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दो लघुकथाएँ

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मेरी पसंद : महावीर राजी

यह सुखद बात है कि लघुकथा को साहित्य की एक स्वतंत्र विधा के रूप में क्रमशः मान्यता मिल रही है। हालाँकि इस स्वीकृति’ (recognition) की गति अपेक्षा के अनुरूप उत्साहवर्धक नहीं है। मुख्य धारा की बड़ी पत्रिकाओं के संपादकों को अभी भी लघुकथाएँ  पत्रिका में रिक्त (फिजूल की जगह या waste land) स्थान को भरने की हेय सामग्री भर लगती हैं। वे या तो लघुकथा पत्रिका में देते ही नहीं या दया करके एकाध देंगे भी तो कहानी या आलेख के अंतिम पृष्ठ की बची जगह की कंगारू-गोद मे डाल देंगे। ऐसी हालत में लघुकथा डॉट कॉम का उत्कृष्ट सामग्री के साथ नियमित प्रकाशन लघुकथा के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

मेरी पसंद स्तंभ के लिए मैंने जिन दो लघुकथाओं का चयन किया है उनमें पहली है एक बोझा भूख लेखक हैं झारखंड के भाई चित्तरंजन गोप लुकाठी। गोविंदपुर (गोविंदपुर) का शिल्पांचल ! हर दस कदम पर कोक व ईंट भट्ठियों की धुआँती चिमनियाँ। कुछ और अंदर जाएं तो मेंगनियों सी जहां तहां बिखरी  ‘ब्लैक डायमंड’  की खदानें। पूरे परिवेश को जटायु से लंबे डैनों में समेटे घने जंगल व पहाड़ियों की शृंखला ! एक आदिवासी युवती रोज सुबह शाम जंगल मे आती है , सूखी लकड़ियों को बटोर कर उनका बोझा बनाती है और उसे बस्ती में बेच कर माँ- बाबा और खुद के लिए भात जुटाती है। जंगल से लौटते हुए उसे एक दिन तीन मनचले राह में दबोच लेते हैं और बारी बारी से बलात्कार करते हैं। काम  के बाद युवती को बलात्कृत होकर कौमार्य खोने की ग्लानि या पीड़ा नहीं कचोटती, अपितु अपनी  निरीह आँखें फाड़कर सबसे पहले बोझा ढूँढती हैं। बोझा नदारद ! युवती हाथ जोड़कर जार जार रोती मनचलों से विनती करती है कि बोझा उसे लौटा दें, नहीं तो आज भात नहीं जुट सकेगा और माँ बाबा भूखे रह जाएँगे। मनचलों के यह कहने पर कि कसम खा कि ये बात किसी से नहीं कहेगी, तो युवती झट से बोझा की कसम खा लेती है। कथा का अंत किस अद्भुत उठान से किया गया है कि एकबारगी पाठक सन्न रह जाता है।। युवती के लिए सबसे ज्यादा कीमती चीज बोझा है। अदिवासियों की निश्छलता व भूख के लिए संघर्ष की पराकाष्ठा शानदार तरीके से चित्रित हुई है। लेखक की भाषा भी मोहित करती है। ‘बोझे में भूख बंधी होती, लकड़ियाँ नहीं’ वाक्य में क्या ही सुंदर रूपक पिरोया गया है।

दूसरी लघुकथा है मार्टिन जॉन की डिलीट होते रिश्ते । नई सदी में सूचना प्रद्योगिकी व सोशल मीडिया में खूब क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। इस क्रांति ने हमें सुविधासम्पन्न बनाया। पर इस सुविधा ने हमसे हमारी तरल संवेदना और संवादशीलता छीन ली। हम घर परिवार, दिन दुनिया व रिश्तों की सांद्रता से विमुख होकर आत्मकेंद्रित होते जा रहे। कथा में पति पत्नी एक ही रूम में आसपास बैठे हैं और दोनों अपने अपने मोबाइल से चैट में मदहोश हैं। तभी दरवाजे की कॉल बेल बजती है। पति- पत्नी खीजकर एक दूसरे की ओर निहारते हैं। निहार में एक दूसरे से दरवाजा खोल आने का मौन आग्रह है। कोई भी चैट नहीं छोड़ना चाहता। अंत मे पति नौकर को आदेश देता है कि दरवाजा खोले और बाहर जो कोई भी है उसे यह कहकर कि घर पर कोई नहीं है, लौटा दे। लघुकथा की मारक क्षमता को आप लघुकथा को पढ़कर ही महसूस सकते हैं। सोशल मीडिया पर अतिव्यस्तता से उपजे बेहद अमानवीयकरण की स्थिति का सजीव चित्रण ! मार्टिन साहब की भाषा भी पात्रों के अनुकूल प्रांजल व मोहक है।

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 1-एक बोझा भूख/चित्तरंजन गोप लुकाठी।

  वह दोनों बेला जंगल जाती।

 सुबह बासी भात खाकर निकलती। लकड़ियाँ काटती और उसका एक ‘बोझा’ बनाती। जरूरत के अनुसार, बोझे का आकार बनता। यानी जैसी भूख, वैसा बोझा ! दूसरे शब्दों में, बोझा भूख का समानुपाती होता था। सीधे शब्दों में, बोझे में भूख बँधी होती थी न कि लकड़ियाँ ! अब उसे माथे पर लादकर, वह सीधे बाजार चल देती। उसे बेचकर… राशन-पानी खरीदकर… घर आती। भात बनाकर माँ – बाबा को खिलाती। कुछ देर आराम करती। शाम को एक बार पुनः नजदीक के जंगल में जाती और घरेलू उपयोग के लिए कुछ सूखी लकड़ियाँ ले आती।

  यद्यपि उसके शरीर का रंग दबा हुआ था परंतु सुंदरता में कोई कमी नहीं थी। यौवन अपने प्राकृतिक स्वरूप में जाज्वल्यमान था। उस पर आँखों का अटकना स्वाभाविक था, परंतु उन मनचलों की आँखें तो उसके शरीर को तीर-सा बींध-बींधकर क्षत-विक्षत करने के लिए आतुर थीं। उन्होंने डोरा डालने का बहुत प्रयास किया; परंतु उनकी एक न चली।

   उस दिन वे तीनों घात लगाकर झाड़ी में छिपे थे। उसने लकड़ी का बोझा तैयार किया ही था कि वे उस पर हिंसक जंतु-सा झपट पड़े। उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया और बारी-बारी से तीनों ने अपना मुँह काला किया। वह चीखने लगी, छटपटाने लगी। परंतु ..!  वह उठकर बैठी और सीधे लकड़ी के बोझे पर नजर डाली। पर बोझा गायब था। उन्होंने उसे कहीं छुपा दिया था। बोझा न देखकर, वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। हाथ जोड़कर विनती करने लगी – मेरा बोझा दे दो। मैं राशन कैसे खरीदूंगी ? माँ-बाबा आज क्या खाएँगे ? मेरा बोझा..

 एक ने कहा – किसी को यह सब कहोगी तो नहीं ?

‘‘नहीं कहूंगी। मुझे मेरा बोझा दे दो।”

दूसरे ने कहा – “ठीक है। कसम खाकर कहो।”

“किसी से नहीं कहूंगी। कसम खाकर कहती हूँ ।”

 “किसकी कसम?” तीसरे ने पूछा। वह सुबकते-सुबकते बोली – “भात की कसम।”

  “और?”

 “और इस बोझे की कसम। बोझे की कसम खाकर कहती हूँ… मैं किसी को…. ।” और वह जार-जार रोने लगी।

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 2-  डिलीट होते रिश्ते/ मार्टिन जॉ

:समकालीन कथा परिदृश्य  में मुखरित संवेदनहीन होते मानवीय रिश्ते’ – आज का यही मुद्दा था। व्हाट्सएप ग्रुप ‘वाक् युद्ध’ की इस वैचारिक बहस में वह भी कूद पड़ा था। ग्रुप के सदस्यों के विचार पढ़ने और बड़ी शिद्दत से अपना पक्ष रखने में वह पूरी तरह तल्लीन था। उसी कमरे में पत्नी भी मौजूद थी। उसके भी हाथ में एंड्रॉयड मोबाइल था। वैसे वह नई फेसबुकिया थी। वह किसी दूर-दराज की एक नई फ्रेंड से चैटिंग करने में मशगूल थी। शायद किसी नई रेसिपी बनाने की विधि को लेकर जानकारियों का आदान – प्रदान हो रहा था। एक ही कमरे में मौजूद रहने के बावजूद संवादहीनता की स्थिति में कब शाम उतर आई, उन्हें पता ही नहीं चला। अचानक कॉलबेल गुनगुनाया। किसी के आगमन की सूचना थी। कॉलबेल की आवाज कानों में पड़ते ही दोनों ने एक दूसरे को देखा। चेहरों पर विरक्ति के भाव साफ नजर आ रहे थे। वैचारिक जंग में इस अप्रत्याशित अवरोध से वह झुंझलाया। उसने अपनी पत्नी को इस उम्मीद से देखा कि शायद वह उठकर ‘अटेंड’ करे, लेकिन पत्नी अपनी जगह से हिलने को कतई तैयार नहीं थी। रेसिपी बताने की विधि पर सवाल-जवाब का सिलसिला पूरे उफान पर था। ….विधि बताने के दौरान अपने- अपने हसबैंड को लेकर दिलचस्प चुहलबाजियाँ भी हो रही थीं। फिर एक बार कॉलबेल गुनगुनाया।

      ‘ओह !’ बुरी तरह झुंझलाते हुए उसने अपने घरेलू सेवक को हांक लगाई, ‘शामू, दरवाजा खोलो तो !’

        ‘जी साब !’ कहकर शामू दरवाजे के करीब पहुंचने ही वाला था कि उसने धीरे से हिदायत दी, ‘और सुनो, कह देना कि घर पर कोई नहीं है।’

   दोनों ने एक दूसरे को देखा। दोनों के चेहरों पर ‘रुकावट’ से निजात पाने के भाव हल्की मुस्कान के साथ चस्पाँ थे।

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