वर्तमान समय लघुकथाओं का स्वर्णिम युग है, जिसमें लघुकथा पाठकों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है, वहीं नए रचनाकारों का इस क्षेत्र में पदार्पण हो रहा है।
लघुकथाएँ अंधविश्वास एवं कुप्रथाओं पर करारी चोट कर नई दिशा दिखाती हैं। यह रुग्ण मानसिकता को समाप्त कर स्वस्थ समाज के निर्माण में भागीदारी कर रहीं हैं।
जहाँ समाज में संवेदनाएँ मरती जा रहीं हैं, रिश्ते- नाते खत्म हो रहे हैं, संयुक्त परिवार बिखर रहें हैं, लघुकथाएँ उनमें जान डालने का प्रयास कर रहीं हैं।
रचनाकार संवेदनशील होता है,उसे आज की भौतिकवादी संस्कृति से कोफ्त होती है तो वह कलम उठा लेता एवं हमारे इतिहास, संस्कारों को उजागर कर सोचने को मजबूर करता है। विभिन्न रचनाकार एक ही विषय पर अलग- अलग तरीके से लिखकर मस्तिष्क के सोये हुए तंतुओं को झंकृत करने का प्रयास करते है। इसी क्रम में मेरी पसंद की दो कथाएँ संलग्न हैं।
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की कथा ‘ऊँचाई’ मुझे बहुत पसंद है। यथार्थ के धरातल पर बुनी गई यह एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार की कथा है। जिसमें पिता गाँव में खेती-बाड़ी करते हैं और पुत्र पढ़-लिखकर शहर में नौकरी कर रहा है। उसके परिवार में उसकी पत्नी एवं बच्चे हैं। कथा में बहुत कुछ शब्दों से बयान नहीं गया है, परंतु इसका फलक विस्तृत है, चित्रण एवं भाषा शैली इस प्रकार की है कि पाठक का घटना से जुड़ाव हो जाता है और प्रत्यक्षतः उस घटना को महसूस करता है।
कथा की पहली लाइन से आभास होता है कि बेटे की पत्नी का गाँव एवं परिवार से कोई लगाव नहीं है, वह परेशान रहती है एवं चिड़चिड़ी हो गई है, तभी तो वह कहती है -“लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है।” अचानक पिता जी के आ जाने पर बेटा भी सोचता है कि इस समय पिता जी क्यों आ गए? चूँकि वह नौकरी करता है, तो समय-समय पर घर पैसे भेजता रहा होगा। परंतु अब आर्थिक तंगी रहती है तथा अपने परिवार का पालन-पोषण भी ठीक ढंग से नहीं कर पा रहा है। उसका एवं उसकी पत्नी का दिमाग एक ही दिशा में चलता है कि शायद पिता जी को पैसों की ज़रूरत हैं इसलिए चले आए हैं, जबकि तीन माह से बेटे की खबर न मिलने के कारण राजी- खुशी जानने आए हैं। उन्हें मालूम है कि जब बेटा परेशान होता है, तो वह आत्म केंद्रित हो जाता है, किसी से अपना सुख-दुख नहीं बाँटता। बेटे- बहू की चुप्पी देख पिता जी को घर के हालात का अंदाजा हो जाता है, परंतु वे भोजन करने के बाद बिल्कुल बेफ्रिक बैठ जाते हैं। बेटा- बहू सोच में डूबे हैं। तभी “सुनो” की आवाज से उनकी तंद्रा भंग होती है।
बेटे को बताने लगते हैं, “इस बार धान की फसल अच्छी हो गई है, घर में कोई दिक्कत नहीं है” और सौ-सौ के दस नोट बेटे की ओर बढ़ा देते हैं। बेटे को एहसास होता है कि पिता जी को उसकी स्थिति का भान हो गया है तथा वे कुछ लेने, नहीं देने आए हैं। वह निशब्द उनकी ओर देखता रहता है। इस समय पिता जी की प्यार भरी डाँट “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?” तब बेटे ने हाथ बढ़ाया और पिता जी ने नोट हथेली पर रख दिए। कथा का अंत बहुत खूबसूरती से किया गया है। ‘बरसों पहले पिता जी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परंतु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।’
यह अंत ही कथा को ऊँचाइयों तक ले जाता है। इन मनोभावों की व्याख्या करना भी मुश्किल है, यह सिर्फ महसूस किया जा सकता है।
यह कथा भावनाओं के धरातल पर बुनी गई है, जिसमें प्रेम परिलक्षित होता है जो पारिवारिक मूल्यों को बचाए रखने में सहायक है। यह कथा अस्सी-नब्बे के दशक की प्रतीत होती है, जब पत्राचार ही संपर्क का माध्यम था। परंतु आज भी यह कथा समीचीन है जो संयुक्त परिवार की धारणा की पैरवी करती एवं परिवार के मुखिया पिता को आदर एवं सम्मान का भाव सिंचित करती है।
मुझे कांता राय की ‘इंजीनियर बबुआ’ कथा भी पसंद है। इस कथा में पिता गाँव के पोस्ट ऑफिस में लगे फोन से बेटे से बात करने जाता है। इधर माँ परेशान है कि बेटे से बात हुई कि नहीं, पैसा भेजने की बात हुई कि नही? इस कथा का नायक गरीब किसान है जिसका बेटा बहुराष्ट्रीय कम्पनी में इंजीनियर है तथा उसकी डेढ़ लाख रुपये महीने की पगार है। माँ- बाप ने पढ़ा- लिखाकर बड़ा किया है, उससे दो पैसे की उम्मीद तो की ही जा सकती है। पिता ने अपनी जरूरतों को तिलांजलि देकर बेटे की अपने पैरों पर खड़ा किया। जब बेटा ऊँची नौकरी में लग जाता है, तब पारिवारिक दायित्व का निर्वहन तो भले प्रकार से होना चाहिए; परंतु बेटे का दो टूक उत्तर सुनकर वह निराशा के साथ चिंतित भी हो जाता है कि उसका इंजीनियर बबुआ कड़की में जीवन काट रहा है। अपना पेट पालना तो उसे आता है, नोन-चटनी से रोटी खाकर साल निकाला जा सकता है, परंतु अपने बबुआ का दुख नहीं देखा जा सकता। वह निर्णय लेता है कि इस बार जो अरहर और चना की फसल आई है उसे बेचकर शहर में बेटे को दे आए। “इंजीनियर बबुआ का तंगी में रहना ठीक नही है।”
पिता हर हाल में बेटे की सहायता करने तैयार रहता है, परंतु बेटा उन दिनों को भूल जाता है तथा अपने पिता की मजबूरी को समझने की कोशिश नहीं करता है। कथा भावनाओं की है, पिता को अपना बेटा वही छुटका दिखता है जिसकी हर जरूरत की पूर्ति हर हाल में करता रहा, परंतु बेटा शहर जा कर चमक-दमक में खो गया।
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1-ऊँचाई:रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी- “लगता है, बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था! अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घरवालों का कहाँ से भरोगे?”
मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफ़र की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज़्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाते वक़्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबूजी को भी अभी आना था।
घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र। “सुनो”- कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोकर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।
वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर भी फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोज़ो है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”
उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ बढ़ा दिए, “रख लो। तुम्हारे काम आएँगे। धान की फसल अच्छी हो गई थी। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”
मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फंसकर रह गये हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा, “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”
“नहीं तो।” मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर अठन्नी टिका देते थे, पर तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।
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2-इंजीनियर बबुआ : कान्ता रॉय
शरबतिया बार बार चिंता से दरवाजे पर झाँक, दूर तक रास्ते को निहार उतरे हुए चेहरे लेकर कमरे में वापस लौट आती। कई घंटे हो गये रामदीन अभी तक नहीं लौटा है।
गाँव के पोस्ट ऑफिस में फोन है जहाँ से वह कभी- कभार शहर में बेटे को फोन किया करता है। इतना वक्त तो कभी नहीं लगाया।
खिन्नहृदय लिये रामदीन जैसे ही अंदर आया कि शरबतिया के जान में जान आई।
“आज इतना देर कहाँ लग गया, कैसे हैं बेटवा- बहू, सब ठीक तो है ना?”
“हाँ, ठीक ही है!”
“बुझे बुझे से क्यों कह रहें हैं?”
“अरे भागवान, ऊ को का होगा, सब ठीक ही है!”
“तुम रुपये भेजने को बोले ऊ से?”
“हाँ, बोले।”
“चलो अच्छा हुआ, बेटवा सब सम्भाल ही लेगा, अब कोई चिंता नहीं!”
“अरे भागवान, उसने मना कर दिया है, बोला एक भी रुपया हाथ में नहीं है, हाथ खाली है उसका भी।”
“क्याss….! हाथ खाली…वो भला क्यों होगा, पिछली बार जब आय रहा तो बताय रहा कि डेढ़ लाख रुपया महीने की पगार है। विदेशी कम्पनी में बहुत बड़ा इंजीनियर है, तो बड़ी पगार तो होना ही है ना!”
“बड़ी पगार है, तो खर्चे भी बड़े हैं, कह रहा था कि मकान का लोन, गाड़ी का लोन और बाकी होटल,सिनेमा और कपड़ा-लत्ता की खरीददारी जो करता है, ऊ क्रेडिट कॉर्ड से, उसका भी व्याज देना पड़ता है, इसलिए हाथ तंग ही रहता है।”
“बबुआ तो सच में तंगहाली में गुजारा करता है जी!”
“हाँ, भागवान, सुनकर तो मेरा दिल ही डूब गया। सोचे थे कि अपनी बेटी नहीं है, तो भाँजी की शादी में मदद कर बेटी के कन्यादान का सुख ले लेंगे, बबुआ कन्यादान का खर्च उठा लेता जो जरा! लेकिन उसको तो खुद के खाने पर लाले हैं।”
“सुनिए, भाँजी के लिए हम कुछ और सोच लेंगे, पिछली साल गाय ने जो बछिया जना था उसको बेचकर व्याह में लगा देते हैं।”
“हाँ, सही कहा तुमने, क्या हुआ एक दो साल दूध-दही नहीं खाएँगे तो! बछिया बेचकर कन्यादान ले लेते हैं।”
“एक बात और है।”
“अब और क्या?”
“इस बार जो अरहर और चना की फसल आई है, उसको बेच कर बेटवा को शहर दे आओ, उसका तंगी में रहना ठीक नहीं, हम दोनों का क्या है, इस साल चटनी- रोटी खाकर गुजारा कर लेंगे, फिर अगली फसल तो हाथ में रहेगी ही!”
“हाँ, सही कह रही हो, मैं अभी बनिया से बात करके आता हूँ, इंजीनियर बबुआ का तंगी में रहना ठीक नहीं है।”
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