अल्प शब्दों में स्थूल/ सूक्ष्म भाव को सम्प्रेषित करना लघुकथा की संपूर्णता है। यहाँ शब्दों का उत्तम एवं सटीक चयन भाषा की सरलता एवं संदेश की सूक्ष्मता में एक सुदृढ़ प्राथमिकता होती है। लघुकथा की विशेषता यह भी है कि कथा में प्रवाह तो हो, परंतु अतिशयोक्ति न हो एवं प्रवाह का विशेष ध्यान रखते हुए कथा के भाव एवं उपसंहार को सशक्त रखा जाए।
एक रिश्ता यह भी ( डॉ. उमेश महादोषी) लघुकथा में कथाकार ने अति उत्तम शिल्प अर्थात् कथोपकथन के माध्यम से प्रकृति तथा विशेष रूप से वृक्षलताओं के प्रति संवेदनशील होने का भाव एवं विचार का उल्लेख किया है। यहाँ एक और विचार भी उत्पन्न होता है कि अधिकतर परिवार में एक स्त्री का ही उत्तरदायित्व होता है अपनी संतान का समस्त ध्यान रखना और पिता को इस स्थिति का ज्ञान भी नहीं होता कि संतान उपयुक्त मार्ग पर चल रही है कि नहीं। जबकि एक समान दायित्व स्त्री पुरुष दोनों का होता है। ऐसे परिवार में यदि पिता जागरूक हो जाए, तो संसार अति उत्कृष्ट बन जाता है, संस्कारबद्ध भी हो जाता है। कोमल पौधों को केवल पानी, पवन एवं प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती… उन्हें स्नेह के स्पर्श की भी आवश्यकता होती है…। उनका खिलकर उभर आना जीवन को सरल एवं सहज बना देता है। कथाकार ने इस विचार को सुंदर भाव एवं तुलनात्मक शिल्प से सजाया है एवं पाठकों के निमित्त सार्थक संदेश भी दिया है। पर्यावरण के प्रति जागरूकता के लिए इस तरह की कथाएँ अपरिहार्य हैं।
– गुरु (डॉ. उपमा शर्मा) लघ्हुकथा में कथाशिल्पी डॉ. उपमा जी की लेखन- शैली मुझे अत्यंत पसंद आई। सबसे अधिक इस कथा के समापन ने मेरे हृदय की संवेदनशीलता को गहन स्पर्श दिया है । प्रशस्त आकाश को अपनी मुट्ठी में समाहित करने की दृढ़ इच्छा रखना सटीक है; किंतु इसके लिए वर्तमान की युवा पीढ़ी के लिए आवश्यक है प्रतिज्ञाबद्धता एवं सहनशीलता। इस लघुकथा की चरित्र रितु की महत्त्वाकांक्षा को युवावस्था की वय को ध्यान में रखते हुए जिस प्रकार उल्लेख किया गया, वास्तवमें प्रशंसनीय है। माँ एवं शिक्षिका के चरित्र में कथाशिल्पी का विचार अत्यंत उत्कृष्ट एवं यथार्थ रहा है। रितु की जैसी दुर्बल मानसिकता हमारी युवा पीढ़ी में सर्वदा देखने को मिलती है एवं जब ऐसा मनोभाव उत्पन्न होता है, तो प्रतियोगिता के साथ साथ विद्वेष भाव भी बढ़ जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में कथाकार की यह उक्ति, “जिसने ज्यादा मेहनत की होगी, वही प्रथम आएगा रितु।” आदर्शवादिता को दर्शाती है।
अंत में कथाकार ने अत्यंत भव्य समापनाभिव्यक्ति दी है – “मैं गुरु द्रोणाचार्य नहीं, जो अर्जुन के लिए एकलव्य का अँगूठा काट लूँ।” एक आदर्श एवं निष्ठावान शिक्षक कभी अंतर नहीं करता; अपितु अंतर्दर्शी होता है। गुरु की योग्यता शिष्य के चरित्र पर प्रतिफलित होती है, उनके दिए हुए वातावरण तथा शिक्षा दोनों शिष्य की विचारधारा में भी परिलक्षित होते हैं। कथा में साक्षी एक मौन चरित्र है परंतु अत्यंत समर्पित विद्यार्थी है… यह अति सुंदर ढंग से प्रतिपादित किया है डॉ. उपमा शर्माजी ने यह कहकर -“ये वही कॉपी है, जो साक्षी ढूँढ रही थी। चेक करने के लिए मेरी घर लाई कॉपीज से तुमने यह कॉपी निकालकर यहाँ छुपा दी थी <जिससे साक्षी पढ़ न सके।”
विद्यार्थी एवं विद्यालय दोनों यदि परिपूरक हैं , तो शिक्षक एक आशीर्वाद भी है, जो सदैव विद्यालय एवं विद्यार्थी दोनों के शीर्ष पर रहता है। एक श्रेष्ठ गुरु द्रोणाचार्य का उदाहरण देते हुए एक अति श्रेष्ठ तिर्यक् संवाद के साथ इस कथा का उपसंहार वास्तव में ग्रहण योग्य है।
दोनों लघुकथाओं ने समाज को अति आदर्श, सार्थक संदेश दिया है। हमें जीवन की उपलब्धियों में ऐसे आदर्शों का भी स्वागत करना आवश्यक है। लघुकथा जो कुछ ही शब्दों में लिखी जाती है, किंतु एक चलचित्र -सी पूरी कहानी, पूरी परिभाषा समा जाती है। इस कलात्मकता एवं शिल्प की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए मैं दोनों प्रबुद्ध रचनाकारों आद.डॉ. उमेश जी एवं आद. डॉ. उपमा जी के प्रति अनंत बधाई एवं असीम शुभकामनाएँ ज्ञापित करती हूँ।
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सन्दर्भित लघुकथाएंः
1. एक रिश्ता यह भी (डॉ. उमेश महादोषी)
‘सुनो, छत पर जा रहे हो?’’ सुबह-सुबह मुझे जीने की तरफ जाते देख किचन में काम कर रही पत्नी ने टोका।
‘‘नहीं यार! मैं तो सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने की एक्सरसाइज करने जा रहा हूँ।’’
‘‘जीने पर चढ़ ही रहे हो, तो दरवाजा खोलकर दो मिनट पौधों को भी देखते आना।‘‘
‘‘पौधों का क्या देखना? पानी तो तुमने कल ही दिया था, इतनी सर्दी में रोज-रोज तो पानी दिया नहीं जाता।’’ मैं आधी से अधिक सीढ़ियाँ चढ़ चुका था।
‘‘कोई मेहनत का काम नहीं बता रही हूँ। पौधों को देखने-भर के लिए कहा है मैंने।’’
‘‘भई, जब गमलों में कुछ काम नहीं करवाना है, तो पौधों को देखने के लिए कहने का क्या मतलब?’’ छत में खुलने वाले दरवाजे के पास पहुँचते हुए मैंने सवाल किया।
‘‘तुम तो ऐसे सवाल कर रहे हो, जैसे मैंने सवा सौ किलो वजन उठाने को कह दिया हो!’’ अब तक पत्नी के स्वर में थोड़ा गुस्सा, थोड़ी नाराजगी का भाव आ चुका था।
‘‘बात सवा सौ या सवा किलो वजन की नहीं है। बात का लॉजिक भी तो होना चाहिए।’’ छत का दरवाजा खोलने के बाद नीचे की ओर लॉबी में झाँकते हुए मैंने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया।
‘‘हाँ, हाँ! मैं तो हमेशा बिना लॉजिक की बातें ही करती रहती हूँ! लोग तो हरे-भरे पौधों को, फूलों को देखने के लिए तरसते हैं और एक तुम हो…! मैंने मरे पौधों को जिला दिया, आज छत पर हरियाली ही हरियाली दिख रही है, सुन्दर-सुन्दर फूल खिल रहे हैं, तुम्हें उन्हें देखने के लिए भी लॉजिक चाहिए?’’ पत्नी भी अब तक सीढ़ियों के पास आकर मैदान सँभाल चुकी थी।
‘‘भाई साहब, भाभी जी ठीक कह रही हैं। सुबह-सुबह इन गमलों की हरियाली देखोगे, तो आपका मन तो प्रसन्न होगा ही, भाभी जी के साथ गमलों में लगे इन पौधों को भी अच्छा लगेगा।’’ ये हमारे पड़ोस वाली भाभी जी थीं, जो धुले कपड़े सूखने के लिए अपनी छत पर डालने आई थीं और हमारी बातें बड़े चाव से सुन रही थीं।
‘‘बाकी तो सब ठीक है भाभी जी, पर ये पौधों को अच्छा लगने वाली बात आपने खूब कही।’’ मेरा ध्यान अब भाभी जी की ओर था।
‘‘भाई साहब, आप इसे मजाक मत समझिए। जैसे हमारे बच्चे हमें अपने साथ इन्वॉल्व होते देख खुश होते हैं, वैसे ही पौधे भी खुश होते हैं। आप लोग जब एक माह के लिए यहाँ नहीं थे, तो मेरे द्वारा पानी देने के बावजूद इनमें से अधिकतर सूख-से गए थे। केवल पानी और निराई-गुड़ाई से कुछ नहीं होता, भाभीजी के हाथों का प्यार-भरा स्पर्श पाकर ये फिर से हरे-भरे हुए हैं। देखिए न, कैसे खिल रहे हैं! आप इनकी सुन्दरता को निहारेंगे, इनके बारे में कुछ कहेंगे तो ये भी खुश होंगे। भाभीजी इनके साथ बहुत मेहनत करती हैं, आप एकाध बार दो-चार मिनट के लिए इन्हें देख जाया करेंगे तो इन्हें भी लगेगा कि इनके सिर पर हाथ रखने वाला इनका भी कोई पिता है।’’
‘‘अरे छोड़िए भी भाभीजी, इनकी समझ में कहाँ आएँगी ये बातें!’’ छत पर आ चुकी पत्नी का चेहरा लॉजिकल समर्थन पाकर प्रसन्नता से दमक रहा था।
मैं कभी पौधों को तो कभी भाभी जी को देख रहा था।
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2. गुरु (डॉ. उपमा शर्मा)
हर साल प्रथम आने वाली रितु नई विद्यार्थी साक्षी के उसकी कक्षा में आ जाने से अब दूसरे नम्बर पर रह जाती थी। आज परीक्षा का परिणाम आने वाला था। रितु सुबह से ही बेसब्री से परिणाम की प्रतीक्षा कर रही थी।
“रितु! नाश्ता ठीक से क्यों नहीं कर रही हो? क्या बात है रिजल्ट एंक्जाइटी?” रितु की मम्मी ने रितु से कहा
“हाँ माँ! थोड़ी सी। लेकिन इस बार प्रथम मैं ही आऊँगी। आपकी वह प्रिय शिष्या साक्षी नहीं। देख लीजिए। ”
“जिसने ज्यादा मेहनत की होगी, वही प्रथम आएगा रितु। तुम मेरी बेटी हो, मैं चाहती हूँ मेरी बेटी भी साक्षी की तरह मेहनत करे और पहले के जैसे प्रथम आए। ”
“माँ! मेहनत मैं हर बार बहुत करती हूँ। न जाने साक्षी कैसे मुझसे ज्यादा नम्बर ले आती है; लेकिन इस बार मैं ही प्रथम आऊँगी। आप देख लेना। ” गर्व से बोली रितु।
“अच्छी बात है। तुमने मेहनत की है तो अवश्य आओगी। ”
“माँ! देखो परिणाम घोषित हो गया। मेरे 95+प्रतिशत हैं। ” रितु चहकते हुए बोली। अब साक्षी के नम्बर भी देख लेते हैं।” कहते हुए रितु ने साक्षी के नम्बर देखने लिए फिर से परिणाम पत्र खोला। साक्षी के नम्बर देखते ही पल भर में रितु का सारा उत्साह खतम हो गया। इस बार भी साक्षी ही प्रथम थी।
“कोई बात नहीं रितु। थोड़ी और मेहनत करना। अगली बार तुम अवश्य प्रथम आ जाओगी। “माँ ने बेटी का कंधा प्यार से थपथपाया।
रितु मायूस हो उठ गई। स्टोर में जाकर कुछ खोजने लगी।
“कहीं तुम ये तो नहीं खोज रहीं रितु? ” माँ के हाथ में साक्षी की कॉपी देख रितु हड़बड़ा गई।
“ये वही कॉपी है, जो साक्षी ढूँढ रही थी। चेक करने के लिए मेरी घर लाई कॉपीज से तुमने यह कॉपी निकालकर यहाँ छुपा दी थी जिससे साक्षी पढ़ न सके।”
” माँ! आप चाहती तो मैं प्रथम आ सकती थी।” रितु ने मायूसी से कहा।
“रितु बेटा! मैं गुरु द्रोणाचार्य नहीं ,जो अर्जुन के लिए एकलव्य का अँगूठा काट लूँ।”
-0-अनिमा दास,कटक, ओड़िशा