Quantcast
Channel: लघुकथा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

नैतिक मूल्यों को बचाए रखने की अपील करती लघुकथाएँ

$
0
0

वर्तमान में साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सशक्त विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है लघुकथा। अज्ञेय कहते है- “लघुकथा एक कोमल एवं एकांगी विधा है जिसमें संयमता, सूक्ष्मता, सहजता और संक्षिप्तता का निर्वहन करते हुए अपनी बात को स्पष्टता के साथ रखा जाना चाहिए। वहीं चित्रा मुद्गल कहती हैं ” लघुकथा जब भी जन्मी कौंध-सी जन्मी।

अपने छोटे कलेवर के साथ तेवर की विशेषता के कारण ही आज लघुकथाएँ देश-विदेश में लोकप्रियता के चरम की ओर अग्रसर है। आज समयाभाव के दौर में विभिन्न वेबसाइट पर उपलब्ध छोटी-छोटी लघुकथाएँ, जिन्हें सहज ही लोग आते-जाते, उठते-बैठते पढ़ रहे हैं वे जनजागरण में एक महती भूमिका निभा रही है। आज की लघुकथाएँ विचारों के विस्तार, परिवर्तित परिवेश के सरोकार और वास्तविक जीवन में जो कुछ भी घर-दफ्तर, शासन-व्यवस्था में घट रहा उनकी प्रतिनिधि हैं। रोजमर्रा, मानव जीवन की प्रत्येक अवस्था, व्यापार-व्यवसाय, अपराध, मानसिक या मनोवैज्ञानिक समस्याएँ, आपसी सम्बंध, पुरुष-स्त्री विमर्श आदि-आदि विषयों को किस सुंदरता के साथ शब्दों में संजोये होती हैं ये लघुकथा के पाठक भली-भाँति जानते हैं।

मेरी पसंद के लिए मैंने जिन दो लघुकथाओं को चुना है उनमें पहली है, लघुकथा के क्षेत्र में जाने-माने सतीश राज पुष्करणा की लघुकथा इबादत और दूसरी है समकालीन लेखिका उपमा शर्मा की लघुकथा आकांक्षा

इबादत में लेखक ने बहुत ही सरलता से “इबादत” शब्द के वास्तविक अर्थ को सामने रखा है। नर सेवा ही नारायण सेवा है, या ख़िदमते ख़लक से ही ख़ुदा मिलता है। ये बातें हम सभी पुराने समय से सुनते आ रहे हैं, फिर भी लोग इस कथन के अर्थ को भूल केवल आडंबरों तक ही सीमित हो गए हैं। संवादात्मक शैली की इस लघुकथा, में एक व्यक्ति जो कि देखने से ही बहुत धार्मिक विचारों वाला दिख रहा है। वह केवल अपनी, थैला रख कर आरक्षित की हुई सीट पर, एक बच्चे के बैठ जाने से आगबबूला हो उसे धक्का दे देता है। उसके इस कृत्य की भर्त्सना एक दूसरा व्यक्ति करता है। साथ ही पहले व्यक्ति को शिष्टता से समझाता है, कि केवल पाँच वक़्त की नमाज़ अदायगी नहीं, ख़ुदा के बंदों से मोहब्बत ही असली इबादत है।

बगैर किसी अनावश्यक विवरण के, संवादों के माध्यम से अपना संदेश देती है यह लघुकथा।

दूसरी लघुकथा है उपमा शर्मा की आकांक्षा

इस लघुकथा में लेखिका ने बाल कलाकारों की मनोवैज्ञानिक समस्या को सबके सामने रखने का प्रयास किया है। नन्ही रुचिका जो एक बाल अभिनेत्री है, किस तरह से अपने मन की बात भी खुलकर नहीं कर पा रही है। वह बड़ी होकर टीचर बनना चाहती है। लेकिन पूछने पर वह कहती है “मैं बड़ी कलाकार बनना चाहती हूं” जो उसे सिखाया गया है वही जवाब उसे देने हैं। अभिनय और पढ़ाई के मध्य सामंजस्य बनाते हुए उसका बचपन पीछे छूटता जा रहा है। असंतुष्ट बचपन के मन की खिन्नता संवादों के माध्यम से बहुत ही अच्छी तरह पाठको के सामने रखी गई है। वर्तमान में इस तरह की समस्या पहले से बढ़ी है। वर्ग विशेष के बच्चों की इन समस्याओं की ओर समाज का ध्यान आकर्षित करती यह लघुकथा मुझे बहुत महत्त्वपूर्ण लगी।

1-इबादत / सतीशराज पुष्करणा

रमजान का पवित्र माह चल रहा था। उसी दौरान मुजफ्फरपुर से पटना आने वाली बस में एक सज्जन इत्मीनान से बैठ गए। उनकी बगल में लगभग पाँच-छह वर्ष का एक बच्चा अपनी मस्ती में मस्त था। एक अधपकी दाढ़ी वाले प्रौढ़, हाथ में बधना (मुसलमानी लोटा) लिए बराबर वाली सीट की ओर आए, जहाँ उनका झोला पहले से ही रखा हुआ था। अपनी सीट पर उस बालक को बैठे देखकर आग-बबूला हो गए और उन्होंने आव देखा न ताव, उसे एक तरफ़ धकेल दिया। उस मासूम को कोई ख़ास चोट तो नहीं आयी, फिर भी कुछ-न-कुछ तो लग ही गयी। वह बहुत ही बेचारगी से रोने लगा। उसकी माँ ने, जो फटी साड़ी से झाँकते बदन को बार-बार ढँकने का असफाल प्रयास कर रही थी और सीट के अभाव में खड़ी थी, अपने लाल को ममता के आँचल में ढक लिया। उसकी सहमी नज़रे स्वतः चारो ओर घूम गयीं। उस औरत से उसके मासूम बच्चे को अपनी गोद में लेते हुए वहाँ बैठे सज्जन, प्रौढ़ की ओर मुख़ातिब होते हुए बोले, “मोहतरम! मैं भी मुसलमान हूँ।”

“क…क…क्या मतलब?” कुछ हकलाते हुए प्रौढ़ बोले।

“मतलब क्या होगा। शक्ल से तो आप शरीफ, नेक और बादस्तूर रोजेदार मालूम होते हैं और मैं रोजेदार न होते हुए भी उस अल्लाह-ताला, की नज़र में आपसे ज़्यादा रोजेदार हूँ।”

“क्या कुफ्र बकते हैं, आप!” वे लगभग चिल्लाए।

“चिल्लाने की ज़रूरत नहीं है जनाब! उसके बनाए बन्दों, खासकर बच्चों से मुहब्बत करना ही उस परवरदिगार की सच्ची इबादत है, सच्चा अकीदा है।” उस सज्जन ने प्रौढ़ महाशय को बहुत शालीनता से समझाया।

उस महाशय की बात सुनते ही प्रौढ़ व्यक्ति की गर्दन झुक गयी। तब तक वह बच्चा इन सारी बातों से बेख़बर उनकी गोद से उतरकर प्रौढ़ की गोद में बैठा उनके ‘बधने’ में हाथ डाल-डालकर पानी सुड़क रहा था।

-0-

2-आकांक्षा / डॉ.उपमा शर्मा

‘‘नन्हीं रुचिका का अभिनय बहुत दमदार रहा। फ़िल्म में बड़े-बड़े कलाकारों के रहते भी उसने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। दर्शकों का मन मोह लिया। उसके नाम की बड़ी चर्चा है। आपको कैसा लग रहा है?’’ एक टी.वी चैनल का संवाददाता रुचिका की माँ से पूछ रहा था।

‘‘बेटी की कामयाबी से जो ख़ुशी मिली, उसे बयान करना कठिन है। माता-पिता जब बेटा-बेटी के नाम से पहचाने जाते हैं, तो उन्हें बहुत गर्व होता है।’’ शैली ने खुश होते हुए जवाब दिया।

‘‘अभी रुचिका बहुत छोटी है। वह अपना ध्यान पढ़ाई में लगाएगी या फिर अभिनय जारी रखेगी? ’’

‘‘पढ़ाई भी करेगी, लेकिन अगर कहीं अच्छी फ़िल्म में रोल मिला, तो ज़रूर करेगी।’’

‘‘शैली जी, क्या मैं रुचिका से बात कर सकता हूँ? ’’

‘‘हाँ, क्यों नहीं…रुचिका बेटे, ज़रा इधर आना।’’

दूसरे कमरे से रुचिका आई तो संवाददाता बोला, ‘‘रुचिका बेटे, कैसी हो? ’’

‘‘ठीक हूँ अंकल।’’

‘‘अच्छा यह बताओ, आपको क्या-क्या अच्छा लगता है?’’

‘‘मुझे…रिया, दिया के साथ खेलना, पार्क में जाना और साइकिल चलाना…और ख़ूब सारा पिज्जा खाना बहुत अच्छा लगता है।’’

‘‘और आप बड़ी होकर क्या बनना चाहती हो?’’  संवाददाता ने मुस्कराते हुए पूछा।

‘‘मैं तो टीचर बनूँगी, टीचर न सबको डाँट सकती है…’’  बोलते हुए उसकी नज़र अपनी माँ की ओर गई तो वह सकपका गई, ‘‘..नहीं अंकल…मैं तो न…बड़ी कलाकार बनूँगी, दीपिका जैसी।’’ घबराते हुए रुचिका अटक-अटककर बोली।


Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>