Quantcast
Channel: लघुकथा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

लघुकथाएँ

$
0
0

1-ऑपरेशन

धीरे– धीरे  वक्त MALA VERMAकरीब आता जा रहा है। ज़्यादा दिन महटियाना ठीक नहीं। एक आँख का ऑपरेशन तो हो ही चुका, दूसरी भी करवा लें तो अच्छा। पिछले पन्द्रह दिनों से मिसेज निगम उधेड़बुन में पड़ी हैं। किसी को साथ लेकर हॉस्पिटल जाना होगा। हाँ, अकेली भी जा सकती हैं पर लौटने के  समय कोई तो चाहिए। माना कि ऑपरेशन लेज़र सर्जरी से तुरन्त हो जाएगा फिर भी…. एक शख्स तो करीब हो। बेटा–बहू शहर में नहीं और होते भी, तो कोई उम्मीद न थी। दोनों को पता है कि माँ का ऑपरेशन तय है फिर भी न फोन पर पूछताछ की और न ही उन्हें याद होगा। सो वहाँ से कोई उम्मीद न रखें तो ही बेहतर हैं। हाँ, बेटी है करीब पर उसकी अपनी गृहस्थी है। छोटा बच्चा, ऊपर से नौकरी! जो स्वयं सुबह से शाम घर में नहीं टिकती, वो माँ की देखभाल क्या करेगी! खबर तो उसे भी है कि माँ को ऑपरेशन करवाना है। फोन पर बातें होती हैं पर एक बार भी सलाह–मशवरा नहीं किया।

मिसेज निगम दु:खी हैं, चिन्तित हैं ज़माने का हालचाल देखकर। अपनी संतान के होते हुए भी माँ बाप कितने निरुपाय हो गए हैं। और यहाँ तो किस्मत ने  धोखा दिया है। पति की अचानक मृत्यु से मिसेज निगम अकेली पड़ गई हैं। वो होते तो आज इतना सोचना पड़ता! खैर, मिसेज निगम साहस वाली हैं। अगर बच्चों को परवाह नहीं तो न सही, अपना हाथ जगन्नाथ। जैसे भी हो इस कार्य को पूरा करना ही होगा।

शाम को मिसेज निगम की कुछ सहेलियाँ घर में पधारीं। इन सबका संग साथ वर्षों से चला आ रहा है। और सच पूछिए तो ये एक ऐसा ग्रुप था जिसके साथ कुछ घंटे हँसी मज़ाक में गुज़ार मिसेज निगम  फ़्रेश हो जाती थीं। थोड़ी देर ताश–वाश, चाय पानी का दौर चला और अब उठने की बारी थी।तभी उनमें से एक महिला ने कहा, ;क्या बात है मिसेज निगम! आज तुम्हारा मूड थोड़ा डाउन लगा। ऐनी प्रॉब्लम?’

मिसेज निगम ने सकुचाते हुए अपनी समस्या बताई। इतना सुनना था कि मिसेज तालुकदार बोल उठीं, ‘हद हो गई यार! हमें तो एकदम से पराया समझ लिया। इतनी छोटी सी बात और तुम तनाव में पड़ी थी! हम किस दिन काम आएँगे? एक बार कहकर तो देखा होता। तुम्हें अपने किसी रिश्तेदार को बुलाने की ज़रूरत नहीं। जब तक हम हैं तुम्हें किसी बात की तकलीफ न होने देंगे। और ये आँख का ऑपरेशन! इसमें समय ही कितना लगता है। हम सब बाहर ताश खेलेंगे और इार तुम्हारा ऑपरेशन खत्म। बस्स…. तुम्हें थामा और घर पहुँचा गए….’

सहसा विश्वास नहीं हुआ। जिस बात को लेकर वे तनावग्रस्त थीं उसका समाधान चुटकियों में निकल आया था। अश्रुभरी नज़रों से उन्होंने अपनी फ़्रेंड्स को देखा व शिद्दत से महसूस किया– उनकी आँखों की रोशनी तो बजाय धुँधली होने के थोड़ी ज्यादा ही दीप्त हो गई थी….

-0-

2.गहना

माँ का गहना उनकी बेटियों को भी मिलना चाहिए। शादी के बाद उनका हक नईहर से खत्म तो नहीं हो जाता! माँ को गुज़रे वर्ष भर ही हुए थे कि बात उनके  गहनों तक पहुँच गई। अभी तक तो सब जगह शांति थी पर अब किसी न किसी को मुँह खोलना ही था– माँ के  गहने कितने थे! क्या–क्या था, अपने हिस्से क्या आएगा आदि–आदि कई तरह की अटकलबाजि़याँ चल रही थीं। बहनों में छोटकी कुसुम ही ज़्यादा परेशान थी। जहाँ चार–चार भौजाइयाँ पहले से मौजूद हों, वहाँ तो ननदों को गहने मिलने से रहे, पर पूछताछ तो करनी ही होगी। कुछ भी मिले। मिले तो सही– फिर उसकी कीमत आँकी जायेगी। अभी तो वैसे ही सोने के  भाव आसमान छू रहे हैं– फायदा तो होगा ही। घर–परिवार में शादी–ब्याह के  मौके  पर सोना–चाँदी खरीदना ही पड़ता है, इसी में नईहर से कुछ मिल जाए तो नुकसान क्या है?

अगली बार किसी भौजाई से बात होगी तो घुमा–फिराकर पूछना ही होगा– माँ के  जेवर कहाँ रखे हुए हैं? घर में हैं या लॉकर में? आप सबने क्या सोचा, आदि कई–कई प्रश्न दिमाग में घूम रहे थे। देखा जाए उधर से क्या जवाब मिलता है। इसी बीच में एक पड़ोसन ने टोक दिया– ‘माँ के  गहना–गुरिया में से कुछ हिस्सा मिला क्या?’ अब कुसुम को कुछ मिले या ना मिले, उससे पड़ोसिन को क्या लाभ!

एकाध महीने निकल गए, न कुसुम ने फोन पर कुछ पूछा न उधर से किसी भौजाई ने कुछ कहने की ज़रूरत समझी। कई–कई बातें होतीं पर उसमें ‘गहनों’ की चर्चा नहीं हुई। बाकी बहनों को कोई मतलब नहीं– वैसे इतना तो तय था कि बँटवारा होगा तो उन्हें उनका हिस्सा मिल ही जाएगा ;लेकिन इसके  लिए बिल्ली के  गले में घंटी कौन बाँधेगा….? तो छोटकी कुसुम थी ही…. और…. एक दिन कुसुम ने साहस किया। अब तो पूछना ही होगा, बेकार की माथापच्ची वो अकेले क्यों सहे! दोपहर का वक्त था– कुसुम इत्मीनान से फोन के  करीब पहुँची ही थी कि फोन खुद बज उठा। जाने किसका फोन। पर उधर से बड़की भौजाई थी, आश्चर्य! इस टेलीपैथी को क्या कहा जाए…

कुशल–मंगल के  बाद बात आगे बढ़ती, कुसुम दिल कड़ा करके  ‘कुछ’ पूछती तब तक उधर से बड़की भौजाई बोल उठी, ‘छोटकी बबुनी, एक ज़रूरी बात करनी थी। माँजी का गहना लॉकर में पड़ा था। आज निकाल कर घर लाए। जो भी गहना है उसका लिस्ट भी रखा है। आप सब जब भी यहाँ जुटेंगी– जो पसंद आए गहना ले लेंगी। संकोच ज़रा भी नहीं करना। आखिर उनके  गहने पर उनकी बेटियों का भी हक है। गहना घर में रखा है, चिंता भी हो रही है। किसी बहाने आप सब आ जातीं तो अच्छा था। बड़की बबुनी को पहले फोन मिलाया था ,पर वो घर में नहीं थी। आसानी से आपका नम्बर लग गया ,तो सोचे पहले आपसे से ही कह दें।’

इस अप्रत्याशित स्नेह वार से कुसुम हतप्रभ थी। उसके  दिल–दिमाग ने तो कुछ दूसरा ही ‘बातचीत’ का खाका खींच रखा था…. पर यह असमंजस थोड़ी देर ही बना रहा। उसके  बाद तो सब कुछ काँच की तरह साफ था।

‘अरे नहीं…. बड़की भाभी, माँ के  गहने हमें नहीं चाहिए। हमारे खुद के  गहने इतने हैं कि उसे ही पहनना नहीं होता। सबके  सब लॉकर में पड़े हैं। आप तो बस्स माँ के  गहने उनके  सभी पोता–पोती में बाँट दें। उनकी शादी के  वक्त दादी की तरपफ से आशीर्वाद भी हो जाएगा। गहने किसी के  पास रहें, उससे क्या फर्क पड़ता है। भाभी, आपने इतना ही पूछा, हमारे लिए वही बहुत है….’

‘नहीं–नहीं बबुनी, ऐसा कैसे होगा! कुछ निशानी सबको लेना ही होगा।आप सब आइए तो सही। मैं सबको खबर कर रही हूँ….’

‘नहीं भाभी! मैं तो न लूँगी। मेरी निशानी मैं आपको सौंप रही हूँ।ननद–भौजाई का ये प्रेम बना रहे और अब तो आप ही हमारी माँ समान हैं….प्लीज़ कुछ न कहें।’

कुसुम की आँखें डबडबा आईं। इधर बबुनी ने चुप्पी साधी तो भौजाई भी रो रही थी…. क्या कुसुम ने यही चाहा था! यह हृदय परिवर्तन हुआ कैसे?

-0-

3-सबसे  बेस्ट

बच्चों का स्कूल, लंच टाइम में एक संग बैठे बतकूचन कर रहे थे। उनमें एक बोल उठा– ‘मेरे पिता जी डॉक्टर हैं। उनकी प्रैक्टिस खूब चलती है। रात -दिन मरीजों में इस कदर बिजी रहते हैं कि न खाने की फुरसत न समय से घर आते हैं। यहाँ तक कि मुझसे भेंट भी नहीं होती। कभी रात को जल्दी आ जाते  हैं, और मैं जगा रहूँ तो बात होती है पर वो भी ज़्यादा नहीं। वो थके  होते हैं और मुझे जल्दी सोना होता है….’

दूसरे बच्चे ने कहा– ‘मेरे पिताजी बहुत बड़े ऑफिसर हैं। इतने बिज़ी कि कभी इस शहर तो कभी दूसरे शहर का चक्कर लगा रहता है। घर का सारा कुछ मम्मी को ही सँभालना पड़ता है। पिताजी से मेरी मुलाकात भी कम ही होती है। कभी–कभी तो महीने भर बाद लौटते हैं। हाँ, छुट्टियों में संग घूमने जाते हैं….’

इसी तरह तीसरे, चौथे, पाँचवें बच्चे ने भी अपने–अपने पिताश्री की बातें बताईं। सबके  पिता बड़े ऑफिसर, खूब रौबदाब व बहुत पैसेवाले थे। उन सभी बच्चों के  चेहरे पर खुशी व आँखों में अपने–अपने पिताओं के  पद प्रतिष्ठा, रुपये पैसों व चौबीस घंटे बिज़ी रहने का रुतबा गर्व की शक्ल में झलक रहा था।

उसी ग्रुप में एक बच्चा ऐसा भी था जो चुपचाप सबकी बातें सुन रहा था, फिर सकुचाते हुए कह उठा– ‘मेरे बाबूजी भी बहुत बिज़ी रहते हैं। उनकी अपनी परचून की दुकान है, जिसमें आटा चावल दाल से लेकर हर वो चीज़ मौजूद है ,जिसकी ज़रूरत हर घर में होती है। दूकान में इतनी वस्तुएँ भरी हैं कि चलने की जगह नहीं। सिर्फ़ बाबूजी व उनका नौकर ही वहाँ रह सकता है। अगर मेरे बाबूजी एक दिन भी दुकान बंद कर दें ,तो आसपास घरों में चूल्हा न जले। जब देखो तभी लम्बी कतार लगी रहती है। वहाँ पावरोटी व मैगी भी रहती है, अगर ये सब न बिक्री करें ,तो तुम सब सैंडविच व मैगी कैसे खाओगे! लंच में क्या लेकर आओगे! मेरे बाबूजी इतने बिज़ी होते हैं कि दिन का खाना सुबह ही लेकर चले जाते हैं। रात को जल्दी आकर मेरी पढ़ाई देखते हैं। हम एक संग खाना खाते हैं, टीवी देखते हैं। मेरे बाबूजी मुझे बहुत प्यार करते हैं। मैं रोज़ाना उनके  साथ ही सोता हूँ, उन्हीं के  साथ जागता हूँ। हम सुबह एक संग खाना खाते हैं ;फिर बाबूजी मुझे स्कूल छोड़ते हुए अपनी दूकान पर चले जाते हैं। मेरे बाबूजी सबसे बेस्ट हैं….’

जो बच्चा थोड़ी देर पहले तक निस्तेज व बुझा दिख रहा था, अब उसकी आँखें खुशी से चमक रही थीं।

–0–

4-फ़ेस बुक

माँ ने बेटा–बहू को टोका–पिछले वर्ष मैंने जो कपड़े तुम्हारे मैरिज डे पर दिये थे ,उन्हें आज तक तुम दोनों को पहनते नहीं देखा। क्या कपड़े पसंद नहीं आए? या किसी को दे दिए? या फिर कहीं रखकर भूल गए? भई, हमें भी शौक है कि जो चीज़ तुम्हें दी जाती हैं, उसे पहनो, उसका उपयोग करो। कपड़े लत्ते, गहना गुरिया कोई खाने–पीने की वस्तु तो है नहीं कि खाए और बात खत्म! कोई ड्रेस खरीदने के पहले कितनी माथा- पच्ची करनी पड़ती है और समय गंवाना पड़ता है तब जाकर वो पसंद आती है– और तुम लोग हो कि उसे पहनते नहीं, अच्छा लगा या नहीं, ये भी नहीं बताते! हमें तुम्हारी प्रतिक्रिया

जानने का इंतज़ार होता है। बहुत दिनों से सोच रही थी कि टोकूँ, पर कल डिसाइड किया एक बार पूछ ही लूँ, कोई पराए तो हो नहीं कि औपचारिकता देखी जाए।

माँ की बात सुनकर बेटा–बहू सकपकाए; लेकिन तुरंत कह उठे–‘नहीं

माँ, ऐसी बात नहीं। कपड़े पसंद आए थे और हमने खूब पहने भी। हाँ हो सकता है तुम्हारे सामने नहीं पहना, और ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम जो सामान दो वो हमें पसंद नहीं आये।’

पास खड़ी बहू ने भी सिर नीचा किये बेटे की हाँ में हाँ मिलाई। कुछ दिनों का प्रवास खत्म हुआ और बेटा–बहू अपने घर अपनी ड्यूटी पर चले गए। दो–तीन दिन बाद ही माँ ने फ़ेसबुक पर बेटा- बहू की ताज़ा तस्वीर देखी जिसमें उन्होंने वही कपड़े पहन रखे थे जिसके लिए माँ ने उन्हें टोका था। फोटो देख माँ ने ‘लाइक’ पर ‘क्लिक’ किया और मंद–मंद मुस्कुरा उठी।

कोई बात नहीं…. यही सही।

-0-


Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>