Quantcast
Channel: लघुकथा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

हिन्दी लघुकथाओं में व्यंग्य-चित्रण

$
0
0

हिंदी-साहित्य में अन्य विधाओं की भांति व्यंग्य भी एक स्वतंत्र विधा तो है ही, इसी के साथ व्यंग्य, साहित्य में एक रस की भूमिका का भी निर्वाह करता है । यह नाटक में मिला तो नाटक व्यंग्यात्मक नाटक बन जाता है, इसी प्रकार कहानी, गीत, कविता, गजल इत्यादि के साथ-साथ लघुकथा में व्यंग्य रस मिल जाने से व्यंग्यात्मक लघुकथा बन जाती है । 

पिछली शताब्दी के आठवें दशक में लघुकथाकारों के दो दलों के मध्य एक विवाद उभरा था कि जिस लघुआकारीय कथात्मक विधा में व्यंग्य नहीं होगा, वह   लघुकहानी  तथा जिस लघुआकारीय कथात्मक विधा में व्यंग्य होगा, वह  लघुकथा  कहलाएगी । यह विवाद अनेक वर्षों तक चला, किंतु होशंगाबाद ( मध्यप्रदेश ) में हुए सम्मेलन में यह विवाद समाप्त कर दिया गया और यह तय किया गया कि कोई भी लघुआकारीय कथात्मक विधा उसमें व्यंग्य हो, न हो, लघुकथा कहलाएगी । यहां यह जान लेना अप्रासंगिक न होगा कि वस्तुत  व्यंग्य  क्या है? मानव चरित्र की दुर्बलताओं की अपेक्षात्मक आलोचना  व्यंग्य  कहलाती है । व्यंग्य मूलत : विशेषण है, जिसका अर्थ है –  शब्द का व्यंजन वृति द्वारा प्रकट करने वाला गूढ़ और छिपा हुआ अर्थ । इस परिभाषा को ध्यान में रखकर इस विधा का साहित्य में सटीक उपयोग किया जाता है ।

शुरुआती दौर में सृजित प्रायः लघुकथाओं में व्यंग्य अनिवार्य रूप से शामिल किया जाता था, किंतु सन 1986 के आसपास क्रमशः व्यंग्य वाली शर्त समाप्त हो गई और स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा करती कथात्मक विधा लघुकथा के रूप में स्थापित हो गई, उसमें व्यंग्य हो, न हो इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता था । यदि कथानक की माँग हो तो व्यंग्य आ भी सकता है, जैसे अन्य विधाओं में स्वाभाविक रूप से आए व्यंग्य का स्वागत होता है, वैसे ही लघुकथा में भी होने लगा । वैसे अब यह लघुकथा की अनिवार्यता नहीं रह गया था । 

इस आलेख में हमने कुछेक वैसी लघुकथाओं का चयन किया है, जिनमें व्यंग्य के चित्रण से लघुकथा श्रेष्ठ बन गई या यों कहें जिन लघुकथाओं में कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति हेतु व्यंग्य का चित्रण अपरिहार्य हो गया था । 

इस क्रम में सर्वप्रथम श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा  मरुस्थल के वासी  की चर्चा करना चाहूँगा । 

गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा,  इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें। मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।  हम सब तो हफ्ते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं।  भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा। मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले,  जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता। मंत्रीजी चलने लगे तो जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों। उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा,  अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो। 

थोड़ी झिझक के साथ एक बुजुर्ग बोला,  साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ?

इतना सटीक व्यंग्य जो हृदय की गहराइयों में जाकर सोचने को विवश कर देता है । 

1980 के दशक में लघुकथा आंदोलन के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने व्यंग्य का चित्रण करती अनेक लघुकथाएँ लिखी है, उनमें  अपाहिज  लघुकथा अपना विशेष महत्त्व रखती है । यह लघुकथा मात्र 7 पंक्तियों की है, जो सर्वप्रथम कमलेश्वर के संपादन में प्रकाशित गंगा मासिक पत्रिका के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई थी । इस लघुकथा में नायक अपने पिता से अपनी शादी करने की बात करता है । पिता कहता है – अपने पैरों पर तो खड़े हो जाओ । उत्तर में बेटा कहता है-  अगर मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका हूँ तो क्या हुआ, वह तो अपने पैरों पर खड़ी है ।

ऐसा चुभता व्यंग्य, जिसे लघुकथा के शीर्षक ने और अधिक प्रभावी बना दिया है । 

रामेश्वर काम्बोज  ‘हिमांशु’  लघुकथा- जगत् के एक विशिष्ट हस्ताक्षर के रूप में स्थापित हैं । इन्होंने अनेक प्रकार की लघुकथाओं के साथ-साथ व्यंग्य चित्रण करती अनेक लघुकथाएँ भी लिखी हैं, उनमें एक लघुकथा  विजय जुलूस  भी है ।  विजय जुलूस  में सटीक व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान राजनीतिज्ञों पर चोट की गई है कि उनकी दृष्टि में मात्र उनका अपना स्वार्थ है बाकी देश के लिए हुए शहीद या योद्धाओं का कोई अर्थ नहीं है । सुंदर एवं सुशिल्पित इस लघुकथा का शीर्षक भी इस व्यंग्य को प्रत्यक्ष करने में पूरी तरह सहायक है । 

इसी क्रम में रमेश बतरा की चर्चित लघुकथा  सूअर  की चर्चा समीचीन है । इसमें व्यंग्य की कितनी पैनी धार है, देखें-  वे हो–हल्ला करते एक पुरानी हवेली में जा पहुँचे। हवेली के हाते में सभी घरों के दरवाजे बंद थे। सिर्फ एक कमरे का दरवाजा खुला था। सब दो–दो, तीन–तीन में बँटकर दरवाजे तोड़ने लगे और उनमें से दो जने उस खुले कमरे में घुस गए।

कमरे में एक ट्रांजिस्टर होले–होले बज रहा था और एक आदमी खाट पर सोया हुआ था।

‘‘यह कौन है?’’ एक ने दूसरे से पूछा।

‘‘मालूम नहीं,’’ दूसरा बोला, ‘‘कभी दिखाई नहीं दिया मोहल्ले में।’’

‘‘कोई भी हो,’’ पहला ट्रांजिस्टर समेटता हुआ बोला, ‘‘टीप दो गला!’’

‘‘अबे, कहीं अपनी जाति का न हो?’’

‘‘पूछ लेते हैं इसी से।’’ कहते–कहते उसने उसे जगा दिया।

‘‘कौन हो तुम?’’

वह आँखें मलता नींद में ही बोला, ‘‘तुम कौन हो?’’

‘‘सवाल–जवाब मत करो। जल्दी बताओ वरना मारे जाओगे।’’

‘‘क्यों मारा जाऊँगा?’’

‘‘शहर में दंगा हो गया है।’’

‘‘क्यों.. कैसे?’’

‘‘मस्जिद में सूअर घुस आया।’’

‘‘तो नींद क्यों खराब करते हो भाई ! रात की पाली में कारखाने जाना है।’’ वह करवट लेकर फिर से सोता हुआ बोला, ‘‘यहाँ क्या कर रहे हो?…जाकर सूअर को मारो न !’’

इससे सटीक व्यंग्य भला और क्या हो सकता है? 

इसी प्रकार, लघुकथा को विकास देने में जो महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं, उनमें एक नाम सुकेश साहनी का भी है । उनकी व्यंग्य प्रधान अनेक लघुकथाएँ हैं, इनमें लघुकथा  तोता  व्यंग चित्रण के कारण पाठकों के बीच काफी चर्चित रही है । तोते को माध्यम बनाकर रचनाकार ने प्रशासन पर सांप्रदायिक मामले में गहरा प्रहार किया है । इस लघुकथा की गति पर अंतिम पंक्तियाँ व्यंग्य चित्रण को भरने में अहम भूमिका का निर्वाह करती है ।  जिलाधिकारी ने युद्ध स्तर पर तोतों का पोस्टमार्टम कराया जिससे यह तो पता चल गया कि मृत्यु कैसे हुई है परंतु तोता हिंदू या मुसलमान के रूप में पहचान नहीं हो पाई ।

उनकी एक और लघुकथा  प्रतिमाएँ  भी इस लिहाज से उत्कृष्ट उदाहरण है –  उनका काफिला जैसे ही बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के नजदीक पहुंचा,भीड़ ने उनको घेर लिया। उन नंग–धड़ंग अस्थिपंजर–से लोगों के चेहरे गुस्से से तमतमा रहे थे। भीड़ का नेतृत्व कर रहा युवक मुट्ठियाँ हवा में लहराते हुए चीख रहा था, ‘‘मुख्यमंत्री…. मुर्दाबाद! रोटी, कपड़ा दे न सके जो, वो सरकार निकम्मी है! प्रधानमंत्री!….हाय! हाय!’’ मुख्यमंत्री ने जलती हुई नजरों से वहां के जिलाधिकारी को देखा आनन– फानन में प्रधानमंत्री के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के हवाई निरीक्षण के लिए हेलिकॉप्टर का प्रबन्ध कर दिया गया। स्थिति संभालने के लिए मुख्यमंत्री वहीं रुक गए।

हवाई निरीक्षण से लौटने पर प्रधानमंत्री दंग रह गए। अब वहां असीम शांति छाई हुई थी। भीड़ का नेतृत्व कर रहे युवक की विशाल प्रतिमा चौराहे के बीचोंबीच लगा दी गई थी। प्रतिमा की आँखें बंद थीं, होंठ भिंचे हुए थे और कान असामान्य रूप से छोटे थे। अपनी मूर्ति के नीचे वह लगभग उसी मुद्रा में खड़ा हुआ था। नंग–धडंग लोगों की भीड़ उस प्रतिमा के पीछे एक कतार के रूप में इस तरह खड़ी हुई थी मानो अपनी बारी की प्रतीक्षा में हो। उनके रुग्ण चेहरों पर अभी भी असमंजस के भाव थे।

प्रधानमंत्री सोच में पड़ गए थे। जब से उन्होंने इस प्रदेश की धरती पर कदम रखा था, जगह–जगह स्थानीय नेताओं की आदमकद प्रतिमाएँ देखकर हैरान थे। सभी प्रतिमाओं की स्थापना एवं अनावरण मुख्यमंत्री के कर कमलों से किए जाने की बात मोटे–मोटे अक्षरों में शिलालेखों पर खुदी हुई थी। तब वे लाख माथापच्ची के बावजूद इन प्रतिमाओं का रहस्य नहीं समझ पाए थे, पर अब इस घटना के बाद प्रतिमाओं को स्थापित करने के पीछे का मकसद एकदम स्पष्ट हो गया था। राजधानी लौटते हुए प्रधानमंत्री बहुत चिंतित दिखाई दे रहे थे।

दो घंटे बाद ही मुख्यमंत्री को देश की राजधानी से सूचित किया गया–‘‘ आपको जानकर हर्ष होगा कि पार्टी ने देश के सबसे महत्त्वपूर्ण एवं विशाल प्रदेश की राजधानी में आपकी भव्य, विशालकाय प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया है। प्रतिमा का अनावरण पार्टी–अध्यक्ष एवं देश के प्रधानमंत्री के कर–कमलों से किया जाएगा। बधाई! ’’ 

घनश्याम अग्रवाल व्यंग्यपरक लघुकथा लिखने वाले अग्रणी लघुकथाकारों में एक हैं । उनकी चर्चित लघुकथा  दारूबंदी  देखी जा सकती है ।  

मंत्री जी चाहते हैं कि केंद्र ने इस वर्ष शराबबंदी वर्ष मनाने की योजना बनाई है, इसके लिए वह अनुदान भी देगी किंतु उनका सचिव कहता है कि हमारे बजट में कुल 15 करोड़ ही है । और खर्च होगा 20 करोड़ । यह पांच करोड़ रुपए कहां से आएँगे । मंत्री जी कहते हैं-  तुम इसकी चिंता मत करो, जैसा कहता हूँ वैसा करो ।  दूसरे दिन मद्य विभाग से 10 करोड़ के नए शराब करों और नए शराब कारखानों के लिए लाइसेंस जारी कर दिए गए ।

इस लघुकथा में व्यंग्य की धार देने में शीर्षक अपना औचित्य सिद्ध करता ही है, इसका कथानक भी अपने भीतर तिलमिलाए व्यंग्य लिए हुए हैं ।

इसमें संदेह नहीं कि यदि सही स्थान पर सटीक व्यंग्य का उपयोग किया जाए तो निसंदेह रचना उत्कृष्ट बन जाती है और वह अपना वांछित प्रभाव छोड़ जाती है । 

सदी के अंतिम दशक में डॉ परमेश्वर गोयल की एक लघुकथा  बीमारी  बहुत चर्चित रही है । कारण- उसमें बेरोजगारी की

समस्या पर तिलमिला देने वाले व्यंग्य था । जब एक व्यक्ति एक रिक्शेवाले से पूछता है कि तेरा लड़का किस वर्ग में पढ़ता है । तो उत्तर में वह कहता है कि मैंने उन्हें इस बीमारी से दूर रखा है । फिर आगे और पूछने पर वह कहता है –  वह पढ़ कर क्या करेगा ? बेकारों की फौज में बढ़ोतरी करेगा, यही ना ? लड़के, निरक्षर रहकर रिक्शा चला लेंगे, कम से कम अपना और अपने परिवार का पेट भर लेने लायक मजदूरी तो कर लेंगे, मां-बाप पर बोझ नहीं बनेंगे । 

एक छोटी सी लघुकथा में बेरोजगारी जैसी समस्या पर इससे सुंदर और सार्थक व्यंग्य और क्या होगा ?

ऐसी ही सटीक व्यंग्यपरक लघुकथा का उदाहरण है कमल चोपड़ा की लघुकथा हाथी। इस लघुकथा में लेखक ने व्यंग्य के माध्यम से यह स्पष्ट करना चाहा है कि आप जब दूसरों पर कीचड़ उछालोगे तो उसके छींटे आप पर भी आएँगे ही । नायिका तेज गाड़ी चलाते हुए बेटे को खुश करना चाहती है और कीचड़ से गाड़ी गुजरते हुए बगल से जा रहे व्यक्ति पर जब छींटे पड़ जाते हैं तो वह जोर से हंस पड़ती है । घर आने पर उसे पता चलता है कि आज बर्तन मांजने वाली नहीं आएगी और वह खीज कर खुद बर्तन मांजने लगती है । बर्तन मांजते- मांजते नायिका के मुख पर राख लग जाती है, जिसे देखकर उसका बेटा हंस देता है । 

यहां इस बात को भी समझना आवश्यक है कि व्यंग्य उसी लघुकथा को गुणवत्ता प्रदान कर पाता है, जिसमें उसकी स्वाभाविक रूप से आवश्यकता हो । इस प्रकार की लघुकथाओं में भगवान वैद्य ‘ प्रखर ‘ की एक लघुकथा  व्यवहार  महत्त्वपूर्ण है । इस लघुकथा में व्यंग्य की चोट करता यह समापन वाक्य महत्त्वपूर्ण है – जी, हमने तो व्यावहारिक तरीके से काम लिया पुलिस के मार्फत जाने के बजाए सीधे चोरों से ही संपर्क कर लिया।  तात्पर्य यह है कि पुलिस भी चोरों से कम नहीं, यदि पुलिस के मार्फत आते तो पुलिस को भी घूस देनी पड़ती । पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार पर व्यंग्यात्मक प्रहार करती यह एक श्रेष्ठ लघुकथा है ।  

लघुकथा में व्यंग्य चित्रण करने वालों में राजेंद्र मोहन त्रिवेदी ‘ बंधु ‘ भी एक पांक्तेय लेखक हैं । इन्होंने भी पर्याप्त मात्रा में व्यंग्य चित्रण करती अनेक अनेक लघुकथाएँ लिखी है, किंतु उनमें इनकी  सवारी  लघुकथा का जवाब नहीं । यह लघुकथा पुलिसिया भ्रष्टाचार को व्यंग्य चित्रण के माध्यम से बहुत ही करीने से प्रत्यक्ष करती है । लघुकथा की इन पंक्तियों पर गौर किया जा सकता है-  चालक ने प्रार्थना भरे लहजे में कहा,  सिपाही जी ! आप ही लोगों का कहना है कि चालक के बगल में सवारी बिठाना जुर्म है और अब आप ही…

 चालक के पीठ पर डंडा जमाते हुए सिपाही दहाड़ा ,  हरामजादे, तुम्हें मैं सवारी दिखाई देता हूँ ।  

इसमें कोई संदेह नहीं कि लघुकथा को पाठकों के मध्य लोकप्रिय बनाने में व्यंग्य चित्रण की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । व्यंग्य कभी तो हंसाता है और कभी चौंकता है किंतु पढ़ लेने के बाद कहीं गहरे हृदय में जाकर इस कदर तिलमिला देता है कि पाठक उस विषय पर सोचने- विचारने के लिए विवश हो जाता है । वस्तुतः व्यंग्य चित्रण की यही तो विशेषता है । 

सुरेंद्र शर्मा भी लघुकथा जगत के एक उल्लेखनीय हस्ताक्षर रहे हैं । उन्होंने भी शताधिक लघुकथाएँ लिखी हैं, जिसमें अनेक व्यंग्य चित्रण करती लघुकथाएँ भी है । उनमें  उनके न होने से  काफी महत्त्वपूर्ण लघुकथा है । 

इस लघुकथा में एक व्यक्ति अपने गांव का परिचय देते हुए कहता है कि हमारा गांव ऐसा है यहां आज तक कभी कोई अपराध या अन्य किसी प्रकार का आपसी झगड़ा- झंझट नहीं हुआ । अपने गांव के विषय में वक्ता और कुछ बताता कि बीच में ही बात काट कर एक व्यक्ति पूछता है – क्या इस गांव में एक भी नेता नहीं है ।  यही वाक्य इस रचना को व्यंग्यपरक लघुकथा बना देता है । यह व्यंग्य-चित्रण करता वाक्य पूरी नेता-जाति पर विचार करने को बाध्य कर जाता है । यह एक सच्चाई है कि नेता कोई भी हो किसी भी जाति का हो (अपवाद छोड़कर ) अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु अंग्रेजों की तरह  डिवाइड एँड रूल  वाला सूत्र लागू करते हुए कुर्सी प्राप्ति के लिए लगा रहता है । 

डॉ शंकर पुणतांबेकर व्यंग्य एवं लघुकथा में ऐसा बड़ा नाम हैं, जिनकी चर्चा के बिना लघुकथा में व्यंग्य चित्रण की बात ही पूरी नहीं हो सकती । इनकी प्राय: सभी लघुकथाओं में व्यंग्य चित्रण देखने को मिलता है । इनकी एक लघुकथा  चुनाव  बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इस लघुकथा में प्रिंसिपल के समक्ष दो इंस्पेक्टर यानी एक स्कूल इंस्पेक्टर और दूसरा पुलिस इंस्पेक्टर में चुनाव करना है यानी वह किसकी बात माने । स्कूल इंस्पेक्टर की बात नहीं मानने पर वह प्रिंसिपल पर उखड़ जाते हैं  क्या तू भूल गया कि मैंने तुम्हें अपने काम की पहले याद दिला दी थी ?   भूला तो नहीं श्रीमान ! प्रिंसिपल ने शांत स्वर में कहा,  पर आपकी तरह पुलिस इंस्पेक्टर ने भी अपने काम की याद दिलाई थी । ऐसी दशा में मेरे सामने बड़ा सवाल खड़ा हुआ कि मुझे बच्चों का नतीजा नहीं, खुद अपना भी नतीजा तैयार करना है ।

 अपना भी नतीजा ! क्या बकते हो ?

 बक नहीं रहा श्रीमान! मुझे अपना ही नतीजा तैयार करना था कि रोटी और प्राणों के बीच किसे चुनूँ और मैंने प्राणों को चुना।

इस लघुकथा में एक साथ पुलिस और शिक्षा जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार पर व्यंग्य कसा गया है, यानी एक तीर में दो शिकार डॉ. पुणतांबेकर ने कर दिए । हर व्यक्ति को रोटी से यानी करियर से अधिक प्राण प्यारी होती है, जिंदगी रहेगी तो करियर भी बन जाएगा । 

लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षरों में एक अशोक भाटिया की चर्चित लघुकथा  स्त्री कुछ नहीं करती!  में व्यंग्य की चुभन गहरे रूप से महसूस किया जा सकता है । पंक्तियों पर गौर करें-  वह सबेरे सबसे पहले पांच बजे उठी, भैंस को चारा देकर जंगल-पानी गई, फिर आकर पति और सास-ससुर को चाय पिलाई, फिर भैंस को दुहने के बाद नहलाया, फिर उसका गोबर उठाकर उपले पाथने ले गई, फिर आकर आटा गूंथा, सब्जी-रोटी बनाई, फिर दोनों बच्चों को उठाया-नहलाया और खिला-पिलाकर स्कूल के लिए तैयार किया, फिर दही बिलोई, फिर सास-ससुर और पति को नाश्ता कराया, फिर सबके जूठे बर्तन साफ़ किए, फिर खुद नाश्ता किया, फिर भैंस को चारा दिया, फिर घर में झाड़ू-पोंछा लगाया, फिर कपड़े धोने चली गई, फिर नहाकर दोपहर की रोटी बनाई और खिलाई, फिर खेत में गुड़ाई करने गई, वापसी में भैंस के लिए सिर पर चारा लेकर आई, आकर खाना बनाया और बच्चों व सास-ससुर को खिलाया, फिर से बर्तन साफ़ किए, फिर सबको गर्म दूध पिलाया, बच्चों को सुलाया, फिर चौपाल में ताश खेलने के बाद शराब पीकर आ धमके डगमगाते पति को संभाला, उसकी गालियाँ सुनीं, उसे खाना खिलाकर चैन की नींद सुलाया, फिर सन्नाटे में बचा-खुचा खाया और थकान के साथ सो गई…

फिर सवेरे सबसे पहले पाँच बजे उठी…..  पाठक जैसे- जैसे लघुकथा से गुजरता है, पंक्तियों में छुपी व्यंग्य की पैनी धार की चुभन महसूस करता है । लघुकथा का शीर्षक यह कार्य और भी आसान बना देता है । 

और अब अंत में नई सदी की चर्चित लघुकथाकार कल्पना भट्ट की एक उल्लेखनीय लघुकथा  विकसित दुम  की चर्चा अनिवार्य प्रतीत होती है । कल्पना अपनी पीढ़ी की प्रतिभा संपन्न लघुकथा लेखिका है, जिनकी लघुकथाओं में विषय वैविध्य पर्याप्त मात्रा में देखा जाता है । इनकी लघुकथाओं में व्यंग्य चित्रण करती बहुत लघुकथाएँ तो नहीं है, किंतु जो हैं, वो बहुत ही उत्कृष्ट हैं । इनमें  मूक श्रोता  और  विकसित दुम  उल्लेखनीय हैं । यहाँ मैं  विकसित दुम की चर्चा करना चाहता हूँ । 

 विकसित दुम के पात्र मानव नहीं कुत्ते हैं । एक पालतू है और शेष गली के हैं । दोनों अपने-अपने दुख- सुख की चर्चा करते हैं किंतु अंत में बूढ़ा कुत्ता आगे आता है और गली वाले कुत्तों से कहता है- किस्मत से अलग एक और बात है, जो तुम्हारे पास है। वो क्या है ? इससे पहले कि बूढ़ा कुत्ता कुछ बोलता, झबरे कुत्ते का मालिक वहां से गुजरा और झबरे का प्यार मालिक के लिए उमड़ पड़ा ।

अनायास ही आवारा कुत्तों के चेहरे पर मुस्कान फैल गई, उन्हें जवाब मिल चुका था । 

यानी गली के कुत्तों के पास प्रत्येक प्रकार की स्वतंत्रता थी, जबकि झबरे के पास बंधन और विवशता । स्वतंत्रता और परतंत्रता का अंतर स्पष्ट करती व्यंग्य प्रधान यह लघुकथा असाधारण रचना है ।

व्यंग्य- चित्रण करती कतिपय प्रतिनिधि लघुकथाएँ जो मुझे अपने लेख हेतु उचित लगीं, का चुनाव करते हुए लघुकथा में व्यंग्य के चित्रण को रेखांकित करती लघुकथाओं पर प्रकाश डाला और यह प्रयास किया । यह सही है कि प्रत्येक लघुकथा में व्यंग्य अनिवार्य रूप से आए यह जरूरी नहीं है किंतु कथ्य एवं कथानक की मांग पर यदि आता है तो वह व्यंग्य-चित्रण लघुकथा को ऊंचाइयाँ प्रदान कर जाता है, जैसा कि उपर्युक्त लघुकथाओं में मैंने रेखांकित करने का सत् प्रयास किया है । 

यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मैंने जितनी लघुकथाओं को अपने लेख हेतु चुना मात्र उतनी ही व्यंग्य-चित्रण करती लघुकथाएँ नहीं है, जिनमें व्यंग्य- चित्रण किया गया है । इन लघुकथाओं के अतिरिक्त अन्य अनेक-अनेक लघुकथाएँ ऐसी हैं जिनकी चर्चा यहां हो सकती थी किंतु मेरे लेख एवं मेरे अध्ययन दोनों की अपनी-अपनी सीमाएँ हैं । अनेक लघुकथाकार हैं, जिन्होंने व्यंग्य- चित्रण करती लघुकथाएँ लिखकर लघुकथा के विकास में उल्लेखनीय योगदान किया है । 

वस्तुत: आज भी नए विषयों को लेकर चित्रण करती लघुकथाएँ लिखी जानी चाहिए ताकि यह स्वस्थ परंपरा क्रमश: विकसित होती रहे होती रहे और इसी प्रकार लघुकथा अपनी विकास- यात्रा करती चले । 

-0-डॉ ध्रुव कुमार ,महासचिव, अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच, व्योम, पी डी लेन, महेंद्रू पटना-800006

9304455515


Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>