सृष्टि में स्त्री-पुरुष दोनों का अपना-अपना महत्त्व है । यानी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इन्हें हम बराबर भी नहीं कह सकते, किन्तु यह सत्य है कि दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं। दोनों का अपना-अपना महत्त्व है। किन्तु समय एवं समाज की बदलती हुई स्थिति में दोनों की भूमिकाओं एवं महत्त्व में प्रायः उतार-चढ़ाव आता रहा है।
यदि हम अतीत के झरोखे में झाँकें जब समाज ने अपना स्वरूप ग्रहण नहीं किया था तब मनुष्य भी जानवरों की तरह ही रहता था । स्त्री-पुरुष दोनों अपने-अपने स्तर पर प्रत्येक दृष्टिकोण से स्वतंत्र थे। इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि नवजात शिशुओं की स्थिति खराब होने लगी और इनके विकास का स्वरूप भी काफी सीमा तक अनिश्चित-सा हो गया था ।
सृष्टि ने विकास के साथ-साथ मनुष्य में भी क्रमशः स्वाभाविक विकास होने लगा। मनुष्य ने अपने कष्टों एवं विकास में हो रहे अवरोधाों को ध्यान में रखकर अपने विकास हेतु सोचना एवं उसे कार्यरूप देना शुरू किया, इसी प्रक्रिया में क्रमशः समाज ने अपना रूप ग्रहण करना आरंभ किया ।
प्रारंभ में दोनों यानी स्त्री-पुरुष स्वतंत्र थे, बाद में विवाह प(ति में इस स्वतंत्रता को एक अनुशासन का रूप प्रदान किया, जिसमें पुरुष का कार्य मुख्यतः दिन भर श्रम करके अर्जन करना था तथा स्त्री का काम घर-परिवार के कामकाज को संभालना था । किन्तु आवश्कतानुसार स्त्री अपने घर-परिवार के कामकाज से समय निकालकर पुरुष को उसके कार्यों में भी पूर्ण सहयोग देती थी ।
प्रकृति ने शारीरिक रूप से पुरुष को बलिष्ठ एवं स्त्री को अपेक्षाकृत कोमल एवं अधिक संवेदनशील बनाया, यही कारण है वह माँ, बहिन, बेटी, पत्नी इत्यादि का भूमिका अति कुशलता से निर्वाह करती आयी है और आज भी ऐसा चल रहा है।
पुरुष के बलिष्ठ होने के बावजूद स्त्री को उसकी शक्ति माना गया; क्योंकि स्त्री घर-बाहर दोनों स्तरों पर न मात्र उसकी सहायक थी, अपितु वह पुरुष से अधिक श्रम कर रही थी, जिस कारण उसे पुरुष की शक्ति माना गया और क्रमशः उसने देवी का रूप ग्रहण कर लिया क्योंकि वह जननी थी । बच्चे को जन्म देते समय जो पीड़ा स्त्री झेलती है और फिर उसके पश्चात् उसकी किशोरावस्था तक जिस वात्सल्य भाव से उसके चरित्र एवं संस्कार का निर्माण करती है, वह उसे देवी के स्थान तक सहज ही पहुँचा देता है।
उसके बाद देश पर हुए विदेशी आक्रमणों एवं उनके शासनों ने भी देश समाज के साथ-साथ स्त्री-पुरुष के मानस को भी काफी हद तक परिवर्तन करने में अपनी भूमिका का निर्वाह किया और विदेशियों की गुलामी करते-करते पुरुष ने अपने अधीन रहने वाली पत्नी एवं बच्चों को गुलाम बनाना शुरू किया यानी उनके साथ गुलामों जैसा सलूक करना शुरू किया ।
साहित्य-लेखन का जबसे उद्भव हुआ उस पर भी अपने समय का प्रभाव पूरी तरह पड़ा और अपने समय का सच क्रमशः प्रत्यक्ष होने लगा। उसी में स्त्री की स्थिति का भी चित्रण होता चला गया । स्वतंत्रता के पूर्व एवं बाद में भी क्रमशः स्त्री की काफी हद तक बिगड़ चुकी स्थिति में सुधार होने लगा । इसमें समाज सुधाारकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। इसी कारण स्त्री को काफी हद तक गुलामी से भी क्रमशः मुक्ति मिलने लगी तथा सती-प्रथा जैसे रूढ़ियों एवं कुरीतियों से भी मुक्ति मिलने लगी ।
स्वतंत्रता से पूर्व से गाँधी जी जैसे नेताओं ने स्त्री की स्वतंत्रता एवं पर्दा-प्रथा एवं उसे सुशिक्षित करने पर बल दिया जाने लगा और स्वतंत्रता के पश्चात् तो स्त्री क्रमशः इन स्थितियों से उबरने लगी आज नारी एकाधा सम्प्रदाय विशेष को छोड़कर पर्दा-प्रथा से पूर्णतः मुक्त है तथा वह अकेले ही कहीं भी जाने-आने को स्वतंत्र है। उसे भी आज वे सारी अधिकार प्राप्त हैं,जो पुरुष को प्राप्त हैं। अब पुरुषों के सोच में भी बदलाव आया है और अपेक्षाकृत स्त्री भी दृढ़ एवं सशक्त हुई है। आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र यथा राजनीति, शिक्षा, कला, सेना, पुलिस, रेलवे एवं अन्य तमाम क्षेत्रों में जहाँ-जहाँ पुरुष का आधिपत्य था, वहाँ आज स्त्री भी अपनी भूमिका पूरी कुशलता से निर्वाह करते हुए अपने महत्त्व को पूरी तरह सिद्ध कर रही है।
इन्हीं सारी स्थितियों को प्रत्यक्ष करती कुछेक श्रेष्ठ हिन्दी लघुकथाओं से उदाहरण स्वरूप रख कर अपनी उपर्युक्त बातों को पुष्ट करने का सत्प्रयास कर रहा हूँ ।
सर्वप्रथम मैं कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘प्लान’ की चर्चा करना चाहूँगा। यह रचना नारी के एक नये पहलू पर फोकस करती है कि नारी की सार्थकता वस्तुतः माँ बनने में ही है, किन्तु आज के भौतिकवादी युग में जहाँ मात्र पैसा ही सब-कुछ हो गया है, ऐसे में प्रायः पति अपनी अति उच्च महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु पत्नी की इच्छाओं पर तुषारापात करने से भी नहीं चुकते किन्तु प्लान की नायिका श्रेया बहुत ही दृढ़ता से अपने साथी के सामने गर्भनिरोधक गोलियाँ निकालकर डस्टबिन में फेंकते हुए बोलती है-‘अब बच्चे के सिवाय कोई ‘प्लान’ नहीं । तात्पर्य यह कि आज की नारी पति की दासी नहीं, उसकी सहयोगिनी है। इसी क्रम में डॉ. सतीशराज पुष्करणा की यों तो कई लघुकथाएँ ऐसी हैं जिन्हें यहाँ उद्धृत किया जा सकता है, किन्तु ‘पिघलती बर्फ’ लघुकथा में नारी एक नये रूप में प्रत्यक्ष होती है। इस कथा की नायिका क्रमशः सहज ढंग से अपने भीतर शक्ति का संचयन करते हुए दहेज-प्रथा की बहुत ही करीने से धज्जियाँ उड़ाती है और अपनी दृढ़ता को पूरे समाज के सामने रखती है।
साहित्य की कोई भी विधा को उस पर अपने समय का प्रभाव पड़ता ही है। आज के समय में जहाँ नारी को स्वतंत्रता के अधिकार प्राप्त हैं वहीं वह कहीं-कहीं अपने मातृत्वभाव से भी दूर होती दीख रही है। इस संदर्भ में विभा रश्मि की लघुकथा ‘चाबी खिलौना’ में देखा जा सकता है कि किस प्रकार पति-पत्नी अपने गृह-प्रवेश में अतिथियों के मध्य अपनी बेटी तक को भूल जाते हैं। जब उन्हें अपने अतिथियों से फुर्सत मिलती है, तब उन्हें अपनी बेटी का ध्यान आता है जो पलंग के नीचे बैठी भूख के कारण रोते हुए मिलती है और कहती है –‘अब तो कुछ दो भूक लगली और हिचकियाँ लेकर रो पड़ती है।’।वस्तुतः आज का व्यक्ति भौतिकता का क्रमशः ग्रास बनता जा रहा है। कहीं इसके ठीक विपरीत वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज, जो प्रायः पारिवारिक परंपराओं के रक्षार्थ ही लिखते आ रहे हैं। लघुकथा में भी उनका ढंग वही है और इनकी ‘प्यार’ लघुकथा की नायिका आज भी नहीं बदली। वह आज भी पत्नी के रूप में अपनी परंपरा का निर्वाह करती है। पति से नाराज होने के बाद भी पति को देवता-सा महत्त्व देती है। पुष्पा जमुआर की लघुकथा नारी के यौन मनोविज्ञान को बहुत ही सुशिल्पित ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसकी नायिका रम्भा अपने पुत्र के उम्र के लड़के से प्रेम करती है ,जबकि कथा-नायक आलोक उसे आंटी ही समझता है। इसकी प्रस्तुति इसे एक श्रेष्ठ रचना बना देती है वहीं यह लघुकथा नारी के एक सहज यौन मनोविज्ञान की प्रस्तुत करती है।
आज फेसबुक का क्रेज किस कदर बढ़ गया है कि लोगों को अपने बच्चे भी उसके सामने तुच्छ लगने लगे हैं। इस भाव को प्रत्यक्ष करती अनिता ललित की लघुकथा ‘खास आप सबके लिए’ को देखा जा सकता है। एक गृहिणी गुजिया बनाती है, किन्तु जैसे ही उसका बच्चा उन्हें खाने हेतु लेना चाहता है कि माँ का थप्पड़ उसके गाल से चिपक जाता है। सास भी जब गुजियों को भगवान का भोग लगाने हेतु माँगती है ,तो उस गृहिणी को बुरा लगता है, किन्तु वह ‘गुजिया की प्लेट’ का फोटो जब फेसबुक पर लगा देती है और उस पर आये ‘लाइक्स’ एवं ‘कमेंट’ से उसे जो खुशी मिलती है वह खुशी उसे अपने बच्चे या भगवान को भोग लगाने में नहीं मिलती । वर्तमान की बदलती सोच पर व्यंग्य करती तथा आज की नारी के एक भिन्न रूप को प्रस्तुत कर पाने में यह लघुकथा पूर्ण रूप से सफल हुई हैं।
मीना पाण्डेय की लघुकथा ‘अगले महीने’ भारतीय पत्नी के वास्तविक रूप को पेश करती है कि पति स्वस्थ है तो उसका जीवन भी सुरक्षित है। अतः वह चाहती है कि पति जैसे भी हो स्वस्थ रहे, जबकि पति कंजूस स्वभाव के कारण खर्च करना नहीं चाहता । हालाँकि वर्तमान में इस सोच की नारी संख्या अपेक्षाकृत बहुत में कम हैं; किन्तु फिर भी पूर्णतः उनमें यह पारंपरिक संस्कार समाप्त नहीं हुआ है। पत्नी दबाव बनाते हुए कहती है कि तो कल हम चल हैं न डॉक्टर के पास ?’
‘नहीं सावित्री, इस महीने तो नहीं हो पाएगा । अगले महीने जरूर चलेंगे। तुम भी न थोड़ा खाँस क्या दिया परेशान हो गयी । चेहरे पर मुस्कान की चादर ओढ़ ली उसने।’ ।भारतीय नारी की पारंपरिक तस्वीर बहुत ही सटीक ढंग से इस लघुकथा में प्रस्तुत हो पाई है ।
इस क्रम में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘पिघलती हुई बर्फ’ भी काफी महत्त्वपूर्ण है। पति-पत्नी के आत्मीय एवं घनिष्ठ संबंधों को अपने अनोखे ढंग से प्रस्तुत करती है। दोनों श्रेष्ठ पति-पत्नी आपस में कितना भी लड़-झगड़ लें अथवा नोक-झोंक कर लें फिर भी उनके हृदय भीतर से एक एवं एक-दूसरे के प्रति प्रेम से भरे होते हैं। इसके ये संवाद इस रचना को ऊँचाई प्रदान करते हैं – फ्ठीक है! मैं जा रही हूँ।य् वह भरे गले से बोली और पल्लू से आँखें पोंछने लगी ।
‘इतनी आसानी से जाने दूँगा तुम्हें ?’ पति ने आगे बढ़कर अटैची उसके हाथ से छीन ली-‘जाओ खाना बनाओ, जल्दी ! मुझे बहुत भूख लगी है।’
अपनी गीली आँखों से मुस्काई और रसोईघर में चली गई ।
मधुकांत की लघुकथा ‘बोध’ अपने उद्देश्य के कारण श्रेष्ठ रचना है, जिसे की नायिका माता-पिता के रोकने पर भी वह अपने साथ हुए बलात्कार हेतु पुलिस में रिपोर्ट तथा कानूनी कार्रवाई करने हेतु पूरी ताकत से निकल पड़ती है। वह अपनी स्थिति से यह बोध कराती है कि अन्याय सहकर चुप बैठना भी अपराध है, जो उसके माता-पिता भी कर रहे हैं।
‘साझा दर्द’ कमल कपूर की बहुत ही मार्मिक लघुकथा है जो यह बताती है माँ मात्र माँ होती है, वह चाहे किसी वर्ग या वर्ण की हो । इसके ये संवाद इस रचना एवं इसके उद्देश्य को बल देते हैं। मैं इतनी जालिम हूँ क्या ? अरे ! मैं भी एक माँ हूँ… दूसरी माँ के दर्द नहीं समझूँगी, क्या ? मैंने भी अपना बच्चा खोया था कभी…. बस फर्क इतना है कि वह अजन्मा था और तेरा संजू सात साल का । हम साझे दर्द की डोर में बँधे हैं पारो ।
अब नीरा रो रही थी और पारो उसके आँसू पोंछ रही थी। इस पल मन-भेद, मत-भेद और वर्ग-भेद से परे साझे दर्द की डोर में बँधी दो औरतें माँ थी वे दोनों ।
प्रद्युम्न भल्ला की एक लघुकथा जो कभी किसी पत्रिका में काफी पहले पढ़ी थी, स्मरण हो आ रही है। यहाँ नारी-नारी के विरोध में खड़ी होती है। जबकि पुरुष का भाव यह है कि बेटी अपनी हो या परायी बेटी तो बस बेटी होती है। पत्नी रिक्शा वाले की बेटी की शादी हेतु उधार पैसे माँगने पर इंकार कर देती है। वहीं पति उसे पाँच हजार दे देता है।
पत्नी कहती है ये तो मैंने अपनी बेटी हेतु रखे थे, वो आने वाली है। इस पर उसका पति जो उत्तर देता है वह इस लघुकथा के औचित्य को सहज ही सिद्ध करके ऊँचाई प्रदान कर जाता है – ‘मैंने भी तो ये पैसे बिटिया के लिए ही दिये हैं… बेटी चाहे गरीब की हो या अमीर की।’
नारी के भिन्न-भिन्न रूपों को लेकर प्राय लघुकथाकारों ने बहुत-सी रचनाएँ लिखी हैं, किन्तु मैंने मात्र उन्हीं का उल्लेख किया जो मेरी दृष्टि से गुज़रीं और जिन्होंने मुझे संवेदना के स्तर पर मेरे हृदय को स्पर्श कर गयीं। इसके अतिरिक्त जो उपलब्ध हो पायीं यों इस विषय पर पृथ्वीराज अरोड़ा, इंदिरा खुराना, डॉ. मिथिलेशकुमारी मिश्र, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’, डॉ. अनीता राकेश, सुकेश साहनी, डॉ. मुक्ता, कमला चमोला, अंजु दुआ जैमिनी, श्याम सखा ‘श्याम’, श्याम सुन्दर अग्रवाल, श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’, रूप देवगुण, मधुदीप, राजकुमार निजात, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’, कृष्णानंद ‘कृष्ण’, प्रदीप शर्मा स्नेही, ओमप्रकाश करुणेश, डॉ. स्वर्ण किरण, विक्रम सोनी, प्रताप सिंह सोढ़ी, सतीश राठी, अमृत लाल मदन, अंजना अनिल, डॉ. शकुन्तला किरण, कमलेश चौधरी, आनन्द, उषा लाल, घमण्डी लाल अग्रवाल, ज्ञानदेव मुकेश, डॉ.परमेश्वर गोयल, कान्ता राय, डॉ. नीरज शर्मा, नीलिमा शर्मा, विकेश निभावन, रामकुमार आत्रेय, पूरन मुद्गल, प्रेम सिंह बरनालवी इत्यादि एवं अन्य अनेक लघुकथाकार भी हो सकते हैं।
अन्त में मैं यह कहना चाहता हूँ । सृष्टि में जितने भी जीव हुए हैं, उनका सबका स्वभाव अलग-अलग है। इसी प्रकार इस लेख में मैंने नारी पात्रों के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया है। सभी नारियाँ मन-मिजाज से एक नहीं होती हैं, किन्तु माँ तो प्रायः सब होती हैं किन्तु समय के अनुसार माँ की भूमिका में पर्याप्त अंतर आया है। उसे यहाँ सटीक लघुकथाओं के उद्धरण देकर स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
इस लेख में समय के अनुसार भी आये बदलावों को रेखांकित करने का मेरा प्रयास रहा है। अपने उद्देश्य में मैं कहाँ तक सफल हो सका ये तो आप सुधी पाठक ही मुझे अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत कराने की कृपा करेंगे।
-0-डॉ. ध्रुव कुमार,पी. डी. लेन, महेन्द्रू,पटना-800 006 (बिहार)