
छुपते- छुपाते साँझ के धुँधलके में उसने जंगल के पासवाले विश्राम-गृह में प्रवेश किया। श्याम-कमनीय गात, खंजन- नैन और चेहरे के भोलेपन ने साहब पर जादू कर दिया। उसे देखते ही उनके मन में कुछ होने लगा। वह उठकर बड़े प्यार से उसे अपने करीब बिठा निहारने लगे। इधर सेमली कमरे की भव्यता देख अंदाज लगाने लगी कि साहेब पैसेवाला है!
तभी साहब ने उसकी लट सहलाते प्रेमपूर्वक पूछा, “कितने समय से यह धंधा कर रही हो?”
“जी, वो…वो आज पहली बार…दू हजार रुपया का बहुत जरूरत था तो…” उसने हकलाते हुए जवाब दिया।
“मतलब…?”-साहब की आवाज में आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता थी।
“मेरा मरद शादी करके बाहर कमाने गया, फिर कभी लौटा नहीं।”
“कितने साल हो गए?”
“दस- ग्यारह बरस का बेटा है, बाप- बेटे ने कभी एक- दूसरे को देखा ही नहीं …” -थरथराकर सेमली ने कहा।
आगे वह कह रही थी, “पितरपख है न! पंडी जी बोले है कि इतने बरस नहीं आने से आदमी को मरा मान,उसका तर्पण करना होता है, तभी उसकी मुक्ति होगी।” वह सिसक पड़ी।
साहब का नशा फटने लगा, सेमली के पति का काल्पनिक चेहरा उनकी आँखों के सामने घूमने लगा. उसे लगा जैसे कोई उसे घूर रहा है। विचित्र-सी शिथिलता पूरे शरीर पर छाती चली गई। उन्होंने सेमली के हाथ दो हजार रुपये देकर कहा,”जा,बेटे के पास जा, वह घर में अकेला डर रहा होगा।”
“लेकिन साहब…’’ वह अचकचाई-“साहब, आप बहुत अच्छे हैं!”
वह तेजी से बाहर की ओर भागी। घर लौटते हुए वह यही सोच रही थी कि साहब का ऋण कैसे चुकाएगी।