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कथाः मनुष्य की चिरसहचरी

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कथा को मनुष्य की चिरसहचरी माना जाता है। मानव जीवन के आरंभ से ही कथा किसी न किसी रूप में सदा अस्तित्व में रही है। संस्कृत ,पालि ,प्राकृत ,अपभ्रंश में जो दृष्टांत है, वहां से लघुकथा का उत्स कतिपय विद्वान मानते हैं। दरअसल हिंदी लघुकथा का विधिवत् स्वरूप उन्नीस सौ के बाद उस समय उभर कर सामने आया ,जब विश्व प्रसिद्ध खलील जिब्रान की लघुकथाओं का अनूदित स्वरूप हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगा। लघुकथा आम आदमी पर केंद्रित है। उसके हर्ष, विषाद ,पीड़ा के निरूपण के साथ-साथ समाज की विसंगतियों पर तीखा शाब्दिक प्रहार लघुकथा में होता है ।कैनवास छोटा होने के कारण इसमें सांकेतिकता ,प्रतीकात्मकता का सहारा लिया जाता है ।स्पष्ट है कि यह बड़ी कथा की सिनॉप्सिस नहीं होती । लघुकथा की सफलता लेखक के विचार ,उसकी संवेदना और उसके शिल्प कौशल पर निर्भर करती है। श्रेष्ठ लघुकथा वह होती है, जो पन्ने में खतम नहीं होती ,बल्कि पाठक के मानस को आंदोलित करते हुए उसके मस्तिष्क में घूमती रहती है। मेरा मानना है कि स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के समय समाज में जैसी क्रांति कविता ने की थी फिलवक्त विकृत हो रहे इस समाज में वैसी ही क्रांति लाने की शक्ति सिर्फ लघुकथा रखती है। इसका कारण यह है कि अति बौद्धिकता के कारण आमजन का कविता से मोहभंग हुआ है और वह लघुकथाओं को बहुत पसंद कर रहा है। बहुत अधिक कलात्मकता या थोपा हुआ शिल्प  लघुकथा को सामान्य जन से दूर कर देती है, लेखक को इसका ध्यान रखकर लघुकथा को एक सशक्त साधन बनाकर अपने लेखककीय धर्म को निभाना चाहिए। जिस तरह आज कविता जनता से दूर हो,चारदीवारी में बंद होकर चंद कवियों के लिए ही रह गई है, यदि हमने सावधानी नहीं बरती तो लघुकथा की हालत भी ऐसी ही हो जाएगी।छोटा सा फलक होने के बावजूद, वह पाठक को गंभीर चिंतन करने पर मजबूर कर देती है। उसका समसामयिक होना, मानव मन की शिनाख्त कर उसकी संवेदना को झकझोर ने की शक्ति रखना और कहानी की तरह तृप्ति देना, लघुकथा को परिपूर्णता प्रदान करता है। लघुकथाकार यदि समर्थ है तो वह साधारण घटना को विशिष्ट और विशिष्ट घटना को अति विशिष्ट बना सकता है। यह समुद्र को अंजलि में भरने का कठिन कार्य है। ऐसी बहुत सारी लघुकथाएँ हैं ,जो मुझे पसंद हैं, फिलहाल दो लघुकथाएँ दिमाग में उभर आई हैं। पहली उपेंद्रनाथ अश्क जी की ‘गिलट’ है जो मैंने दशकों पूर्व पढ़ी थी और दूसरी अमेरिका के कथाकार कार्ल सैंडबर्ग की ‘रंगभेद’ है, जो अभी कुछ माह पूर्व ही किसी पत्रिका में अंतरराष्ट्रीय रंगभेद उन्मूलन दिवस के संदर्भ में प्रकाशित हुई  थी। वैसे भी मुझे ऐसी रचनाएँ पसंद है जो जीवन और समाज की रक्षा के लिए लिखी गई  हैं , जिनमें लोकल्याण की भावना होती है, जिसमें विदेशी साहित्य का अंधानुकरण नहीं होता, जिसमें थोपा गया क्लिष्ट शिल्प नहीं होता कि उसे समझने के लिए मानसिक व्यायाम करना पड़े। दरअसल समाज की माँग के आधार पर जो साहित्य लिखा जाता है, वही लोक कल्याण कर पाता है। आज समाज को ऐसे साहित्य की जरूरत है जो सरल भाषा में लिखा गया हो, जो हमारी संस्कृति को बचा सके,जो आमजन को अपनी मिट्टी से जोड़ सके,जो उनमें सकारात्मक सोच भर सके ,जो अपने जीवन मूल्यों की रक्षा कर सके (यही तो सारे विश्व में हमारी पहचान है),जिसमें नए -नए प्रयोग हों ,श्रेष्ठ शिल्प हो किंतु संप्रेषणीयता को ठेस न पहुँचे। आज जब  तथाकथित साहित्यकारों को किसी समूह विशेष को खुश करने के लिए लिखते देखता हूं या पुरस्कार प्राप्ति के लिए लिखते देखता हूं तो दुख होता है कि उन्हें आमजन से कोई लेना देना नहीं। जबकि श्रेष्ठ साहित्य तो वही होता है जो जन जागृति कर सके, समाज को अच्छी दिशा में ले जा सके। ऐसी हर रचना मुझे पसंद है जो सामाजिक चेतना को जगाकर स्वस्थ एवं श्रेष्ठ समाज का निर्माण करने वाली होती है । ये दोनों लघुकथाएँ ऐसी ही हैं।

कथनी और करनी का एक होना ईमानदारी ,सत्यता ,निष्ठा, सदाचार को प्रकट करता है, जिसकी समाज को आज सर्वाधिक जरूरत है । सच्चा व्यक्ति जो कहता है उसे करके दिखाता है, इससे मिलती-जुलती दो कहावतें और भी हैं। एक का प्रयोग अश्क जी ने अपनी लघुकथा गिलट में किया है-पंख लगाकर कौआ मोर नहीं बन जाता। दूसरी, हाथी के दाँत खाने के अलग और दिखाने के अलग। यह तीनों कहावतें आज समाज में  पूर्ण रुप से चरितार्थ हो रही  हैं। इस लघुकथा को जब मैंने वर्षों पूर्व पढ़ा था ,तो मेरे दिमाग में पहला सवाल यह आया कि इतने वर्षो पूर्व लेखक ने समाज में चल रही इस गंभीर बीमारी को पकड़ लिया था कि चित्त की अशुद्धि ही हमारे समाज की सभी बुराइयों की जड़ है। हम देख रहे हैं  कि आज क्षेत्र चाहे राजनीति का हो या साहित्य का, शिक्षा का हो या संस्कृति का सभी जगह ऐसे मनुष्यों का  बोलबाला नजर आ रहा है, जो मनसा, वाचा कर्मणा  एक नहीं हैं, यही हमारे समाज की दुर्गति का कारण है। रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाए पर वचन न जाई वाले देश में राजनीतिज्ञ, अधिकारी सब उस शपथ का कहां पालन कर रहे हैं, जो कार्यभार ग्रहण करने के पूर्व उन्होंने ली थी। यह जो कलई है ,मुलम्मा है, गिलट है ,इसी ने परिवार और समाज में विघटन शुरू किया है। आज स्थिति यह है कि चमक, नकली चीजों में अधिक दिखाई दे रही। नकली मुद्रा जब अत्यधिक बढ़ जाती है, तो वह शनैः शनैः असली मुद्रा को बाहर कर देती है। लेखक हमको यही चेता रहा है कि हमें मनसा, वाचा कर्मणा एक होना होगा, तभी एक स्वस्थ समाज की स्थापना हो पाएगी। सोने की अंगूठी गिलट की अँगूठी की आपस में हुई छोटी सी वार्ता, समाज की बड़ी समस्या को उभारती है ।अंगुलियों की अंगूठी की बातें सुनकर उसे लगता है कि वह बातें उस पर शब्दशः लागू हो रही हैं। दूसरे दिन वह जिसे देखता है, उसे वह गिलट वाली अँगूठी जैसा ही दिखाई देता है। आत्मकथात्मक शैली में लिखी इस छोटी सी लघुकथा में अश्क जी ने बहुत गहरी बात कही है।

यह रंग- बिरंगी दुनिया आकर्षक तो बहुत है, परंतु पूर्वाग्रह के कारण यह भेदभाव या विभेदन से भरी हुई है। वर्ग, श्रेणी, जाति, समूह, रंग, अर्थ आदि को लेकर हम जो भेदभाव कर अलगाव की स्थिति पैदा करते हैं, उसने कई बार समाज में रक्तपात किया है। इतिहास भी इसका गवाह है। यह आज से नहीं सदियों से चला आ रहा है। हमने खुद कर्म के आधार पर वर्ण बनाए जो आज जन्म के आधार पर माने जा रहे हैं ,यह भेदभाव हमने किए, हमारे ईश्वर ने नहीं ,यदि ऐसा होता तो भगवान राम, शबरी के जूठे बेर कभी ना खाते! हमारी राजनीतिक पार्टियां जो जाति भेद मिटाने की बड़ी-बड़ी बातें करती हैं, वह खुद जाति के आधार पर चुनाव के समय टिकट बांटती हैं। इसी तरह विदेशों में रंग भेद की समस्या व्याप्त है। हमारे देश में विदेशों जैसा रंगभेद तो नहीं है, परंतु नारियों के संदर्भ में यह मौजूद है। सुप्रसिद्ध लेखिका मन्नू भंडारी जी ने अपनी आत्मकथा में यही तथ्य दर्शाया है कि नारी के लिए साँवला रंग, कितनी सारी समस्याओं को खड़ा कर देता है। इस समस्या का विकराल रूप हमें आज भी देखने को मिलता है ,जब हम पढ़ते हैं कि रंगभेद को लेकर विदेशों में हिंसक घटनाएँ   हो रहीं। डॉक्टर नेल्सन मंडेला रंगभेद की समस्या को हटाने के लिए लगभग 27 वर्ष जेल में रहे। हमारे देश ने भी दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद की नीतियों के खिलाफ 1913 में द ग्रेट मार्च निकाला था। ऐसी गंभीर समस्या को ख्यात अमेरिकन लेखक कार्ल सैंडबर्ग ने अपनी लघुकथा  ‘रंगभेद’ में उठाया है। यह लघुकथा सामाजिक, लैंगिक, धार्मिक, जातिगत और अन्य भेदभाव को मिटा कर हमें इंसानियत का पाठ पढ़ाती है। यह हमे भेद मुक्त ‘एक विश्व एक परिवार’ का संदेश देती है। यद्यपि यह लघुकथा  छह, सात पंक्तियों की है परंतु वह बहुत प्रभावशाली है। एक गोरा आदमी मियामी के तट पर काले आदमी को घृणा से देखते हुए, रेत पर एक छोटा सा वृत्त खींचता है और कहता है- एक काला आदमी इससे अधिक नहीं जानता। फिर उसी के पास एक बड़ा सा वृत्त खींचकर कहता है-एक गोरा आदमी इतना अधिक जानता है। काला आदमी उठकर उन दोनों वृत्तों के पास एक बहुत बड़ा वृत्त खींचकर कहता है-इतना कुछ है जो ना गोरा आदमी जानता है, ना काला आदमी। लघुकथा के इस छोटे से फलक के अंदर लगता है कि सारा विश्व ही सिमट गया है।

ये दोनों लघुकथा इसलिए  भी मुझे पसंद है कि इनको समझने के लिए मशक्कत नहीं करनी पड़ती। इनमें  थोपा गया शिल्प नहीं है और यह जन- जीवन में जागृति उत्पन्न करने वाली लघुकथाएँ हैं ।  इनमें शोध, बोध और क्रोध का उचित मेल हुआ है । साहित्य के मूलभूत तत्व-भाव, कल्पना, बुद्धि और शैली माने जाते हैं ,इस परख से भी यह लघुकथाएँ संतुष्ट करती हैं । यह समाज का पथ प्रदर्शित करने वाली लघुकथाएँ हैं। दरअसल लेखक तो वही होता है जो “दिल अपना और पीर पराई” की उदात्त भावना अपने हृदय में रखता है। यही तो लोक कल्याण की भावना है और ऐसे ही साहित्य की आज हमारे समाज को जरूरत है। आज के युवा रचनाकारों को इन दोनों लघुकथाओं को अपना आदर्श मानकर सृजन करना चाहिए। वे नए नए प्रयोग भी करें,  परंतु आमजन को लक्ष्य कर लिखें। यह दोनों लघु कथाएँ ,कला जीवन के लिए मत को पुष्ट करती हैं ,जिसकी आज हमारे समाज को सर्वाधिक जरूरत है । मेरी विनम्र सम्मति है कि कला कला के लिए वाला मत उन देशों के लिए उपयुक्त है, जो अपनी प्राथमिक और द्वैतीयक आवश्यकता को पूर्ण कर चुके हैं। इन दोनों लघुकथाओं के शीर्षक सार्थक हैं।

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1-गिलट            

-उपेंद्रनाथ ‘अश्क ‘

रात मैंने स्वप्न में देखा-मेरे हाथ की दोनों अंगूठियां आपस में झगड़ा कर रही हैं-

असली सोने की अंगूठी गिलट की नकली अंगूठी को डांट रही थी,”तुझे मेरे बराबर बैठकर लज्जा नहीं आती, मोर के पंख लगाकर कौवा मोर नहीं हो जाता। पानी उतरा कि तेरा वास्तविक रूप निकल आएगा।जा! कहीं अंधेरे में जाकर मुंह छिपा तेरा युग बीत गया है।”

नकली अंगूठी ने असली की बात काटकर मेरी ओर संकेत किया,”हम जिसके हाथ की शोभा बढ़ा रही हैं, स्वयं नकली है। मेरे जैसा ही पानी उस पर भी चढ़ा हुआ है। आज गिलट का ही युग है बहन!”

मैं चौंक पड़ा। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे सारे आवरण उतर गए हों। किंतु मेरे आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब दूसरे दिन मैंने जिसे देखा मुझे गिलट की हुई अंगूठी जैसा दिखाई दिया।

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2-रंगभेद

-कार्ल सैंडबर्ग

मियामी के तट पर बैठे उस गोरे आदमी ने रेत पर एक छोटा सा वृत्त खींचा और सामने बैठे काले आदमी की ओर  घृणा की दृष्टि से देखता हुआ बोला- ” एक काला आदमी इससे अधिक नहीं जानता। फिर उसने उस छोटे से वृत्त के इर्द-गिर्द एक बड़ा सा वृत्त खींचा और कहा-“एक गोरा आदमी इतना अधिक जानता है।”

इस बार काला आदमी उठा, उसने एक पत्थर के टुकड़े से दोनों वृत्तों के गिर्द एक बहुत बड़ा वृत्त खींचा और कहा,”इतना कुछ है, जो न गोरा आदमी जानता है , न काला आदमी।”**

-0- योगेन्द्र नाथ शुक्ल ynshukla4@gmail.com


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