधा है और लेखक का सारा आयोजन कथ्य को पाठक तक संप्रेषित करने के लिए है। सामान्य कथ्य को व्यक्त करने के लिए अतिरंजना का उपयोग हो सकता है, जैसा व्यंग्य करता है। लेकिन असामान्य घटनाओं के निष्कर्ष अक्सर खतरनाक होते हैं ‘मुआवजा’ लघुकथा में माँ-बाप अपने मरे बच्चे को बाढ़ में फेंककर मुआवजा माँगते हैं (चलो गनीमत है कि जिन्दा बच्चे को बाढ़ में फेंककर मुआवजा नहीं माँगा)। सहज मानवीय संवेदनाएँ क्या पूर्णतः समाप्त हो गई है? यह अतिरंजना हमें अनावश्यक ही भयभीत करती है, आशाओं पर तुषारापात करती है, कि अब जिंदा रहना अमानवीयता की शर्त पर ही सम्भव है।
नरेन्द्र कोहली ने एक बार चेतावनी देते हुए कहा था कि लघुकथा में चमत्कार के प्रति आग्रह बढ़ता जा रहा है और कहीं यह वीभत्सता को जन्म न दे दे। मुझे लगता है इस चेतावनी क¨ ठीक से जेहन में उतारने की जरूरत है। हंसराज रहबर ने भी ऐसी चमत्कारिक लघुकथाओं पर टिप्पणी की थी कि यह प्रवृति सड़क पर लालकोट पहन कर टहलने जैसी है, ध्यान आकृष्ट करने की सबसे सस्ती तरकीब है। मंटो का कथ्य तो खैर धारदार रहता था लेकिन आज लिखी जा रही लघुकथाएँ चैंकाने की प्रवृति के साथ हास्य उत्पन्न कर, चुटकुले जैसी मालूम होती है। ‘नवतारा’ पत्रिका ने जब यह विवाद चलाया तो उसकी पृष्ठभूमि में ऐसी ही लघुकथाएँ थी।
ज्ञानरंजन ने ऐसी ही लघुकथाओं को देखकर कहा था कि लघुकथाओं में झम्म से उतरता हुआ जादू मिलता है, या चमत्कार या मानवीय हाहाकार या आदर्श सूक्ति, जिसको वे हास्यास्पद मानते हैं। सत्य एवं रोमांचक कथाओं के सन्दर्भ में उपरोक्त बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। दो-तीन पंक्तियों की ऐसी लघुकथाएँ भी देखने में आई हैं जो सूक्तियों के नजदीक चली जाती हैं।
मृणाल पाण्डे को लघुकथाएँ इंस्टेंट कहानियाँ (तात्कालिक कथाएँ) लगती हैं जो पूरे साहित्य पर भारी खतरा हैं। तात्कालिक लघुकथाएँ तुरत-फुरत रची जाने वाली, आज के परिदृश्य पर आधारित, अखबारों की रिर्पोटिंग या खबरें पढ़कर लिखने वाले तथाकथित कथाकार, उन्हें प्रकाशित करने वाले सम्पादक व पत्रिकाएँ लघुकथा के लिए खतरा है, क्योंकि वे लघुकथा के साहित्यिक गौरव को कम करती हैं। उन रचनाओं में अनुभव का ताप नहीं होता, लेखकीय कौशल नहीं होता, यर्थाथ का आभ्यांतीकरण भी नहीं होता।
लघुकथा साहित्य की इसी कमजोरी की ओर इंगित करते हुए डॉक्टर कमल किशोर गोयनका कहते हैं कि लघुकथा के नाम पर ‘सुने सुनाये चुटकुले, विनोद कथन, मुहावरे, पहेली आदि भी प्रकाशित हो रहे है। अधिकांश में अनुभूति का ताप नहीं, संवेदना की निजता, जीवंतता तथा गहराई नहीं है इनके अभाव में कोई भी रचना कलाकृति नहीं बन सकती।’
लघुकथा एक लघुविधा है लेकिन इसके लिए इतनी ही घनीभूत एकाग्र, जीवन्त तथा गहरी संवेदना की आवश्यकता है। बिखरी-उथली संवेदना एक श्रेष्ठ लघुकथा को जन्म नहीं दे सकती।
घटना या सत्यकथा लघुकथा नहीं है। सुने-सुनाये किस्से और संस्मरण भी लघुकथा नहीं है। वास्तव में जब घटना लेखकीय प्रतिभा, संवेदनशीलता, व चिंतन का भीतरी हिस्सा बनकर उतरती है तब उसमें ललित साहित्य का सौन्दर्य दिखलाई पड़ता है। यान्त्रिक ढंग से लिखी जाने वाली लघुकथा विसंगतियों के अन्तरविरोध को उघाड़ती तो है; लेकिन बिल्कुल यान्त्रिक तरीके से, जैसे भारत के गोदाम गेहूँ चावल से भरे हैं और लोग भूखे मर रहे हैं, या लोग भूखे मर रहे हैं और भारत अनाज निर्यात कर कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। कथनी-करनी के भेद जैसी सैकड़ों रचनाएँ लघुकथा साहित्य में मिल जाएगी, उन्हें भी लेखक की संवेदना और सृजन का ताप मिलना चाहिए।
‘अगर चिंतन युक्त लघुकथाएँ अधिक लिखी जाय तो यह विधागत हर्ष का विषय है, लेकिन सत्य ऐसा नहीं है, जैसे-तैसे लिखकर कथाकारों की श्रेणी में अपना नाम दर्ज करा लेना मात्र उद्देश्य है। रामनारायण उपाध्याय कथाकार को सचेत करते हुए कहते हैं, ‘आज तुम लघुकथा के लिए चिन्तन नहीं करोगे तो कल लघुकथा तुम्हारे लिए चिन्ता नहीं करेगी।’
डॉ. चन्द्रेश्वर कर्ण की चेतावनी भी जेहन में उतारने की जरूरत है ‘लघुकथा प्रचारधर्मियों, यश लिप्सुओं, ध्वजधर्मियों, पण्डों और मठवादियों से घिर गयी है इसे उनसे बचाना होगा, लघुकथा को लेकर अनेक छोटे-बड़े मठ स्थापित है, उनके अपने कर्मकाण्ड हैं, अपने पण्डे, संत महात्मा और चेले हैं, अपने-अपने आलोचक-समीक्षक भी हैं, जो उनके अनुरूप व्यवस्था देते है।’
आज स्थिति में परिवर्तन आया है, मठ ढह गये हैं या ढहने की कगार पर हैं, खूब दण्ड़ पेलने पर भी यशलिप्सा पूरी नहीं हुई। यश सृजन से प्राप्त होता है साहित्य में इसका कोई शॉर्टकट नहीं है।
श्रवण कुमार गोस्वामी ‘समीचीन’-1 में यही चेतावनी देते हैं, ‘मेरे जानते लघुकथा को सबसे अधिक खतरा लघुकथाकारों एवं उसके क्षेत्रीय ठेकेदारों से ही है, इसके प्रत्येक ठेकेदार के साथ लघुकथा लेखकों का एक बड़ा हजूम भी है। यह हजूम लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिख रहा है नयी कविता के जमाने में जैसी अराजकता देखी गई थी लगभग वैसी ही अराजकता आज लघुकथा के क्षेत्र में भी देखने को मिल रही है। श्रवण कुमार लघुकथा लेखकों को सचेत करते हुए आगे लिखते हैं ‘‘लघुकथा के अनेक क्षेत्रीय शिविर बन गए हैं और शिविर के सूत्रधारों ने अपने आप को लघुकथा का जनक घोषित कर दिया है। परिणाम यह है कि ये सभी जनक अब एक दूसरे से भिड़ने के लिए ताल ठोंक रहे हैं और अपने को चक्रवर्ती सिद्ध करवाने में लगे हैं। वक्त गुजरने के बाद चक्रवर्ती तो क्या एक सिपाही की हैसियत मिल जाए तो बहुत है। ऐसी प्रवृतियाँ साहित्य जगत में ज्यादा देर नहीं टिकती।
इस सन्दर्भ में डॉ. कमलकिशोर गोयनका का भी यही मत है, ‘लघुकथा में मठों की कमी नहीं है। ये मठ बड़े नहीं हैं, छोटे-छोटे हैं और इसीलिए चारों ओर बिखरे नजर आते हैं। लघुकथा प्रान्तों के आधार पर, वैचारिक गुटों के आधार पर, छोटे-छोटे मठों में बँट गई है…. बिहार, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, राजस्थान आदि प्रदेशों में लघुकथा के कई-कई गुट हैं, जिनके बीच कर्इं बार ऐसी प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हो जाती है जैसे उनके बीच शीत युद्ध हो गया हो।’ डॉ. गोयनका स्वयं ऐसे ही एक मठ के शिकार रहे हैं और उसका जवाब देने के लिए ‘लघुकथा का व्याकरण‘ पुस्तक के पचास पेज व्यर्थ कर दिए। शायद उन्होंने आवश्यक समझा हो, कि ऐसी प्रवृति से लोहा लेना जरूरी है।
श्याम बिहारी ‘श्यामल’ की चिंता -लघुकथा के सीने पर जमा होता कूड़े का यह पहाड़ कौन ढहाएगा? लघुकथा क्षेत्र के स्वघोषित मसीहाओं की भौं-भौं के आतंक से कैसे निपटा जाएगा? जो लघुकथा क्षेत्र में समीक्षकों को घुसने नहीं देते। …… जैसे लघुकथा इनकी जागीर है ….. आज इस अराजक व्यूह को भेदना ही इस क्षेत्र की बड़ी चुनौती है।’
विद्यानिवास मिश्र को लघुकथा की गम्भीरता पर संदेह है, कईयों का मानना है कि लघुकथा लेखन अगम्भीर है इसमें मेहनत नहीं करनी पड़ती। आधे घंटे की सीटिंग में सरलता से लिख ली जाती है और लेखक होने का भ्रम भी पल जाता है। लघुकथा, साहित्यकार बनने का शॅार्टकट है, वे इसे आसान काम समझते हैं और कुछ लिखकर लेखक बनने का दिव्य स्वप्न पाल लेते हैं। इसी तरह के सरल लेखन ने लघुकथा साहित्य में कूड़े की समस्या पैदा कर दी है। राजेन्द्र यादव कहते हैं कि ‘लघुकथा में अति हो रही है,’ यही नहीं गोविन्द मिश्र तो उसकी पाठकीय भूमिका व गंभीरता पर संदेह व्यक्त करते हैं। इसकी भूमिका को शॅार्टकट देना मात्र मानते हैं। डॉ कमलकिशोर गोयनका का मानना है कि ‘साहित्य में शॅार्टकट नहीं चलता है, जो चलाते हैं, वे शॅार्ट होकर रह भी गये हैं।’
‘कथात्मकता की प्रवृति फैलने की है, संक्षिप्तीकरण उसे विकृत पंगु एवं नीरस बना देती है।’ सूर्यनारायण रणसुभे यह कह कर लघुकथा पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं। अगर इनकी बात मान ली जाय या इस बात में दमखम हो तो लघुकथा को स्क्रेप करने में ही कथा साहित्य की भलाई है, क्योंकि ऐसी विकृत एवं नीरस रचनाओं को साहित्य में स्थान देने का कोई मतलब नहीं है। अगर कथा की प्रकृति फैलने की है तो फिर वृहद उपन्यास से उपन्यास, लघु-उपन्यास, लम्बी कहानी तक ही क्यों, कहानी और लघुकहानी तक क्यों आ गया साहित्य? क्यों आज कहानी साहित्य की केन्दीय विधा के रूप में स्थापित है? फिर लघुकथा किसी लम्बी कहानी का संक्षिप्तीकरण नहीं है। कोई जीवन प्रसंग अगर कम शब्दों में व्यक्त हो सकता है तो उसे विस्तार देना व्यर्थ होगा। कथानक का छोटा या बड़ा होना तय करता है कि रचना लघु होगी या दीर्घ। यह जानबूझ कर किया गया चुनाव नहीं है।
डॉ रणसुभे के मत में, ‘आरम्भ के दिनों में इस विधा ने जिस मुद्रा को धारण कर लिया था, आज वहाँ जोकर का चेहरा दिख रहा है …. लघुकथा के नाम पर आजकल जो भी छप रहा है उनमें से अधिकतर को चुटकुले के अन्तर्गत ही रखा जा सकता है, अगर चुटकुला नहीं है तो किसी बीती घटना का नीरस शब्दांकन…… घटित घटना की शाब्दिक अभिव्यक्ति ही लघुकथा है।… नीरस निवेदन या हुबहू वर्णन के आगे इसकी शैली बढ़ नहीं पायी है। अलबत्ता कुछ कथाकारों ने प्रतीक, मिथक और रूपक का प्रयोग कर अप्रतिम लघुकथाएँ प्रस्तुत की हैं।’ कथाकारों को सजग होना होगा, शैली को परिष्कृत करना होगा और लघुकथा के चेहरे पर जो जोकर का चेहरा लगा है उसे उतारना होगा तभी साहित्य जगत में इसे गम्भीरता से लिया जाएगा। लेकिन डॉ. रणसुभे अतिवादी कथन पर उतर आते है। प्रबुद्ध पाठक उस विधा को गंभीरता से ग्रहण नहीं करता। उन्हें लघुकथा के जन्म ने कथात्मक साहित्य की गम्भीरता, संवेदनशीलता और कलात्मकता की हत्या कर दी है।’ डॉ रणसुभे ने घटिया लघुकथाओं तक ही यह मंतव्य सीमित किया होता तो बेहतर होता क्योंकि लघुकथा के बारे में कोई टिप्पणी श्रेष्ठ लघुकथाओं के आइने में भी होनी चाहिए। एक तरफा बयान अन्य तरह की प्रतिक्रिया पैदा करते हैं जो उचित नहीं कही जा सकती।
अमर गोस्वामी की लघुकथा के बारे में राय है, ‘लघुकथा जीवन की भूमिका हो सकती है, व्याख्या नहीं और बिना व्याख्या दिये रचनाकार श्रेष्ठ कृति नहीं दे सकता। जीवन और विचार में निरन्तर जूझने की क्रिया तभी सम्भव हो सकती है, जब व्यक्ति का आकाश विस्तृत हो, वह उसमें ऊँची तथा लम्बी उड़ान भरने में समर्थ हो अपने रचना के आकाश को सीमाबद्ध कर देने से या डैनों को फैलाकर उड़ने के डर से वह ज्ञान विज्ञान की नूतन संभावनाओं से खुद को वंचित कर सकता है। किसी रचनाकार के लिए यह घातक स्थिति हो सकती है।’ गद्य और पद्य की विधाएँ सिमट रही है महाकाव्य से कविता अब एक पेज तक आ गई है यही हालत गद्य की भी है। हालांकि गद्य में अभी उपन्यास लिखे जाते है। कहानियाँ भी लिखी जाती है लेकिन अब कहानियाँ 115 पेज की नहीं लिखी जाती 4-5 पेज में सिमट रही है। तो क्या वे जीवन के विभिन्न आयामों को नहीं छू रही है? क्या उन आयामों की व्याख्या उनमें नहीं है?
लघुकथा जीवन की भूमिका हो सकती है, व्याख्या क्यों नहीं? क्योंकि जीवन विशाल है, जिसे लघुकथा व्यक्त नहीं कर सकती। हाँ, एक अकेली लघुकथा नहीं कर सकती, सो तो कहानी भी नहीं कर सकी है और जीवन इतना विशाल है, कि एक वृहद् उपन्यास भी जीवन की व्याख्या नहीं कर सकता। कोई भी विधा जीवन के कुछ आयामों को ही छू सकती है। जीवन अति विशाल है उसके विविध आयाम है, जो निरन्तर गतिशील है, उसे एक पुस्तक तो क्या कईं पुस्तकों में समेटना भी सम्भव नहीं है। तभी तो लेखक जीवन भर लिखता है। सैकड़ों कहानियाँ, उपन्यास फिर भी वह जीवन की व्याख्या कर पाता है? जीवन की व्याख्या करने के प्रयत्न है और सभी रचनाकार करते हैं। लघुकथा का सृजित साहित्य जीवन की खण्ड-खण्ड व्याख्या प्रस्तुत करने का सामथ्र्य रखता है।
राजेन्द्र यादव ‘हंस’ के सम्पादक हैं और उनकी नजरों से सैंकड़ों लघुकथाएँ गुजरी हैं। उसी सन्दर्भ में वे कह रहे हैं- ‘इधर लघुकथाओं की बाढ़ आई है, राजनैतिक विडम्बनाओं से भरपूर। हर मंचीय कवि इनका इस्तेमाल करता है। शायद यह कहना सही होगा कि लघुकथाओं के नाम पर 99 प्रतिशत चुटकुले ही होते हैं। नेताओं के भ्रष्टाचार, आडम्बर, ढोंग, हृदयहीनता ही अनिवार्यतः इन चुटकुलों के कथ्य हैं। इससे लेखकों के सामाजिक सरोकार तो पता लगते हैं, मगर प्रायः दो विरोधी स्थितियों को रखकर ही यहाँ चमत्कार पैदा कर दिया जाता है – धार्मिक अनुष्ठानी नेता चकलाघर चलाते हैं और न्याय और अपरिग्रह की बात करने वाले स्मग्लिंग करते हैं। कभी-कभी तो फूहड़पने की यह स्थिति है कि नामों को लेकर ‘लघुकथा’ गढ़ दी जाती है जैसे दयाराम नाम के साहब मूलतः कितने क्रूर है। अक्सर हृदयहीनता ही इनके विषय होते हैं, भूखे मरते आदमी के लिए खाना नहीं हैं लेकिन कुत्तों और गायों को भोजन कराया जाता है। मैं नहीं कहता कि हमारा समाज इन भयावह स्थितियों से नहीं गुजर रहा, मगर अखबार की कतरनें लघुकथाएँ नहीं होती। इन लघुकथाओं का दूसरा प्रिय विषय है पशु-पक्षियों के माध्यम से राजनैतिक टिप्पणी। हालत यह है कि लघुकथाओं की दुनिया राजनैतिक भेड़ियों, सियारों, शेर-भालूओं, बंदरों और कुत्तों से भरी पड़ी है। लगता है, सारी लघुकथा मदारियों, सरकस-मालिकों और जू-व्यवस्थापकों के हाथों में चली गई है।’ वस्तुतः लघुकथा आज गिने-चुने फार्मूलों का विस्तार होकर रह गई है। लघुकथाओं के वर्तमान परिदृश्य पर टिप्पणी को आगे बढ़ाते हुए राजेन्द्र यादव कहते है- हिन्दी में आज की लघुकथाओं में सामाजिक-राजनैतिक सरोकार और बैचेनी तो बहुत है मगर प्रायः समकालीन जीवन स्थितियों के अनुभूति स्पंदित क्षणों से बचने की प्रवृत्ति है। हममें से अधिकांश रूपक, प्रतीक, दृष्टांत जैसी ‘तरकीबों’ का सहारा लेना ज्यादा पसन्द करते हैं। वे मानते हैं कि लघुकथा के लिए अलग एप्रोच की जरूरत है।
इन्हीं चिंताओं को व्यक्त करते हुए बलराम अग्रवाल लिखते हैं – अधिकांश लघुकथा लेखकों द्वारा जीवनानुभव से रिक्त पैटर्न-लिंक्ड लेखन करना इसकी कमजोरी बन गई है। एक ही पैटर्न पर एक लघुकथाकार की ढेरों रचनाएँ। फिर उसी पैटर्न को फोलो करती हुई अन्य लेखकों की रचनाएँ आपको लघुकथा साहित्य में उपलब्ध हो जाएगी। इसे सृजनात्मकता का संकट कहें तो उचित होगा।
राजेन्द्र यादव के इस कथन से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि लघुकथा को रूपक, प्रतीक, दृष्टांत जैसी ‘तरकीबो’ से बचना चाहिए। ये तरकीबें नहीं हंै, बल्कि परम्परागत शिल्प है जिसमें पूर्ववर्ती लेखक आदर्श, नीति और उपदेश जैसी विषय वस्तु व्यक्त करते थे। आधुनिक लघुकथा यथार्थ की भूमि पर खड़ी है, यदि समकालीन यथार्थवादी कथ्य को व्यक्त करने में पारम्परिक शिल्प उपयोगी है, तो उनका निश्चित ही उपयोग करना चाहिए। समयानुसार उनमें परिवर्तन हो सकता है, और होना भी चाहिए। जीवन के व्यापक सत्य को संक्षिप्त में कह सकने की सामथ्र्य इन्हीं रूपक और प्रतीक कथाओं में होती है। इसी तरह शाश्वत एवं दार्शनिक विषय वस्तु भी रूपक, प्रतीक या काव्यमय भाषा में अधिक अच्छी तरह व्यक्त होती है।
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