अनुवादकःडॉ. कविता भट्ट
ससुरा क नौं आयूं तार ब्वारी न ली क पौड़ी दे। तार बतलान्दू कि ऊंकू फौजी बाँका बहादुरी से लड़ी अर लड़दी बगत मोरी ग्याई … देसौ खुणी सईद ह्वे ग्याई।
“सुख त छैं चा ना ब्वारी!” वीं का अनपढ़ ससुरा न पूछी, “क्य लिख्यूं च?”
“लिख्यूं चा, ईं बार सदानी की तराँ यूँ दिनु नि ए सकदु।”
‘‘हौर कुछ नि चा लिख्यूं?” सासू बी अगनै आई।
“लिख्यूं चा, हम जितणा छाँ। उमेद चा लडै जल्दी खतम ह्वे जाली…”
“तेरा वास्ता क्य लिख्यूं च?” सासू न मजाक कै।
“कुछ ना।” बोलिक वा माणा सरमै कि अपड़ा कमरै की तरफाँ भागी गे।
ब्वारी न भितरा का द्वार आज ठीक उन्नी ढंग से बन्द कैरी, जन सदानी वीं कु ‘फौजी’ करदु छौ। वा मुड़ी, त वीं का आँखा चूंणा छा। वीं न एक पूरे नजर भितर की सब्बी चिज्यों पर डाळलि, माणा सब कुछ पैली बार देखण लगी हो… अब कु-कु चीज़ कामै की नि रैन … सोचदि-सोचदु वींकी नजर पलंग क सामणा वाळलि पाळ पर टँकि बन्दूकी पर अटकि गे। घड़ीएक खड़ी ह्वे कि वा देखणी रै। फीर वीं न बन्दूक पाळ परन उतारी दे। वीं थैं खूब साफ करिक अलमारी तरफाँ बढ़ी गे। अलमारी खोलिक वींन एक छोटी-सी अटैची निकाळलि अर अपड़ा पैर्यां झुल्ला उतारिक अटैची म धैरीन अर वु कपड़ों कि जोड़ी पैरी, जैमा फौजी न वीं थैं पैली बार देखी छौ, लाड करी छौ।
बण- ठणी क वींन पलंग माँ धरीं बन्दूक उठाई। फिर पोड़ी ग्याई अर बन्दूक थैं बगल म पड़ालिक वीं कि भुक्की पे-पे कि से ग्याई।
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