ब्रज अनुवादः रश्मि विभा त्रिपाठी
स्कूल मैं लला के दाखिले कौ फारम भरत भए प्राचार्य नैं पूछी, “लला के बबा कौ नाँउ?”
“काहे, का अटक परी बबा के नाँउ की?”
बिंग्य तैं, “तौ पतौ नाहिं?”
“पतौ काहे नाहिं, मैया कौ ईं लला के बबा कौ नाँउ पतौ होवतु ऐ।”
“तौ फिरि लिखवाउ, अकि पक्कौ नाहिं।”
“रावरी बुधि रावरी पूछन माँझ दीसि रई ऐ।”
अकझकात भए, “नाहिं, मोहि कोऊ लाग नाहिं। आप बस्सि जाके बबा कौ नाँउ लिखवाउ।”
“काहे लिखाऔं? आप मोरौ नाँउ लिखउ।”
“रावरौ नाँउ मैया के कॉलम बीचि आइ गयौ। बबा के नाँउ कौ ऊ कॉलम ऐ।”
“जु जिम्मेदारी जनि उठाइ सकतु, बाकौ नाँउ काहे?”
“नाते मैं बबा कौ नाँउ लिखिबौ आवस ऐ। तौ पतौ जनि लिखि दैंऔं।”
अनखाइ, “पतौ जनि काहे लिखिहौ, जनमिबे बारौ बापु ई बापु नाहिं होवतु। आप दोऊ कॉलमनि बीच मोरौ ई नाँउ लिखि लेउ।”
“हओ आछौ।”
“जिम्मेदारी उठाइबे बारौ ई बाप होवतु ऐ।
मोहि गरब ऐ, हौं ई जाकी मइया हौं, हौं ई बापु।”
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