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Channel: लघुकथा
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एक राजनैतिक इन्टरव्यू

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बीसवीं सदी के एक राजनीति के पंडित और सर्वमान्य नेता राज-पथ से अपने ऑफिस  जा रहे थे। संयोग से चौराहे  पर एक पत्र-प्रतिनिधि से उनका साक्षात्कार हो गया। सर्वमान्य नेता ने उससे बचकर निकलना चाहा, क्योंकि इस युग के पत्र-प्रतिनिधि कभी-कभी राजनीति के नेताओं के लिए यमदूतों की भाँति त्रासदायक सिद्ध हुआ करते हैं, किन्तु वे बचकर न निकल सके।

            समय और अवसर का उचित उपयोग करने वाले पत्र-प्रतिनिधि ने स्वागत के साथ-साथ सर्वमान्य नेता के सामने आकर एक प्रश्न पूछा-“महाभाग! भारत की अतीत की राजनीति तो धर्मरूपी अपने शरीर  को आच्छादित कर शासन  के कार्यों का संचालन पवित्र वस्त्रों से किया करती थी, किन्तु आपकी राजनीति तो उन वस्त्रों को दूर फेंककर नग्न खड़ी हो गई है। अब आप उसकी लज्जा के निवारण के लिए क्या कर रहे है?”

            आधुनिक राजनीति के पण्डित और सर्वमान्य नेता साधारण मनुष्य नहीं थे। देश के शासन -यंत्र को उलटा-सीधा सभी प्रकार से चलाने में वे निपुण थे, लोक-सभा के ऊँचे आसन पर बैठकर वे  विरोधी सदस्यों के अनेक विकट प्रश्नों का नित्य उत्तर दिया करते थे। कुछ मुस्कराकर उन्होंने कहा-“भद्रबंधु! वैसे तो इस प्रगति के युग में लज्जा-निवारण का विषय कुछ अधिक चिन्ताजनक नहीं रहा! आज की नारी वस्त्रादि से लज्जा-निवारण करने को कुछ अधिक महत्त्व देती दिखाई नहीं देती। आप भी नित्य देखते होंगे, आज की नारी धीरे-धीरे अपने कोमल शरीर  को वस्त्रों के बंधनों से मुक्त करती जा रही है!”

            फिर भी हम भारतीयों की संस्कृति लज्जा का सहारा सर्वथा  नहीं छोड़ सकती। अतः हमने आज की राजनीति के नग्न शरीर  को जन-साधारण की आँखों से बचाने के लिए भारी-भारी लम्बी पंचवर्षीय योजनाओं से लपेटकर दूर खड़ा कर दिया है। पाँच वर्ष के बाद यदि हम अपने आसन पर स्थिर रहे तो उस समय तक और अनेक लम्बी-लम्बी योजनाएँ हमारे विकसित मस्तिष्क से उद्भूत हो जाएँगी।”

            “किन्तु उनकी सफलता?” पत्र-प्रतिनिधि ने दूसरा प्रश्न पूछा।

            सर्वमान्य नेता ओर राजनीति के प्रवीण पंडित ने तत्काल उत्तर दिया-“उसके लिए हमारे पास असीम साधन हैं। सरकारी, गैर-सरकारी प्रेस हैं और सफलता प्रदर्शक आंकड़ों को बनाने के लिए सरकार के ऑफिस  में इतने सिविलियन अफसर हैं  कि यदि हम चाहें, तो आज आकाश, तारे और समुद्र की लहरों को भी अपने आँकड़ों में पकड़कर रख सकते हैं।”

            कुशल पत्र-प्रतिनिधि को इससे आगे कुछ पूछने का साहस न हुआ और वह उनके सम्मुख नत-मस्तक हो अपनी राह चला गया।


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