सड़कों पर धर्मांध लड़ाकों की बंदूकें गरज रही थीं। सभी लोग घरों में दुबके थे। एक लड़ाके ने देखा – एक महिला सड़क के बीच खड़ी थी। लड़ाके को ग़ुस्सा आ गया, महिला का सड़क के बीचों-बीच निडर और अविचल खड़े होना उनके निज़ाम का अपमान था। उसने ऊँची आवाज़ में कहा, “हमारे डर से कोई परिंदा भी पर नहीं मार रहा है, ऐसे में तुम यहाँ सड़क पर क्यों खड़ी हो?”
“तुमसे मिलने के लिए।”
“मुझसे? मुझसे क्या काम है तुम्हें?”
“एक नज़राना है तुम्हारे लिए।”- महिला ने एक बहुत छोटी सी पोटली उसकी तरफ़ बढ़ा दी।
“क्या है यह?”
“सूरजमुखी के बीज।”
“क्या करूँ मैं इनका?”
“अपनी जेब में रखना हमेशा।”
“क्यों?”
“तुमने आबे-हयात तो नहीं पिया है न! मरना तो तुम्हें भी है या नहीं?”
“मरना है, तो फिर? अपनी आई पर हर कोई मरता है। मेरी मौत से इन बीजों का क्या ताल्लुक?”
“तुम जैसे लोग अपनी आई पर नहीं मरते। तुम किसी दिन अपने ही किसी साथी के हाथों यूँ ही सड़क पर मार दिए जाओगे और सड़क के किनारे ही लावारिस दफ़ना भी दिए जाओगे।”
“बहुत गुस्ताख़ हो तुम। चलो, अभी तुम्हारी गुस्ताख़ी को माफ़ किया, पर अब भी मुझे इन बीजों और मौत के बीच कोई ताल्लुक समझ में नहीं आया।”
“मैं समझाती हूँ। जब तुम दफ़न किए जाओगे, तो ये बीज भी तुम्हारे साथ ज़मींदोज़ हो जाएँगे। बारिश होगी, तो तुम्हारी क़ब्र पर सूरजमुखी के पौधे उगेंगे, फिर उन पर फूल लगेंगे। तुम नहीं जानते, हमारे मुल्क को फूलों की कितनी ज़रूरत है!”