‘मैं एकलव्य नहीं ’लघुकथाकार जगदीश कुलरियाँ का लघुकथा संग्रह लघुकथा लेखन की परिपक्व जमीन का पता देता है। जो एक प्रकार से ऐसी उर्वरा भूमि है जहाँ खरपतवारों को पैदा होने की कोई अनुमति नहीं है प्रत्युत कुलरियाँ जी की हर लघुकथा अपने पीछे ताबड़तोड़ लिखे जाने का इल्जाम लेकर नहीं चलती अपितु उनमें परिपक्वता का सबूत खनकता है।
संग्रह में 63 लघुकथाएँ संगृहीत हैं।
संग्रह की पहली लघुकथा ‘दर्पण ’ है जो दर्शाती है परिवार में संस्कार की बुनियाद माता-पिता के आचरण से ढलती है । ‘रिश्तों की नींव ’ में भौतिक वस्तु की पराजय पर मानवीय रिश्तों की विजय दर्शायी गई हैं ।लघुकथा ‘बाजी’ में किसान आंदोलन की जाजम पर एकता का प्रतीक जीत का एक इक्का फेंका गया है। लघुकथा ‘जज्बा ’ में राष्ट्र प्रेम को सर्वोपरि दर्शाया गया है । देश के लिए कुर्बान होना ही देशवासियों का जज्बा है ।
लघुकथा ‘मकड़ी ’ सोशल मीडिया पर बदनीयती के फैलाए हुए जाल का प्रीतिकर पता देती है । लघुकथा ‘नेताजी के साथ एक दिन ’ प्रचार और उपचार की तर्ज पर लिखी गई लघुकथा है जो यथार्थ परक मूल्य पर आधारित है। आश्वासनों की दुहाई जनतंत्र का पहला मंत्र है।
लघुकथा ‘तमाचा ’ अपनी बुनावट में माननीय मूल्यों का पक्ष उजागर करती हैं । लघुकथा ‘बाँझ ’ में स्त्री के प्रति आक्षेपों से मुक्ति का पथ दर्शाया गया है। लघुकथा ‘मुक्ति ’ में मृत्यु के बाद वाले क्रिया कर्मों जैसे डुकरिया पुराण का थोथा राग अलापा गया है । लघुकथा ‘जंग ’ में श्रम की महत्ता को सर्वोपरि रखते हुए नकली उत्पादन के विरोध में एकजुट होने का नारा बुलंद किया गया है ।
लघुकथा ‘अधूरा मर्द ’ हवस से ग्रस्त आदमी को आड़े हाथों लेती हैं। जिसे चरित्रवान औरत ठोकर मार कर जिंदगी से निकाल देती है। लघुकथा ‘चमक ’ में पुलिस का वास्तविक चेहरा उजागर किया गया है । केस में कैश है , पुरस्कार में हिस्सा-बाँटी है। लघुकथा ‘कुंडली ’ में पंचांग के परिणाम से ऊपर आंतरिक दृढ़ता से जीवन को साधने की बातें कही गई हैं ।
‘ बंटवारा ’ लघुकथा में घर की जमीन – जायदाद के बँटवारे के तारतम्य में एक बंटवारा चारित्रिक अस्मिता का भी आता है जो समाज से छिपी दशा में इज्जत था और अब जाहिर दशा में थू-थू को ध्वनि बन गया है।
बरेटा ( मानसा ) पंजाब के रहवासी लघुकथाकार जगदीश राय कुलरियाँ की लेखन विषय साफगोई इस बात में नजर आती है कि उनकी लघुकथाओं को पढ़ते हुए लगता है कि यह पंजाब प्रांत से आई हुई लघुकथाएँ हैं । बावजूद उनकी लघुकथाओं में पूरा देश धड़कता हुआ मिलता है । उनकी लघुकथा भाषा पंजाब के माटी से रची – बसी भाषा है। जिसमें पंजाब के स्थानीय मुहावरे पकड़े गए हैं । यथा : ‘दाढ़ी से मूँछे बड़ी हो जाए ’ ( रिश्तों की नींव ) ,’ नाखूनों से भी कभी मांस अलग हुआ है ’ ( बाज़ी) ,मिट्टी के साथ मिट्टी होकर खेतों में काम किया है ( बँटवारा )। यही वह बातें हैं जिससे कुलरियाँ जी की लघुकथाएं लोक के नजदीक अपना स्थान पाती प्रतीत होती हैं।
मैं एकलव्य नहीं, लघुकथा- संग्रह: जगदीश कुलरियाँ प्रकाशक: के पब्लिकेशन , बरेटा; प्रथम आवृत्ति 2024; मूल्य₹199; पृष्ठ संख्या : 101
समीक्षक :डॉ.पुरुषोत्तम दुबे
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