उसने पुनः कागज़ फाड़ कर गोला बनाया और कूड़ेदान के हवाले कर दिया। फिर से लेखनी को दुबारा लिखने का आदेश दिया। वह भी बेमन से चल पड़ी। अभी दो वाक्य भी न लिख सकी, उसकी रुलाई फूट गई।
वह फूलों के विषय में न लिख कर लिखने लगी, “फूलों सी कोमलांगी, उस अबोध के विषय में, जो खिल रही थी अभी। जिसे बलपूर्वक कुचल दिया गया था, पूर्णतः विकसित होने से पहले ही। वो कहाँ जानती थी कि स्त्री उनकी दृष्टि में अब भी मात्र भोग्या है, और उसकी देह पर पुरुष का चिरकाल से ही अधिकार है।”
लेखनी का ह्रदय पीड़ा से भर गया था। वह एक-एक शब्द अपने ह्रदय के रक्त से कागज़ पर उतारती जा रही थी… कि उसके आगे से फिर कागज़ खींचते हुए उसका स्वामी, जो स्वयं को कवि कहता था, क्रोध में झुँझला उठा, “ये क्या लिखती चली जा रही हो? तुम्हें यह सब लिखने को कब बोला?”
और उसने पुनः लेखनी की पीड़ा से भरे उद्गारों को गोल गेंद बना कर कूड़ेदान के हवाले कर दिया।
“मैं प्रेम कवि हूँ। प्रकृति का चितेरा हूँ। मेरी लेखनी केवल प्रेम जैसे कोमल विषय पर ही चलेगी!” एक और नया कोरा धवल कागज़ लेखनी की ओर बढ़ाते हुए वह लगभग गुस्से से ग़ुर्राते हुए बोला था।
लेखनी ने अपना मन बटोर कर फिर उसके भावों को समझ शब्दों में ढालना आरम्भ कर दिया। “प्रेम कितना कोमल शब्द है, जैसे बीरबहूटी। एक दम मखमल जैसा नर्म और कोमल। हाँ… वह प्रेम में ही तो थी,” लेखनी के मन में एक और मासूम किसी बिजली की तरह कौंध गई। वह अपने प्रीतम के साथ एक प्रेम भरा भविष्य जीने के लिए कुछ मासूम सपने उठाकर भाग तो निकली थी, पर उसे समाज की शक्ति का अनुमान कहाँ था? दो दिन भी न व्यतीत कर सकी थी अपने प्रिय के साथ, और दोनों भेंट चढ़ गए अपनों की जातीय अभिमान के…
लेखनी की सिसकियाँ थमने को तैयार ही न थी, कि उसके रचयिता ने पुनः उसकी राह रोक दी, “आज तुझे हुआ क्या है, पगली! यह सब लिखकर क्यों स्वयं को और मुझे नष्ट करने पर उतारू है?”
लेखनी सुबक उठी।
“नासमझ मत बन यह सब लिखकर हम कुछ हासिल नहीं कर सकेंगे। मैं जो कहता हूँ वही लिख! ”
अचानक लेखनी की मुठ्ठियाँ भिंच गईं। “मैं तुम्हारी गुलाम नहीं! मैं प्रेम गीत कैसे लिख सकती हूँ, जब चारों ओर आग लगी है…?”
लेखनी तीव्रता से उठी और पुनः कागज़ पर दौड़ गई। अब प्रेम कवि अवाक् था।