गढ़वाली अनुवाद:डॉ कविता भट्ट
झुग्गी झोपड़ी हटौंण क बाना सरकारी आदेशै की फैल मेज पर रखदि रखदु सचिव न हथ जुडै करिक बोलि-‘‘सर! झुग्गी झोपड़ी म रौण वलौं तैं नोटिस भेजि द्यौं।’’
रामनाथ न खुसी म जोर करिक हैंसी क बोलि-‘‘अब्बि ना….कुछ समैं बितण द्या।’’
अचाणचक सोचिक फीर बुन्न सुरू कैरी , ‘मेरा बैरियों का मुख पर मोसु लगी गे होलु, वख मु एक आलीशान होटल, स्वीमिंग टैंक, पार्क बणवौलु….।’’ अब वेका ओठु पर हैंसी तैन्नी छै।
वे तैं लगि कि वेकु दिल बैठि गे अर साँस फून्नी छै, वु तुरन्त एक गिलास पाणि एकी साँस म सुड़कि गे पर वे का ओंठ सुखणा छा।
वेन घबराट म अफ्फु म हि बोलि, ‘मि तैं क्या हुणू चा
कि वे कु मन घबरै गे?’ वु सोफा माँ बैठि गे, वेकी नजर मनखि बराबर सीसा पर पड़ी जै माँ वे कु छैल वे तैं नफरत सि देखणु छौ, वेन नफरत माँ बोली ‘‘तू घमण्डौ कु सिकार बणी गें। यूं झोपड़ियों माँ तेरू बित्यूं समैं छुप्यूँचा, यूँ गरीबु कि हाय का कारण तेरू नष्ट न ह्वे जौ….।’’
‘मैं क्या करौं….मैं…..क्या करौं?’ वु अफि माँ बरड़णू रै। कुछ ही घड़ी म एक बाच वेका भितर मन म आई, रामनाथ! तू यूँ गरीबों की हाय न ली…. यूँ उजाड़ण सि पैलि यूं रौणै की कुछ व्यवस्था कर दि, तभी तेरू कल्याण ह्वे सकदू।’ वु बेचैनी से अपणा छैंल की तरफां बढी, ‘‘मैंन गरीबु कि दगडि क्वी अत्याचार नि कैरि, अपड़ी जमीन वूँ माँ खाली करौण क्वी जुलम च क्या। ‘ना…..। त्वैंन हेरा फेरी करिक यु सस्ता दामू माँ सरकार म खरीदेलि, जब कि मालूम छौ कि वख गरीब लोग काफी समैं बिटि रौणा छन। अचानक चौतरफा घपरौल होण लगि गे तु मनखमारू छैं….. मनखमारू छैं…..। वेन द्वी हाथु न अपड़ा कन्डूड़ बन्द करेलि। घबरै कैं वु सोफा माँ पड़ी गी……..मि तैं क्या होणू च? वे लगी कि लगा क्वी बुन्नु च-‘रामनाथ……तु चैन सि नि रै सकदे……. यूँ गरीबु की हाय न तेरू परिवार फलीभूत नी ह्वे सकदू। झोपड़ी म रौण वाळा गरीबू तैं कखि हौर व्यवस्था करि द्या।’’
‘‘ठीक च……ठीक च….सैर का भैर कखि व्यवस्था करि द्यौलु।’’ धीरू-धीरू वे तैं अनुभव होण लगी गी कि वे कि छाती माँ रख्यूँ पाड़ हटि गे…….वेन राहतै कि साँस ले…….।
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