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Channel: लघुकथा
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ज़रूरत

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रंग–बिरंगे सजे पंडाल ,सफेद और लाल–हरी–गुलाबी रोशनियों से नहाई हुई कनातें, एकदम असली लगने वाले प्लास्टिक के फूल और गुलदस्तों से सजा स्टेज, बारातियों के लिए सजाई गए स्टाल, जहाँ तरह–तरह के पकवान थे हर पाँच कदम की दूरी पर एक वेटर और सारी व्यवस्थाओं पर निगाह रखते सातों यार, मजाल है कामिनी की शादी में एक भी कमी बाकी रह जाए। बारात आने से लेकर सुबह विदाई तक उन सातों ने पलक तक नहीं झपकाई और जब विदाई हुई तो सातों दोस्त यकायक गायब हो गए।
रमन गुस्से से उन्हें यहाँ वहाँ खोजता हुआ लाल–पीला होता रहा लेकिन वे नहीं मिले। रमन और मॉं–बाबा के अलावा वहाँ कोई नहीं था, जल्द ही दूसरी शादी की बुकिंग वाले आने वाले थे। ऐसे में सारी व्यस्थाएँ देखना सामान इकट्ठा करवाना उस अकेले के बस की बात नहीं थी, रमन के हाथ–पाँव फूल गये। हडबड़ाता हुआ कवीश को फोन लगाकर कहता है, अरे भाई कहाँ हो तुम सब लोग? यहाँ कितना काम बाकी पड़ा है, नहीं भई मैं तो ऑॅफिस निकल रहा हूँऔर बाकी लोग भी यही कर रहे होंगे तू उन्हें फोन मत करना, कोई नहीं आने वाला। कवीश ने उत्तर दिया। ये सब क्या हो रहा है? क्या ऐसे कोई अपनी जिम्मेदारी से भाग सकता है! मैं अकेला ये सब कैसे व्यवस्थित करूँगा? कुछ तो सोचा होता। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, आखिर कामिनी तुम्हारी भी तो बहिन ही है, तुम्हारा फर्ज……….। बीच मैं ही कवीश ने रोकते हुए कहा, फर्ज की बात और तुम कर रहे हो……….हअ हअ हअ…………..जो अमित की बहिन की शादी में रात को ही खाना खाकर भाग गया था। क्या तुम्हे वहाँ अपना फर्ज याद नहीं रहा?, कहाँ गई थी तुम्हारी जिम्मेदारी? फोन कट गया।
रमन नि:शब्द, बेनकाब हुआ बिखरे सामानों के बीच सारे ब्रह्माण्ड में खुद को अकेला पाता अपने किये पर विचार कर ही रहा था कि इतने में मुख्य द्वार से सातों के हँसी- ठिठौली की आवाजें आने लगीं । सातों दोस्त आपस में बतिया रहे थे और । कोई सामान इकट्ठा करवाने में एक दूसरे की मदद कर रहा था तो कोई टेंट वाले को फोन घुमाकर सामान ले जाने के लिए कोताही कर रहा था। वे लोग ऐसे जता रहे थे जैसे रमन वहाँ पर था ही नहीं ।रमन पास पहुँचकर बोला- अभी तो तुम—!
कवीश बोला, अरे पगले हम तो सामने थड़ी पर चाय पी रहे थे ।तुझे क्या लगा हम तुझे ऐसे ही अकेला छोड़ देंगे? नहीं! अकेला तो हमने तुझे पहले भी नहीं छोड़ा जब तू हमारे साथ कंचे खेला करता था और तब भी नहीं छोड़ा जब तू कस्टम ऑॅफिसर बन गया। समय बदलता है मेरे भाई ;क्योंकि समय में बदलाव निरंतरता का प्रतीक है ,लेकिन उसे देखकर साथ चलना समझदारी है। सबकी जरूरतें और सामाजिक सरोकार एक से रहते हैं ,उनमें बदलाव नहीं आने चाहिए।
लगा समय फिर से पुराने दौर में जैसे लौट गया हो ।अब उनके रिश्तों में बनावटीपन की बजाय बेतकल्लु्फ़ी और संतुष्टि साफ झलक रही थी।
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(असिस्टेंट प्रोफेसर, ऐश्वर्या कॉलेज ऑॅफ एज्युकेशन, जोधपुर)
निवास: 815, नानक मार्ग गांधी कॉलोनी, जैसलमेर(राज.)


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