
कमल चोपड़ा के लघुकथा- संग्रह ‘बाहर निकली औरत’ में कुल सत्तर लघुकथाएँ संगृहीत हैं, जो 1985 से 2020 तक हंस, सारिका, कथादेश, कथाक्रम, गगनांचल, संरचना, समावर्तन, नया ज्ञानोदय, हरिगंधा, वीणा, दीप ज्योति, लघुआघात, समकालीन साहित्य, कादम्बिनी, गंगा, लघुकथा कलश, दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक ट्रिब्यून, नव भारत टाइम्स, दैनिक जागरण, जनसत्ता जैसे महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘बाहर निकली औरत’ की लघुकथाओं में कमल चोपड़ा ने भारतीय समाज के फलक पर सभी वर्ग की स्त्री की स्थितियों का आकलन किया है। अपनी नैसर्गिक वृत्ति के कारण स्त्रियां अधिक भावुक और संवेदनशील होती हैं। इस संग्रह की लघुकथाओं में इसे कमल चोपड़ा ने जैसे केन्द्रीय बिन्दु बना दिया हैं इसी कारण उनकी लघुकथाएँ, गहरी मार्मिकता के साथ आत्मीय सम्बन्धों को बुनते हुए पाठक की अनुभूतियों को बाहर ले जाने में सफल हुई हैं और पुरुष वर्चस्व को तोड़कर अपने भीतर उसे उबार लेने का भाव-बीज (इस जमाने में, ऊँचा पद, समानता) लघुकथाओं में मौजूद है।
‘बाहर निकली औरत’ की अधिकतर लघुकथाएँ समाज के दो लिंगों की असमानता प्रकट करती हैं, चाहे वे सामाजिक कुरीतियों का शिकार बनती हों या रिश्तों में शोषण का। ‘बाहर निकली औरत’ के लेखन का शायद यही उद्देश्य है, कि पुरुष औरत की पीड़ादायक भावनाओं को समझे और आत्ममंथन करे।
कमल चोपड़ा स्त्री जीवन की साधारण-सी परिस्थितियों को अपनी लघुकथाओं से विशिष्ट परिस्थितियों में बदलते हैं। इस तरह मामूली परिस्थितियों के बीच जीवन जीती महिला, उनकी लघुकथा में एक विशिष्ट विजन लिए हुए पात्र में तब्दील हो जाती है। वे बेखौफ, बेधडक, रूढ़ियों की परवाह न करने वाली औरते हैं, जो यथास्थिति को बार-बार चुनौती देती हैं और अपने ढंग से बदलने का प्रयास करती हैं। ‘सेफ हैन्ड्स’ की रीमा हो या ‘उऋण’ की बेटी या फिर ‘दर्द की जुबान’ की वीना या ‘आसमान नीचे’ की श्रेया हो, सभी स्त्री की स्वतंत्रता और गरिमा का प्रतिनिधित्व करती नजर आती हैं।
‘‘भरोसा तो करना होगा आगे बढ़ना है तो…! वर्ना खड़े रहो और डरते रहो।’’ (सेफ हैन्ड्स)
गुस्से में भरकर रामपाल की बेटी ने परछत्ती पर रखा लोहे का ट्रंक उतारा और ट्रंक खोलकर एक कपड़े में लिपटी नोटों की गड्डी निकाली और गिनकर रुपये राजसिंह की झोली में फेंकते हुए बोली, ‘‘उठा अपने पीसे और चुपचाप बाहर हो ले।’’ (उऋण)
‘‘… और वह बिना कुछ बोले शर्म, जलालत और अपमान को गले उतारती हुई घर की ओर बढ़ गई।’’ (दर्द की जुबान)
‘‘आज… देख रही हो माँ, आज मैं कितना खुश हूँ? देखा कैसे आज मैंने आसमान को नीचे ला दिया?’’ (आसमान नीचे)
स्त्री के बालमन के भावों को रेखांकित करती लघुकटााओं में ‘विश’, ‘खेल’, ‘खौफ’, ‘फ्रॉक’, प्रमुख हैं।
‘‘रुलाई फूट पड़ी मिंकी की। कपड़ों से टपक रहे पानी की तरह उसकी आँखों से भी पानी टपकने लगा।’’ (विश)
‘‘तुम्हारे साथ खेलते… हैं ना माँ…? जिस तरह मैं लच्छी के घर जाता हूँ खेलने के लिए।’’ (खेल)
‘‘मम्मी, ‘बेटी-बेटी’ तो मुझे बहुत से अंकल कहते हैं। ये बेटी-बेटी कहने वाले इतने खतरनाक होते हैं?’’ (खौफ)
‘‘कल ही बुआ के छोरे के ब्याह खातर नई फ्रॉक खरीदकर दी और आज ही फाड़ के ले आई? मैंने सोचा इससे अच्छा मैं जोहड़ में डूबके मर जाऊँ।’’ (फ्रॉक)
‘बाहर निकली औरत’ की लघुकथा अपनी सत्ता, सच, स्वप्न और डर के प्रति संवेदनशील और जवाबदेह बनी रहती है। इनमें शब्दों के अपने मौन, अपनी मुखरता, अपने एकान्त और अपने साथ को महसूस किया जा सकता है।
‘चंगुल’ शीर्षक की लघुकथा में आजाद कराई गई लड़कियाँ टी.वी. के परदे पर रोते-सुबकते अपने साथ हुए जुल्मों का मुख्तसर-सा बयान कर रही थीं। बीच-बीच में नारी शक्ति की मंजुला मैडम का खिला हुआ चेहरा बार-बार पर्दे पर उभर रहा था।
‘बाहर निकली औरत’ की जिन लघुकथाओं में कमल चोपड़ा ने चिकित्सिय अनुभव के अपने आयामों और अर्थों को विस्तार दिया है उनमें ‘मदर’, ‘प्लान’, ‘ख्याल रखना’, ‘खून’, ‘दासप्रथा’, ‘रोग और रिश्ते’, ‘बर्दाश्त की हद’, और ‘हत्यारों के हाथ’ प्रमुख हैं जिनमें स्त्री पात्र निजी और तनावपूर्ण हारी-बीमारी में जीते नजर आते हैं।
दवाइयों के कुछ पत्ते और कुछ नोट पकड़ाकर डाक्टर ने कहा, ‘‘तुममे खून की बेहद कमी हो गई है। हार्मोंस भी गडबड़ है। अब कुछ वक्त के लिए माँ नहीं बन सकती हो…।’’ (मदर)
‘‘टेंशन, डिप्रेशन, सिरदर्द, घबराहट, बेचैनी, चक्कर और जाने क्या-क्या। कितनी तो बीमारी लगी हुई हैं। सालभर से आठ-नौ गोली रोज खानी पड़ती हैं। (प्लान)
‘‘दवा इंजेक्शन के बावजूद ठीक नहीं हुआ तो एम आर आई कराना पड़ा।’’ (ख्याल रखना)
बैड के पास पड़ी फाइल में लगी रिपोटर्स पर नजर डालते हुए डॉ. सरला ने कहा, ‘‘तुम्हारा हीमोग्लोबिन सिर्फ पाँच है। अंदर बच्चे को आॅक्सीजन की पूरी मात्रा पहुँच नहीं पाती’’। (खून)
डाक्टर केवल तसल्लियाँ ही दे रहे थे, ‘‘कुल्हे की हड्डी टूटी है। जुड़ तो जायेगी, पर उम्र काफी ज्यादा है। ऊपर से शुगर…, ब्लड प्रेशर, एनीमिया…? (दास-प्रथा)
‘‘अस्पताल में लाइनों में लगे बुरी तरह खाँसते, खून उगलते और सूखकर पिंजर बन चुके, टी.बी. के उन मरीजों के ख्याल मात्र से उसकी रूह बार-बार काँप उठती- माँ को तो टी.बी. है ही…’’ (रोग और रिश्ते)
‘‘वह अक्सर चोटें खाकर डॉ. मदान के क्लीनिक पर आती। चोटें लगने का कारण भी हर बार एक ही होता। फिर भी रोते-सिसकते हुए यह बताती कि उसके तो भाग ही फूटे हैं। उसका पति शराबी और जुआरी है।’’ (बर्दाश्त की हद)
डॉ. सरला की आँखे गीली और लाल हो आई थीं ‘‘कुछ दिन बाद खबर आयेगी, बच्ची बीमार हो गयी थी, मर गई। तब कौन जिम्मेदार होगा।’’ (हत्यारों के हाथ)
इन लघुकथाओं में एक तरह का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर है। शायद इस तरह का ह्यूमर हमें त्रासदी के क्षणों को उसके आलोक और अँधेरे में देखने का अवकाश और स्थान प्रदान करता है।
औरत पर मानसिक अत्याचार की कोई सीमा नहीं है। इसका उदाहरण ‘दुराचार’ में एक दंगई से ऊल जलूल बात एक औरत को सुनानी पड़ती है, तो ‘पनाह’ में थाने में शरण लेने का विचार भी औरत को विचलित कर देता है। ‘कुएं में इज्जत’ की तस्लीमा अब इतनी अशुभ और अपवित्र हो गई? कि पति को उसे मारना पड़ा। धर्म हो या समाज पुरुष सत्ता का चेहरा घिनोना ही उभरकर आया है। आँकड़ों में भले ही औरत के सम्मान का उल्लेख होता हो, किन्तु पुरुष सत्ता के अन्दर उसका हाल आज भी वैदिक युग जैसा है। पुस्तक में लघुकथाओं के माध्यम से इस तथ्य को भली भाँति समझा जा सकता है कि कमल चोपड़ा निस्सन्देह विशिष्ठ लघुकथाकार हैं। उनके पास सूक्ष्म दृष्टि है और पैनी भाषा जो समाज की विसंगतियों को देखती, लिखती हैं, जिनमें ‘वैल्यू’, ‘मिनी की सजा’, ‘निशानी’, ‘खुला हुआ बंधुआ’, ‘आप भी’ और ‘बाहर निकली औरत’ हैं।
‘‘पर चाचा! इंसानों में छोरियों की वैल्यू क्यों ना है। छोरियाँ तै बड़ी होके सारा काम करैं हैं। घर का, खेतां का, डांगरा का… अर मर्द तै इधर-उधर हांडते फिरे हैं?’’ (वैल्यू)
‘‘मम्मी, मुझे ही सबसे क्यों डर है? मुझे बाहर जाने दो। मुझे खेलने दो?’’ (मिनी की सजा)
‘‘वो सब तो मैंने रवि की शादी के दस-बारह दिन बाद ही बहू से सबकुछ लेकर अपने लॉकर में रखवा दिया था।’’ (निशानी)
‘‘मैं भी तो चैबीसों घंटों की मुफ्त की नौकर हूँ। रोटी, कपड़े के सिवाय मुझे ही क्या सुख है? मेरा इस्तेमाल… बंधुआ तो मैं हूँ।’’ (खुला हुआ बँधुआ)
‘‘आखिर तो औरत को ही झुकना पड़ता है? अबतो तेरे ससुराल वाले भी माफियाँ माँग रहे हैं। तेरी सास और ससुर की तो जमानत हो गई है, पर पति जेल में बंद है। केस वापस ले लो।’’ (आप भी)
सबकी कहानी एक जैसी नहीं होती। मेरी कहानी बहुत अलग होगी। बाहर निकली तो मैं खुद दूसरो को आश्रय देने लायक बन जाऊँगी। (बाहर निकली औरत)
‘इससे ज्यादा क्या?’, ‘लिव-इन’, ‘बड़ी गाली’, ‘कैद बा-मशक्कत’, ‘एक उसका होना’, ‘सर ऊँचा’, ‘शक्ति’, ‘मजहब’, ‘मायका’, ‘मलबे के ऊपर’, ‘खाली हाथ’, ‘अलफ-तरफ’, ‘माँ-बहन-बेटी और बीवी’, ‘पहले मैं’, ‘छोटा दुःख’, ‘अपना खून’, ‘तोहरा खातिर’, ‘भ्रूण हत्या’, ‘कष्ट चक्र’, ‘भारी नुकसार’, ‘बदला’, ‘छुपा हुआ दर्द’, ‘सहते-सहते’, ‘सुन भगवान’, ‘पत्नी’, ‘बिरादरी’, ‘पालतू’, ‘जो बोझ उठाए’, ‘मायके का मान’, ‘धारणाएँ’, ‘साफ सुथरे’, आदि लघुकथाओं में ऐसे विषय उठाये हैं जो हर-एक के लिए पहचाने हुए है, आस-पास के हैं और बहुत अच्छे से कथ्य में पिरोए हैं।
कमल चोपड़ा की भाषा में सहज़ता है जो पाठक को अपने साथ ले लेती है। भाषा का प्रवाह लघुकथाओं के कथ्य में रोचकता लिए हुए है। फिर चाहे वो सीधे सपाट बयान हों, प्रलाप हो, हँसी ठिठोली हो, या गाली गलौच, या क्रोध सभी में धार बनी हुई है, जो संग्रह को महत्त्वपूर्ण बनाती है। बड़े परिश्रम से लिखी गई ‘बाहर निकली औरत’ की शोधपूर्ण भूमिका में डॉ॰ सुनीता ने स्थापना दी है – ‘‘ये स्त्रियाँ लड्ती, चीखती, चिल्लाती, खटती, भिड़ती, खीझती और निरन्तर जुझती हुई अपने अस्तित्व, गरिमा और अस्मिता को बनाए, बचाए रखने के लिए निरन्तर संघर्षरत हैं।’’
इस स्थापना के परिप्रेक्ष्य में महिला-विमर्श पर नये सिरे से विचार करना चाहिए और इतने सुन्दर ढंग से लघुकथाओं को प्रस्तुत करने के लिए लेखक का आभार मानना चाहिए।
-0-बाहर निकली औरत (लघुकथा-संग्रह ) कमल चोपड़ा, पृष्ठ: 132, मूल्यः 360 रुपये, प्रथम संस्करण-2023 आईएसबीएनः978-93-92889-31-8, प्रकाशक– किताबघर, 4860-62@24, पहली मंजिल अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002