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‘तीसरी आँख’का महत्त्व दर्शाती लघुकथाएँ

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शिक्षा, पढ़ाई, विद्या एक ही भावार्थ से प्रयोग होते हैं। विद्या का महत्त्व क्या है, इस के बारे में हमारी संस्कृति सभ्यता में बहुत कुछ लिखा / कहा गया है। मानव समाज की स्थापना से लेकर गुरुकुल की परम्परा के चलते और आधुनिक वातावरण में गुरुओं, ऋषियों, विद्वानों, दार्शनिकों ने अपने-अपने मत प्रकट किए हैं। विद्या के क्षेत्र के अनेक रूप हैं, जिनकी लम्बी सूची तैयार की जा सकती है जैसे शिक्षा की जरूरत, सबके लिए शिक्षा, सब के लिए बराबर, एक समान शिक्षा जैसे अमीर गरीब, दलित व उच्चजाति, पुरुष व नारी, शहरी व ग्रामीण आदि।

शिक्षा को लेकर कई पड़ाव हैं जैसे प्राइमरी, सैकेण्डरी, उच्च शिक्षा, तकनीक अधारित व विशेषज्ञ व विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा। मानवीय अधिकारों के तहत शिक्षा का अधिकार, स्कूल बीच में ही छोड़ देना, स्कूल का वातावरण, अध्यापक-विद्यार्थी सम्बन्ध, अध्यापक की मानसिकता, स्कूल का सिलेबस, अध्यापक-अभिभावक रिश्ता, बाल मानसिकता व सिलेबस आदि अनेक पक्षों की पहचान हुई है और इस पर कार्य भी हो रहें हैं। वक्त के बदलाव व टेक्नालॉजी के विकास ने आन-लाइन शिक्षा के द्वार भी खोले हैं।

पर जब शिक्षा के पर-उपकार (परोपकारी) होने की बात आती है, तो स्पष्ट है कि शिक्षा दूसरों के कल्याण के लिए हो। इस उद्देश्य को उभारते समझते, नाज़ी हमलो से बचकर निकले एक व्यक्ति ने बताया कि नस्लकुशी में पढ़े-लिखे लोग और अच्छे-अच्छे पदों पर लगे लोग भी शामिल थे। उन के चेहरों पर किसी तरह की कोई शिकन नहीं थी। जब वे अपने ही जैसे लोगों, मनुष्यों को मौत के घाट उतार रहे थे। यह दृश्य या पेशकश के साथ सवाल खड़ा होता है कि विद्या ने क्या जिम्मेदारी निभाई? विद्या परोपकारी साबित क्यों नहीं हुई?

दयानन्द एंग्लों वैदिक (डी.ए.वी) संस्था के शैक्षिक अदारों के चिह्न में लिखा है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ जिसका अभिप्राय है, ‘अँधेरे से उजाले की ओर’। विद्या का यह भी एक उद्देश्य है। जानकारी और विवेक की रोशनी, मतलब अंधविश्वास के अँधेरे से बाहर आना।

इसी तरह भारत की सनातन परम्परा में शिव जी के माथे पर एक आँख अंकित की हुई है, जिसे ‘तीसरा नेत्र’ कहा जाता है।

विद्या को इस भाव से भी तीसरा नेत्र कहा जाता है कि दो आँखें, जो हमारे पास हैं, वे तो वही देखती हैं, जो हमारे सामने है, आसपास है, पर तीसरी आँख छुपे हुए सच को देखती-समझती है। यह विश्लेषण करने वाली आँख हैं। घटनाओं के पीछे स्थित कारणों का जानने वाली। मनुष्य को आविष्कार के रास्ते पर ले जाने वाली। यह बात भी सच है कि सही कारण जान कर ही हम समाधान की तरफ बढ़ सकते हैं।

विद्या के महत्त्व को समझने के लिए, आपसी वार्तालाप व चर्चा से आगे हमारे पास लेखन कला भी है, जो हमारे अक्षर ज्ञान के कारण है। इन अक्षरों के द्वारा व्यक्ति अपने भावों को दर्शा सकता है। वह चाहे कविता हो, कहानी, नाटक, निबन्ध या लघुकथा।

पर इस संग्रह में लघुकथा / मिन्नी कहानी के माध्यम से पेश किए गए विचार शामिल किए गए हैं। इस संग्रह में विदेशी, हिन्दी व पंजाबी के मिन्नी कहानी लेखकों की रचनाएँ शामिल हैं।

संग्रह में शामिल अस्सी से अधिक रचनाओं के लेखकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से विभिन्न पहलुओं को सामने रखा है। कह सकते हैं कि इस रचनाओं में इतने ही, लगभग अस्सी पक्ष पेश हुए हैं और फिर भी कई पक्ष अनछुए रह गए हैं।

पढ़ाई के महत्त्व से बात शुरू करें तो ‘चेतना’ व ‘दूरदृष्टि’ की बात हुई है, वहीं पढ़ाई के उद्देश्य का विश्लेषण न करके ‘बीमार सपना’ जैसी स्थिति बनती है। दृष्टिकोण अलग हो, विलक्षण हो तो ‘नई विरासत’ मिलती है। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ‘जाग्रति’ लाना है।

शिक्षा का माध्यम सिर्फ स्कूल नहीं है। प्रकृति सबसे बड़ी किताब है और हमारा वातावरण एक बड़ा स्कूल। ‘खुशी का राज’ जानने के लिए कुदरत सबसे बड़ा माध्यम है।

विद्या के गुणों की बात करें तो अनेक ग्रंथ लिखे जा सकते हैं, लिखे भी गए हैं, परन्तु विद्या से दूर रखने की साजिश (परम्परा के नाम पर) भी एक तंत्र के जरिए होती रही है। वर्तमान लोकतांत्रिक युग में भी एक बड़े वर्ग को शिक्षा दूर रखा गया है। शिक्षा और व्यापार, शिक्षा से संस्थानों के जरिए आज का कड़वा सच है। छोटे स्तर पर ‘ट्यूशन’ एक अन्य रूप है। इस के तहत ही ‘नकल’ भी अब संस्थागत रूप धारण कर रही है। कोई ‘अग्नि चट्टान’ बन के खड़ा होना भी पर चाहे, पर ‘हनेर / अंधकार’ का राज्य काफी विशाल है।

शिक्षा का गरीबी से सम्बन्ध ही, जो वर्तमान समय में बच्चो की शिक्षा ग्रहण करने में बाधा बनता है। शिक्षा के महत्त्व को समझने वाले अध्यापक या सचेत नागरिक अपनी पूरी कोशिश लगाते हैं कि किसी व किसी तरह कोई मदद जुटा कर, बच्चों का पढ़ना जारी रख सकें जैसे ‘भविष्य की चिन्ता’ , ‘हौसला’ ‘ते रूडी भी पढ़ गया’ में उजागर किया गया है। पर साथ ही अध्यापक विद्यार्थी के रिश्ते में अन्धेरा पक्ष भी है। ‘काम वालीयाँ’ रचना में विद्यार्थियों से मेड़ वाला काम करवाना जहाँ शोषण का एक रूप है, वहीं खूबसूरत लड़कियों को विशेषतौर पर शारीरिक शोषण के लिए मजबूर करना भी सच है, जैसे ‘गिरते म्यार’ , ‘गाइड’ व ‘मौखिक परीक्षा’ में स्पष्ट रूपायित किया गया है।

पढ़ाई तीसरी आँख है, भाव अन्धविश्वास पर हमले को लेकर रचना ‘दिशा’ , वास्तुशास्त्र के विश्वास को नकारती एक बढ़िया रचना है।

शिक्षा, सिलेबस और बाल मानसिकता एक दूसरे से जुडते हैं। अध्यापक को बच्चे के दिल का ज्ञान हो। सिर्फ सिलेबस ही बाल बौद्धिकता के अनुकूल न हो, बल्कि कक्षा में बैठे बच्चे की मानसिकता भी अध्यापक को ज्ञात हो। ‘हिम्मत’ , ‘फर्क’ , ‘होमवर्क’ व ‘मैं कैसे पढ़ूँ’ आदि इस पहलू को उभारती रचनाएँ है।

संग्रह में कुछ विदेशी लघुकथाएँ भी शामिल हैं, जिनमें स्कूल, अध्यापक शब्द न के बराबर हैं। पर वह शिक्षा के अन्य कई पक्षों को सामने रखते हैं उदाहरण के तौर पर, हालफेोर्ड लुकाक की रचना स्वर्ग-नरक, जिस काम से फुर्सत पर कर शांति महसूस करने की स्थिति को ‘नरक’ कहा गया है और कामजारी रहना, सेज भरी होने को स्वर्ग। इसी तरह खलील जिब्रान की ‘आलोचक’ में आलोचना के सही मंतव्य को उठाया गया है। शिक्षा के स्कूल से बाहर, परिवार की भूमिका को लेकर जेमस थरबर की ‘पूरने’ व ली छयोथ्यो की ‘पत्थर के फूल ढूँढती लड़की’ देखे जा सकते हैं।

इस के अतिरिक्त शिक्षा में रेगिंग, लड़कियों की पढ़ाई को विवाह से जोडना आदि अनेक पक्षों पर बात हुई है और अन्य अनेक पहलुओं पर बात हो सकती है।

विषयवस्तु व्यापक है और इसको लेकर विस्तृत बात हो सकती है। इस के साथ यह बात भी ध्यान में रखनी अनिवार्य है कि प्रस्तुत की जा रही घटना का निर्वाह विधा के अनुकुल हो। इस के तहत जो याद रखने की बात है कि पात्र, घटनाएँ, वातावरण आदि जो भी विवरण दिया जाए, वह मिन्नी कहानी / लघुकथा के रूप में ढले।

संग्रह में जहाँ विदेशी लघुकथाओं में रूसी, चीनी, अंग्रेजी भाषा से खलील जिबान, सरगोई मिखालकोव, जेन्ज थरबर, लू शुन, सुरेन मिलिंसकी, हालफोर्ड लुकाक, जैसे लेखक शामिल है तो हिन्दी में रमेश बतरा, सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया, डॉ. कमल चोपड़ा, योगराज प्रभाकर, सीमा जैन, रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ , कान्ता राय जैसे नामवर लघुकथा लेखकों ने लिखा है। वहीं पंजाबी से श्यामसुन्दर अग्रवाल, हरभजन खेमकरनी, डॉ. बलदेव सिंह खहरा, बिक्रमजीत नूर, जगदीश कुलरियाँ, कुलविन्दर कौशल आदि लेखकों का रचनओं से इस विषय से जुडे अलग-अलग पहलू उभरे हैं।

वास्तव में लेखक ने घटना को गढ़़ना होता है और उसे सर्जन के मुकाम तक ले जाना होता है। लेखक से इस बात की भी इच्छा की जाती है कि वह यथार्थ से, एक कदम आगे इच्छित यथार्थ तक पहुँचे और साथ ही यह भी ध्यान रखे कि वह इच्छित यथार्थ अपवाद न बन जाए, भाव सम्भावित यथार्थ के घेरे में रहे।

बात को समेटते हुए, शिक्षा के क्षेत्र को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से जानेंगे तो गुरुकुल, परिवार, मनुष्य की जिज्ञासा से आरम्भ हो कर अब कम्प्यूटर-इंटरनेट के जमाने में, आन-लाइन शिक्षा का रुझान बढ रहा है और अनेक परिवर्तन आए हैं और साहित्य ने इन सबको आधार बनाया है। समाज की अपनी चाह व तकनीक के योगदान से यह गति बनी रहती है और नए पहलू जुड़ते ही हैं। साहित्यकार भी अपनी सोच के माध्यम से इन्हें रूपायित करेंगे और मिन्नी कहानी लेखक भी।

हमारी भी कोशिश रहेगी कि इन बदलते कदमों के साथ तालमेल बना सकें।

-0-डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति, 97-गुरुनानक ऐवन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर


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