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Channel: लघुकथा
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टकसाल

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टकसाल का इंस्पेक्शन करने गया था मैं। मेरे साथ मेरे कुछ सहायक भी थे। सरकार ने दो हजार का नोट बंद करवा दिया सो पाँच सौ के नोट रात-दिन छप रहे थे। टकसाल के टेक्नेशियन, लेवर, मैनेजर, चीफ मैनेजर मेरे साथ हाथ बांधे-बांधे चल रहे थे। हर मशीन और उस पर कार्य करने वाले कर्मचारी अपने-अपने कामों को पूरी निपुणता, ईमानदारी और निष्‍ठा से मुझे समझा रहे थे। वे खुश भी थे कि मंत्रालय के सीनियर ऑफीसर उनके काम को देख रहे हैं।

मैनेजर समझा रहा था – कहाँ से कागज आता है। कितने सीट होते हैं। कैसे डिवाइड करते हैं। पहले एक तरफ छपती है सीट फिर दूसरी तरफ। फिर कटाई। फिर गड्डी बनाना। फिर…..फिर…….। एक लम्बी किंतु सतर्क, संवेदनशील और गोपनीय प्रक्रिया थी। अंत में वह मुझे जहाँ गड्डियाँ और उनके पैकेट्स रखे थे वहाँ ले गया। फिर उस बहुत बड़े हॉल में जहाँ पांच सौ के नोटों की गड्डियों से हॉल पटा पड़ा था। अरबों-खरबों की गड्डियाँ। मैं रुक गया था। देखने लगा था। मैनेजर मेरे पास से हटकर मेरे सहायक स्टाफ के पास चला गया था और मैं,   मैं………….,

जीवन के पचास साल पहले अपनी माँ के पास था……..तब गेहूँ, गल्ला, दाल, धान रखने के लिए आज जैसी बड़े-बड़े स्टील की कोठरियाँ नहीं हुआ करती थीं।, होती होगी मेरे घर नहीं थी। माँ गगरियों में ही धान, गेहूँ, दालें आदि रखती थी। जब बरसात के दिनों में दद्दा की मजदूरी नहीं लगती था तब उन्हीं से घर की गुजर-बसर होती थी। मिट्टी के कच्चे पक्के घर हुआ करते थे।

एक दिन अम्मा ने कहा, ‘लला एक गगरिया उठाए लाओ। पिसनो कर ले।’

मैं भागकर एक गगरिया ले आया था। और गेहूँ घर के आँगन में उड़ेल दिए थे। गेहूँ आँगन में बिखरे थे और उनके साथ ही कुछ पैसे भी बिखरे थे। मां ने मुझे हाथ के इशारे से पैसे इकट्ठे करने को कहा।

मैंने पैसे इकट्ठे कर लिये।

मां ने कहा, ‘गिनो कित्ते हैं।’

मैने सारे पैसे गिने- छह रुपये पैंतीस पैसे थे……..जिनमें अठन्नी, चवन्नी, दस पैसे, दो पैसे, एक पैसे थे। मैंने माँ की ओर इशारे से पूछा, ‘ये पैसे।’

‘लला ये मेरे कुच्चा (छिपाए गए) के पैसे हैं। तुमाए दद्दा को काम नाए लगेगो तब काम अइएं। तुम्हें चाहिए तो ले लो।’ और माँ ने मुझे दो-दो पैसे और एक पैसा दे दिया था अर्थात् पाँच पैसे। मेरी खुशी का पारावार न था।

माँ के लिए छह रुपये पैंतीस पैसे बहुत बड़ी दौलत थी जिसे वह विपरीत समय के लिए छिपाकर रखे थी और आज उसका बेटा……..सोचते सोचते आँखें भर आई थीं। फल्ल से आँसू निकल आए थे कि……..चीफ मेनेजर भागता हुआ आ गया था, ‘सर-सर व्‍हाट हैपिंड कुछ गलती हो गई हम लोगों से।’ डर रहा था कि साहब कहीं कुछ गलत रिपोर्ट न दे दें। तब तक मैनेजर, मेरा स्टाफ सब लोग मुझे घेरे खड़े थे।

‘अरे ऐसा नहीं है। उधर देख रहा था सो आंख में तिनका गिर गया। वही निकालने में ये सब…….।’ मैं बोला था

उन्हें कैसे बताता कि पचास साल पहले का जीवन जीकर लौट रहा हूँ मैं, जहाँ, दुख थे, कष्ट थे जीवन से जूझने की लालसा थी, युद्ध था गरीबी से और जीवन में ऊपर उठने की इच्छाएं थी। मां थी……दद्दा थे……और उनकी आशाएँ थीं कि उनका बेटा बड़ा साहब बने।

आज सबकुछ है लेकिन माँ नहीं है। माँ होती तो उसे सब कुछ बताता।

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