Quantcast
Channel: लघुकथा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

लघुकथाएँ

$
0
0

1- टू फॉर जॉय

उसने कमरे के बाहर बालकनी में झाँका। नन्हा अभी तक जमीन पर उकड़ूँ बैठा, मुँडेर की झिर्रियों में से सड़क के किनारे खेल रहे बच्चों को निहार रहा था।

उसने पास जाकर आवाज दी, “नन्हे!”

नन्हे ने जैसे ही उसकी ओर देखा, वह काँप उठी। मानो घर भर का सूनापन उसकी ही आँखों में सिमट आया था। देखकर उसका जी भर आया। वह फ़ौरन उसके पास जाकर बोली, “नन्हे! चलोगे छत पर खेलने?”

उसकी आँखें चमक उठीं, “सच दादी! तो फिर चलो न।” वह उसका हाथ खींचता हुआ उसे ले चला।

कितने दिनों बाद वह इन सीढ़ियों पर चढ़ रही थी। ज्यों-ज्यों सुरंग-सी घुमावदार सीढ़ियों को पार करती, उजाला बढ़ता ही जा रहा था। छत पर पहुँचते ही उसकी आँखें चौंधिया गईं।

दोनों पकड़म-पकड़ाई खेलने लगे। खेलते-खेलते अचानक वह बैठ गयी।

“ओह दादी, तुम बैठ क्यों गई, उठो न।”

“बस, आज इतना ही, बहुत थक गई हूँ।”

“हम्म! जब से दादाजी गए, तुमने छत पर आना ही बंद कर दिया। तभी तो तुम्हारी दौड़ने की आदत छूट गई।”

उसकी आँखें नम हो आईं। खुद को जब्त करके बोली, “हाँ नन्हे, तुम ठीक कह रहे हो।”

“तो चलो, प्रॉमिस करो कि अब रोज आया करोगी मेरे साथ खेलने …।”

“हाँ बाबा हाँ, प्रॉमिस करती हूँ।”

नन्हा आसमान में उड़ती पतंगों को देखने में मग्न हो गया और वह अपने ख्यालों में …। इन दो महीनों में ही ज़िंदगी कितनी बदल गयी थी। पति के गुजर जाने के बाद, सबके होते हुए भी जीवन एकाकी हो गया था।

“दादी, देखो कबूतर … ।”

उसने नजरें घुमाईं, मुँडेर पर बैठे दो कबूतर आपस में चोंच लड़ा रहे थे।

“देखा दादी, कितना अच्छा है ना कि ये दो हैं। अगर एक होता तो वह भी मेरी तरह ‘वन फॉर सॉरो’ होता।” कहते-कहते उसकी आवाज़ में फिर उदासी छलक आई।

वह झट से उठी और उसे गले से लगाते हुए बोल पड़ी, “नो बेबी नो। वी आर टू। “टू फॉर जॉय! ‘टू फॉर जॉय!”●

-0-
2: नीम की छाँह

आज वह पूरे बीस साल बाद, अपनी नानी के गाँव आया था। सब कुछ कितना बदल सा गया था ।

जब वह माँ के साथ यहाँ रहने आता था, तब नानी अक्सर उसे शिष्टाचार की बातें सिखाया करती थी, जिसे सुनकर वह चिढ़ जाता था। 

समय के साथ वह अपनी पढ़ाई में इतना व्यस्त हो गया कि फिर कभी उसका इधर आना ही नहीं हुआ। 

मगर आज वह नानी की तेरहवीं पर गाँव आया था, दिन भर लोगों से मिलता-जुलता रहा, मगर बहुत बेचैन था। उसके मन में बचपन की यादें हिलोरे मार रहीं थी। न तो अब नानी थी और न ही बचपन का वह प्रेम।

खुली हवा में वह मन बदलने के लिए, बगीचे में चला गया, जहाँ कभी उसके नन्हे हाथों ने नीम के एक छोटे-से पौधे को रोपा था। जब कभी वह मामा से उसका हाल पूछता तो वह हँसकर कहते, “नानी से ही पूछो, वह रोज उसे दुलराने जाती हैं।” तभी उसने नानी के प्यार को महसूस किया था।

बगीचे में अभी भी सब कुछ वैसा ही था, वही कुआँ, आम के ढेर सारे पेड़, नहीं थी तो बस नानी नहीं थी।

वह ठिठक गया, “अरे! ये तो वही नीम का पेड़ था, जिसे उसने रोपा था।” उसने नीम को ऊपर से नीचे तक देखा, अब वह बहुत बड़ा हो गया था। उसके तने को सहलाता हुआ वह बोला, “लो मैं आ गया। हर दिन मैंने तुम्हें याद किया है।”

नीम की टहनियाँ हवा में यूँ लहरा उठीं, मानो उसे देखकर उसे दुलरा रही हों। देर तक वह उसकी छाँह में बैठा रहा।

अचानक वह उठकर मिट्टी में पड़ी निमकौरियाँ बीनता कह उठा, “नानी जब तुम डाँटती थी, तब सचमुच नीम की तरह कड़वी लगती थीं, लेकिन आज जब तुम नहीं हो तो तुम्हारी यादों के बीज अपने साथ लिए जा रहा हूँ।” 

-0-

3- भय की कगार पर 

सीढ़ियाँ चढ़ती जैसे ही मैं छत पर पहुँची, इधर से उधर बलखाती गिलहरियाँ, आपस में बतियाते कबूतर और ऊपर आसमान में चमकता सूरज अपनी बुलंदियों पर था।अहा! कितना मनोरम दृश्य था।

अचानक मन में ख्याल आया, क्यों न कैद कर लूँ इन सबको अपने कैमरे में…।

फोकस बनाया ही था कि एक कबूतर महराज मुँडेर पर बैठे कनखियों से मेरी ओर देख रहे थे। मैं ठिठक गई, मैंने उससे पूछा, “ऐ कबूतर! तनिक बताओ तो, तुम मुझे इस तरह से क्यों देख रहे हो?”

उसने गर्दन मटकाते हुए आँखें मिचमिचाईं। 

मैं फिर बोली, “देखो, मैं धूप सेंकने आई हूँ। क्या तुम भी अपने पंखों को धूप दिखा रहे हो? अच्छा, छोड़ो तुम न समझोगे मेरी ये सारी बातें।”

 उसने भी जैसे मुझे इग्नोर किया। 

मैं फिर बोल उठी, “वैसे दोपहर भर तुम्हारी गुटरगूँ, मुझे बहुत डिस्टर्ब करती है और सुना है कि तुम वजन में बहुत भारी होते हो?”

 इस बार उसने अपने पंख फड़फड़ाए। मुझे लगा कि जैसे शायद वह कह रहा था कि, “भारी तो तुम इंसान हो इस धरती पर, और हम परिंदों पर। न तो तुमने पेड़-पौधे छोड़े। ऊपर से चारों तरफ प्रदूषण फैला रखा है। त्योहारों पर तो माइक लगाकर, न जाने क्या-क्या फुल वॉल्यूम में बजाते रहते हो। अब तुम्हीं बताओ, कौन किसको डिस्टर्ब करता है? और कौन किस पर भारी है?”

मैं हैरान थी, अरे! ये तो सब कुछ समझता है।

उसने फिर अपनी गर्दन मटकाई, जैसे वह कह रहा था कि “तुम तो मन के पंख लगाकर उड़ा करती हो, लो देखो मेरे पंख! ये देखो, मैं उड़कर दिखाऊँ?”

“अरे रे रे! तनिक ठहरो तो, एक तस्वीर तो उतार लूँ तुम्हारी। फेसबुक पर डालनी है ना, अपने दोस्तों को दिखाने के लिए।”

इस बार उसकी फड़फड़ाहट से मानो फिर आवाज आई। “लो, कर लो कैद हमें तस्वीरों में, तुम्हारी भावी पीढी के काम आएँगी, ये बताने को कि कोई कबूतर नाम का भी प्राणी होता था इस संसार में, वह भी डायनासोर की तरह विलुप्त हो गया।” और वह पंख फड़फड़ाता आकाश में उड़ गया। 

तस्वीर तो मैंने ले ही ली थी, मगर आँखों के सामने अँधेरा-सा छा गया। दिल में ख्याल आया, कि विलुप्त प्राणियों की लिस्ट में कहीं हम इंसान भी तो नहीं ….?”

-0-
4- भनभनाहट

“भन्न-भन्न-भन्न!”

“उफ्फ!” मैंने रजाई ऊपर तक खींच ली।

रिश्तेदार कुछ कम थे क्या, जो अब ये नामुराद मच्छर भी चले आए ख़ून पीने। उन्हें पता क्या चला कि मेरे माँ-बाबूजी ने अपना मकान मेरे नाम लिख दिया बस, तभी से जैसे मकान उन सबकी ज़ुबान पर चढ़ गया। जबकि इशारों ही इशारों में मैंने उन्हें समझा भी दिया था कि मकान कोई दहेज में आया माल नहीं, जिस पर आप सब अपनी नीयत धरे हैं। ये तो माँ-बाबूजी का दिया हुआ आशीर्वाद है मुझे। 

जीजी को ही ले लो, जैसे ही उन्हें पता चला, छूटते ही बोली थीं, चलो, कभी पिकनिक मनाना हुआ तो बस चल पड़ेंगे वहाँ। धत्त तेरे की! मकान न हो गया जैसे कोई खेत-खलियान हो गया। अरे, ऐसे सब्ज़-बाग़ दिखलाऊँगी न कि हरियाली ही हरियाली नज़र आएगी चारों तरफ। 

“भिन्न-भिन्न!”

“ओहोS!” मैंने रज़ाई को और भी ऊपर तक घसीट लिया और अपना सिर उसके भीतर अच्छी तरह से छुपा लिया।

परिवार वाले सभी एक से बढ़कर एक। माँ-बाबूजी, भैया के पास अमेरिका क्या गए, पीछे से मकान की चाभी ही उठाकर दे दी पड़ोसी को! वो भी मुझसे बिना पूछे? अरे भई! अपनी रईसियत जो झाड़नी थी ना। छि:! कितनी बुरी बात है। घर न हुआ जैसे कोई धर्मशाला।

लो, अब तो माँ-बाबूजी भी चले गए दुनिया छोड़कर। तब से तो बस एक ही रटन लगी है, मकान-मकान। ऊँह!

अरे ओए मच्छरों! तुम मानोगे नहीं ना। देखते जाओ बस, तुम सबका माउथ ऑर्गन न बंद कराया तो मेरा भी नाम …।

 भनभनाहट अब अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच चुकी थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो मच्छरों ने कान में घुसने की पूरी तैयारी ही कर ली थी। मैंने भी धीSरे से, रज़ाई सरकाई … और दे मारा एक हाथ कसकर, अपने कान पर। “आहा शाब्बाश!” नाइट लैंप की रौशनी में देखा, धब्बे ही धब्बे नज़र आ रहे थे हाथ पर।  

“ओ माय गॉड!” तो ये रिफ़िल ख़ाली पड़ी है मच्छर भगाने वाली। पहले ही क्यों न देख लिया मैंने? “शिट!” अलमारी से एक नई रिफ़िल निकाल कर लगा दी और वापस रज़ाई में जा पड़ी। 

अब तो चाहे कुछ भी हो जाए, मकान तो इन सबके हाथ लगने न दूँगी। ओह आइडिया! ब्रिलियंट! एक प्यारा-सा ‘ओल्ड एज होम’ बनाऊँगी, वो भी माँ-बाबूजी के नाम पर।

भनभनाहट अब ग़ायब हो चुकी थी, रीफ़िल ने अपना असर दिखाना जो शुरू कर दिया था।

-0-

5- साँझ ढले

धूप-छाँव के बीच जीवन का उत्सव मनाते पल्लवी के माँ और बाबूजी कब उम्रदराज़ हो गए, पता ही न चला। दोनों लगभग पच्चासी वर्ष के हो चले थे। अनुशासन, विनम्रता और कर्मठता उनके जीवन के अंग थे। बाबूजी को गुस्सा आता तो माँ चुप रहती, माँ को गुस्सा आता तो बाबूजी। बाद में ‘सॉरी!’ बोल दोनों हँस देते। बाबूजी माँ को बहुत प्यार करते थे; माँ भी दिलोजान से बाबूजी को चाहती थी।

एक महीने से माँ बहुत बीमार चल रही थी। उनके फेफड़ों ने काम करना बंद किया था। चौबीसों घंटे ऑक्सीजन पर थीं। बीमारी के चलते उनका कमरा अलग कर दिया गया था।

बाबूजी का कमरा थोड़ा दूर हो गया था। छड़ी के सहारे चलने में भी उन्हें कष्ट होता था। फिर भी जैसे-तैसे वे एक बार माँ से मिलने अवश्य जाते थे। बाबूजी माँ के पास जाते समय कमरे का दरवाजा ढाल देते थे और किसी और को अंदर नहीं आने देते थे।

आज पल्लवी के मन में आया कि देखे तो सही कि बाबूजी अंदर करते क्या हैं? वह थोड़ा-सा दरवाजा खोल भीतर देखने लगी—बाबूजी “आई लव यू डीयर!…आई लव यू डीयर!…” कहते हुए माँ की ठुड्डी व गालों को सहला रहे थे। फिर उन्होंने झुकते हुए माँ के माथे को चूमा। माँ की आँखें छत की ओर टिकी थीं। वे कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दे रही थीं। “तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकती!” कहते हुए बाबूजी काँपे और माँ की छाती पर गिर पड़े।

पल्लवी एकदम से घबरा गई। भागकर कमरे में पहुँची तो एकदम से जैसे साँस ही अटक गई। न वहाँ माँ थी, न बाबूजी।

-0-


Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>