हिन्दी–लघुकथा का उद्भव यदि हम मुंशी हसन अली की लघुकथाएँ से मानें , तो वर्तमान तक आते–आते लघुकथा लगभग 142 वर्ष की विकास–यात्रा तय कर चुकी है। जिसके विकास का दूसरा पड़ाव भारतेन्दु की लघुकथाएँ हैं, जिनमें वर्तमान लघुकथा के बीज सहजता से मिल जाते हैं। इसके बाद से तो फिर जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, माखनलाल चतुर्वेदी इत्यादि प्रातः वंदनीय कथाकारों की गर्व करने योग्य सूची है जिसमें उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’, श्यामनन्दन शास्त्री, रावी इत्यादि, इसे आगे बढ़ाने में अपना उल्लेखनीय योगदान देते प्रत्यक्ष होते हैं। इनके बाद तो समकालीन लघुकथा का दौर आरंभ हो जाता है, जिसमें पूरन मुद्गल, डॉ. सतीश दुबे, कृष्ण कमलेश, डॉ त्रिलोकी नाथ ब्रजवाल, शशि कमलेश, डॉ शंकर पुणतांबेकर इत्यादि की एक लंबी श्रृंखला है। उस लम्बी श्रृंखला में हिन्दी–पंजाबी भाषा के माध्यम में लघुकथा को विकास देते श्याम सुन्दर अग्रवाल पूरे दमखम के साथ खड़े नज़र आते हैं।
श्याम सुन्दर अग्रवाल ने यों तो शताधिक लघुकथाएँ लिखी हैं किन्तु यहाँ मैं उनकी छियासठ लघुकथाओं को ही अपने लेख का केन्द्र बना रहा हूँ जिन्हें पड़ाव और पड़ताल के संपादक मधुदीप एवं स्वयं श्याम सुन्दर अग्रवाल ने चुना है।
मैं जब बार–बार इनकी छियासठ लघुकथाओं से गुज़रता हूँ , तो मुझे जो विषय के स्तर पर वैविध्य दिखाई देता है, उसके आधार पर इन छियासठ लघुकथाओं को मुख्य रूप से निम्न प्रकार से विभक्त कर सकते है-
1. संवेदनापरक लघुकथाएँ
2. राजनीति से जुड़ी लघुकथाएँ
3. घर–परिवार से जुड़ी लघुकथाएँ
4. भ्रष्टाचार से जुड़ी लघुकथाएँ
5. समाज से जुड़ी लघुकथाएँ एवं
6. अन्यान्य
सर्वप्रथम मैं इनकी संवेदनापरक लघुकथाओं की चर्चा करना उचित समझता हूँ, कारण श्याम सुन्दर अग्रवाल ने भले ही अनेक–अनेक विषयों पर लघुकथाएँ लिखी हैं, किन्तु इनकी संवेदनापरक लघुकथाएँ जितनी श्रेष्ठ, आकर्षक एवं हृदयस्पर्शी हैं उतनी अन्य विषयों पर मुझे प्रतीत नहीं होती। इसके अनेक कारण हो सकते हैं जैसे लेखक का ऐसी स्थितियों से बराबर गुज़रना या लेखक का अति भावुक होना।
यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं श्याम सुन्दर जी से कभी रू–ब–रू नहीं मिला हूँ। हाँ! उनकी लघुकथाओं से कभी पत्र–पत्रिकाओं, तो कभी संपादित संकलनों के माध्यम से उनकी लघुकथाओं से परिचित अवश्य ही होता रहा हूँ। इनके अतिरिक्त लघुकथाकार डॉ सतीशराज पुष्करणा से भी उनके विषय में काफी कुछ सुनता एवं जानकारी प्राप्त करता रहा हूँ।
‘माँ का कमरा’ लेखक की बहुचर्चित लघुकथा है। इसका कारण है यह लघुकथा माँ और बेटे के मध्य एक सकारात्मक संदेश देती लघुकथा है कि आज भी ऐसे बेटे हैं जो अपनी वृद्धा माँ को वह सम्मान एवं प्यार देते हैं, जिसकी वास्तव वह अधिकारी है, अन्यथा तो आज प्राय: लेखक वृद्ध माता–पिता एवं बेटे के मध्य नकारात्मक संदेश देती ही अधिकांश लघुकथाएँ लिख रहे हैं। नवीनता लिए यह लघुकथा अपने विषय के कारण तो आकर्षित करती ही है। इसी के साथ–साथ यह प्रस्तुति के स्तर पर भी अपनी श्रेष्ठता पाठकों को संवेदित करते हुए सिद्ध करती है। इसका शीर्षक एवं भाषा–शैली इसके श्रेष्ठ होने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं।
यह लघुकथा जहाँ संवेदित करती है, वह अंश देखें – शाम को जब बेटा घर आया , तो बसन्ती बोली, “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता।
बेटा हैरान हुआ, “माँ, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है, नौकर ने।”
बसन्ती आश्चर्यचकित रह गयी, “मेरा कमरा! यह मेरा कमरा!! डबल बेड वाला…!”
“हाँ माँ, जब दीदी आती है , तो तेरे पास ही सोना पसन्द करती है। और तेरे पोता–पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी–वी– देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए , तो बेझिझक बता देना।” उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा , तो बसन्ती की आँखों में आँसू आ गए।
जहाँ वृद्धावस्था में बेटे द्वारा अपने दायित्व का निर्वाह करती यह लघुकथा हमारे सामने है वहीं इसी लेखक ने ‘बँटवारा’, ‘बेटी का हिस्सा’ और ‘बेटा’ जैसी लघुकथाएँ भी लिखीं हैं जो यह स्पष्ट करती हैं कि वृद्धावस्था में माँ–बाप बेटों द्वारा बोझ समझ लिए जाते हैं और वे इस प्रकार अपने माता–पिता की उपेक्षा करते हैं।
वस्तुत: लेखक ने इस विषय पर अपनी लघुकथाओं में यह स्पष्ट करने का सद्प्रयास किया है कि समाज में सभी बेटे अच्छे नहीं होते, तो सभी बुरे भी नहीं होते। इसी विचार से लेखक ने एक सिक्के के दोनों पक्षों को दिखाने में सफलता पायी है।
संवेदना जगाती लेखक की दूसरी लघुकथा ‘एक उज्ज्वल लड़की’ सच्चे प्रेम में पगी एक उत्कृष्ट लघुकथा है, जिसे श्रेष्ठता के शिखर तक पहुँचता है, लघुकथा का एक वाक्य, “पवित्रता का संबंध तन से नहीं, मन से है रंजना। जब मेरी जान का मन इतना पवित्र है , तो उसका सब–कुछ पवित्र हैं।” यह लघुकथा यह स्पष्ट करती है कि बलात्कृत लड़की अपवित्र नहीं होती, क्योंकि इस संदर्भ में वह निर्दोष होती है। वस्तुत: ऐसी स्थिति में भी प्रेमिका को अपनाने वाला ही सच्चा प्रेमी होता है।
‘टूटी हुई ट्रे’ लेखक की एक अन्य संवेदनापरक लघुकथा है, जिसमें पति–पत्नी के शाश्वत प्रेम को ‘टूटी ट्रे’ के माध्यम प्रस्तुत दिखाया गया है। ‘टूटी ट्रे’ वस्तुतः नायक की पत्नी जो अब नहीं है की स्मृतियों से जुड़ी हुई है। नायक की पुत्रवधू का कहना है इस टूटी ट्रे को कूड़ेदान में क्यों नहीं फेंक देते। तब नायक उसे अपनी स्मृतियों में ले जाता है। पुत्रवधू नायक को बहुत ध्यान से सुनती है। अब लघुकथा की ये पंक्तियाँ देखें कि किस प्रकार किसी को भी ये संवेदना के सागर में डूबो देती हैं- “थोड़ी देर कमरे में खामोशी छाई रही। किशोर चंद ने चाय के कपों को ट्रे में से उठाकर मेज पर रख दिया। फिर ट्रे उठाकर बहू की ओर बढ़ाते हुए कहा, “ले बेटी, इसे डस्टबिन में डाल दे, टूटी हुई ट्रे घर में अच्छी नहीं लगती।”
बहू से ट्रे पकड़ी नहीं गई। उसने ससुर की ओर देखा। वृद्ध आँखों से अश्रु बह रहे थे।
इसी श्रेणी की एक अन्य लघुकथा ‘अनमोल खजाना’। वस्तुतः इस लघुकथा का शीर्षक ही इसे श्रेष्ठता तक पहुँचाने में सहायक है। हर व्यक्ति के लिए कोई वस्तु अनमोल हो यह जरूरी नहीं किन्तु वही वस्तु किसी व्यक्ति के लिए दुनिया की सबसे अनमोल हो सकती है। यह लघुकथा इस बात को स्पष्ट करती है कि बात वस्तु के आर्थिक या ऐतिहासिक महत्त्व की न भी हो किन्तु यदि वह भावना से जुड़ी है , तो वह वस्तु उस व्यक्ति हेतु अनमोल बन जाती है। यह लघुकथा की संवेदना के स्तर पर किसी को संवेदित करने की पूर्ण क्षमता रहती है।
‘बुजुर्ग रिक्शावाला’ भी एक संवेदनापरक लघुकथा है। नायक को रिक्शावाले के रूप में अपना पिता दिखाई देता है, वह अपने को रोकते–रोकते भी यह उठता है, “बापू रिक्शा रोक।”
वह बोला, “क्या हो गया बाबूजी ?”
“कुछ नहीं, एक ज़रूरी काम याद आ गया।” मैंने रिक्शा से उतर उसको पाँच रुपये का नोट देते हुए कहा, “यह कोई अस्वाभाविक नहीं है, यह एक स्वाभाविक मनोविज्ञान की श्रेष्ठ कथा है, जो हमारे भारतीय संस्कारों को बल देती है। हाँ! इसका शीर्षक उतना सटीक नहीं है, जितना होना चाहिए था।
‘बेटी का हिस्सा’ इसी श्रेणी की महत्त्वपूर्ण लघुकथा है। दो भाई सम्पत्ति का बँटवारा करते हैं। माँ–बाप के बँटवारे को लेकर दोनों परेशान हैं। स्वस्थ पिता को दोनों अपने हिस्से में लेना चाहते हैं, बीमार माँ को कोई साथ नहीं रखना चाहता। जबकि माँ–बाप दोनों एक साथ रहना चाहते हैं।
दोनों भाई माँ–बाप को हिस्से में लेने पर जब सहमत नहीं हो पाते , तो उनकी विधवा बहन अपने ससुराल से आ जाती है। बहन को देखकर दोनों भाई स्तब्ध रह जाते हैं-
“आज अचानक कैसे आना हुआ, बहन ?” बड़े ने पूछा।
“अपना हिस्सा लेने आई हूँ।”
“तेरे लिए तो जीजाजी इतना छोड़ गए हैं कि सात जन्म…” – छोटा बोला।
“वही कुछ लेने आयी हूँ जो तेरे जीजाजी नहीं छोड़ गए ।
और विधवा बेटी अपने हिस्से के रूप में वृद्ध माता–पिता को साथ ले गयी।
इस लघुकथा का अंतिम वाक्य पाठकों को संवेदना के चरम तक ले जाकर संवेदित करता है। यही इस लघुकथा के प्राण है।
‘कर्ज’ लघुकथा भी संवेदनापरक है जो हृदय के कहीं भीतर जाकर संवेदित करती है। यह लघुकथा भी ‘माँ का कमरा’ वाले कथ्य की ही शिल्प के स्तर पर दूसरी किन्तु भिन्न प्रस्तुति है। बेटा जो कि माँ द्वारा किये गए कार्यों को न मात्र स्मरण रखता है अपितु उन्हें एक कर्ज़ के रूप में स्वीकार करता है। इसका शीर्षक ठीक है, किन्तु वह और सुन्दर एवं सटीक भी हो सकता था।
श्याम सुन्दर हिन्दी में संवेदनापरक लघुकथा लिखने वाले आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, भवभूति मिश्र, डॉ सतीश दुबे, चित्रा मुद्गल, रमेश बतरा, बलराम अग्रवाल, डॉ सतीशराज पुष्करणा, डॉ शकुंतला किरण, मधुदीप, सुकेश साहनी, सुभाष नीरव, माधव नागरा जैसे कतिपय लेखकों की श्रेणी के लघुकथाकार हैं, जिन्होंने संवेदना को पूरी गंभीरता से जाना समझा है और अपनी लघुकथाओं में बहुत ही सटीक एवं सुन्दर ढंग से निरूपित किया है। वस्तुतः संवेदना ही किसी रचना को श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती है तथा लेखक को पाठक से जोड़ने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। श्याम सुन्दर की ऐसी लघुकथा में ‘शहीद की वापसी’ भी एक महत्त्वपूर्ण लघुकथा है, जो व्यवस्था की कथनी–करनी में अन्तर स्पष्ट करती एवं संवेदनापरक लघुकथा है। इसका प्रतिपादन एवं भाषा–शैली इस लघुकथा को श्रेष्ठता प्रदान करने में सहायक है।
तिलक–दहेज प्रथा पर चोट करती ‘इतिहास’ एक संवेदनापरक श्रेष्ठ लघुकथा है जो नायिका का मनोविश्लेषण करते हुए पाठकों को संवेदित कर जाती है। जो व्यक्ति स्वयं जैसा होता है, उसे अन्य लोग भी वैसे ही दिखाई देते हैं। इसका कथ्य अपने ही ढंग का है। इसका प्रतीकात्मक शीर्षक एकदम सटीक है। इस श्रेणी की अंतिम लघुकथा के रूप में ‘सदा सुहागिन’ लघुकथा पति–पत्नी के शाश्वत एवं स्वाभाविक प्रेम की उत्कृष्ट लघुकथा है, जिसे ‘करवा चैथ‘ व्रत के माध्यम से प्रतिपादित करने में लेखक ने सफलता पायी है। इसका निरूपण तो श्रेष्ठ है ही किन्तु उससे भी श्रेष्ठ है, इसका कथोपकथन जो बहुत ही सहजता से इस रचना को शीर्ष तक पहुँचाकर समापन की ओर पूरे कौशल के साथ ले जाता है। इसका शीर्षक बहुत ही सार्थक एवं सटीक है। संवेदना के संबंध में मैं धीरेन्द्र वर्मा के विचारों से अधिक सहमत हूँ- “संवेदना को ही भाव पक्ष कहा जाता है। भाव पक्ष का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप रस निष्पत्ति है।”
संवेदना लघुकथा के किसी विषय–विशेष से बंधी हुई नहीं होती, प्राय: सभी विषयों में लेखक की योग्यता के अनुसार इसे खोजा एवं महसूस किया जा सकता है, जिसे मैंने अग्रवाल जी की लघुकथाओं में देखा–परखा है।
यों भी जब हम अध्ययन–क्रम में विषयानुसार लघुकथाओं को विभक्त करके देखते हैं , तो अनेक लघुकथाओं में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष अनेक अनेक विषय अपने होने का एहसास कराते हैं , तो हम उसके प्रमुख विषय (जो हमें लगता है) को केन्द्र में रखकर वश्लेषित करते हैं या उसकी परख करने की कोशिश करते हैं।
श्याम सुन्दर संवेदनापरक लघुकथाओं में तो सिद्धहस्त हैं ही, किन्तु उन्होंने अन्य विषयों पर भी अधिकार के साथ लघुकथाएँ लिखी हैं। अब मैं उनकी कतिपय राजनीति से जुड़ी लघुकथाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास करूँगा। इसमें सर्वप्रथम मैं इनकी ‘साझेदार’ लघुकथा को देखता हूँ। यह लघुकथा नेता एवं पुलिस की मिलीभगत का पर्दाफाश करती है। हालाँकि यह लघुकथा शिल्प के स्तर पर अपना कोई विशेष रंग नहीं दिखा पाती है और एक सीधी–सादी मामूली–सी रचना के रूप में प्रस्तुत होती है जो श्याम सुन्दर की अन्य रचनाओं से काफी पीछे रह जाती है। इसी श्रेणी में ‘रावण जिंदा है’ में राजनीति के समक्ष पुलिस की बेबसी को प्रत्यक्ष करने का प्रयास रहा है। रोज समाचार–पत्रों को पढ़ने पर यह सच्चाई आज आम हो गयी है। भ्रष्टाचार फैलने फैलाने का यह क्रम नित्य–प्रति इतनी त्वरा से चल रहा है कि यह कभी थमेगा भी या नहीं, कुछ अनुमान नहीं लग पाता है।
‘एक वोट की मौत’ भी इसी श्रेणी की लघुकथा है कि नेता आज वोट पाने हेतु यों कहिए अपने कुर्सी स्वार्थ हेतु किसी भी स्तर तक गिर सकता है, यही इस लघुकथा का अभीष्ट है। इसका शीर्षक भी इतना दमदार नहीं, जितना श्याम सुन्दर की लघुकथाओं का हुआ करता है।
इस श्रेणी की श्रेष्ठ लघुकथा है ‘रावण’। इसमें लेखक ने अपना लेखकीय कौशल का सुन्दर प्रदर्शन किया है और राम–रावण जैसे लोकप्रिय मिथकों के माध्यम से आज के नेता यानी रावण और कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति यानी राम के माध्यम से लेखक अपने अभीष्ट तक पहुँचकर अपने सही गंतव्य तक पहुँचता है। इसके शीर्षक पर लेखक को गंभीरता से सोचना चाहिए था, जो उससे नहीं सोचा गया। शीर्षक यदि सटीक लगाया गया होता , तो यह रचना अपेक्षाकृत और काफी ऊँचाई प्राप्त कर सकती थी, जो नहीं कर पायी।
लेखक की जो रचनाएँ सटीक शीर्षक के कारण श्रेष्ठ बन गयीं, उनमें ‘गिद्ध’, ‘वापसी–2’, ‘मरुस्थल के वासी’ इत्यादि को उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है। लघुकथा में शीर्षक बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। इस लघु आकारीय विधा में अधिक क्षिप्रता ला देता है। कभी–कभी तो पूरी लघुकथा एक प्रतीक रूप में प्रस्तुत होती है और वह अपने शीर्षक के कारण ही संप्रेषित हो पाठकों को सहज सम्प्रेषित होकर झकझोर देती है तथा सोच–विचार करने हेतु बाध्य कर देती है। श्याम सुन्दर के पास ऐसी तेज–तर्रार लघुकथाओं का प्रायः अभाव दिखता है।
‘राजनीति’ श्रेणी की इनकी पाँचवीं लघुकथा ‘हमदर्द’ है। यह भी नेता–चरित्र को उजागर तो करती है, परन्तु लेखकीय कौशल के स्तर पर कोई विशेष कमाल नहीं दिखा पाती है। मात्र एक साधारण लघुकथा बनकर रह जाती है। इस प्रकार की लघुकथाओं हेतु व्यंग्य की गहरी पकड़ होना जरूरी है, जिसे हरिशंकर परसाई, डॉ शंकर पुणतांबेकर इत्यादि की लघुकथाओं में देखा जा सकता है।
किसी भी विधा की रचना हो उसमें घर–परिवार पर रचनाएँ न हों, यह हो ही नहीं सकता। अत: श्याम सुन्दर इससे कैसे बच सकते थे! उन्होंने भी घर–परिवार को विषय बनाकर ‘रिश्ते’, ‘सांझ ढले’, ‘बँटवारा’, ‘लड़का–लड़की’, ‘लड़की के बाबा’, ‘बच्चा’, ‘लड़की की तलाश’, ‘औरत का दर्द’, ‘बुढ़ापे के लिए’, ‘इच्छा’, ‘बेटा’ और ‘मोहल्ला’ शीर्षक से लिखी गयी लघुकथाएँ हैं। हालाँकि इन्हें सामाजिक लघुकथाओं में भी रखा जा सकता था, किन्तु ‘घर–परिवार’ समाज की एक छोटी इकाई है। अत: इस विषय को मेरी दृष्टि से अलग करके ही इन लघुकथाओं की पड़ताल करने में सही न्याय किया जा सकता था, इसलिए उन्हें घर–परिवार की अलग श्रेणी में रखना मैंने उचित समझा।
इस श्रेणी में ‘रिश्ते’ में लेखक ने रूढ़ियों एवं आज के भौतिकवादी रिश्तों पर करारी चोट की है। इस संदर्भ को स्प्ष्ट करती इस रचना की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं “भाई, ये तो सामाजिक रीति–रिवाज है।” सरिता हक जमाती–सी बोली।
“दीदी, पारिवारिक रिश्तों में सरकार और समाज दोनों के कानून एक साथ नहीं चलते। उनमें से एक को ही चुनना होता है, आपने सरकार का कानून चुना, इसलिए समाज की रीति–रिवाज निभाने की दुहाई देने का कोई हक नहीं रह गया आपको…।”
सरिता कुछ देर सोचती सन्न–सी बैठी रहीय फिर हताश–सी उठकर चल दी।
‘साँझ ढले’ इस श्रेणी की दूसरी लघुकथा है, जो पति–पत्नी के शाश्वत प्रेम एवं दायित्व के साथ–साथ पुत्रों की दायित्वहीनता को प्रत्यक्ष करती लघुकथा है। यह शाश्वत सत्य है कि जैसे–जैसे उम्र बढ़ती है, पति–पत्नी का प्रेम क्रमशः प्रगाढ़ होता जाता है और दूसरी तरफ अपने पैरों पर खड़े होते ही पुत्रों पर स्वार्थीपन क्रमशः हावी होने लगता है।
इस लघुकथा को और गहराई तक समझने हेतु इसकी ये पंक्तियाँ अवलोकित करना अनिवार्य है- “बेटे, तुझे पता ही है, तेरी माँ की हालत।”
“कितनी बदबू मारने लग गयी है घर में।” नाक पर रूमाल रखती बड़ी बहू भी आ गयी थी।
डैड ‘गर मम्मी का यही हाल रहना है , तो कहीं कमरा किराये पर लेकर रह लो… इतने बड़े घर को क्यों नरक बना रहे हो।” छोटा बेटा भी आया और तुरन्त ही बाहर निकलती अपनी पत्नी को साथ ले, वापस अपने कमरे में जा घुसा।
थोड़ा पानी डाल, सतीश पोंछा लगा फर्श साफ कर रहा था और कमला की आँखें आँसू बहा रही थीं।
इस श्रेणी में अब बूढ़े माँ–बाप को बोझ समझने वाले बच्चों की दुष्ट मानसिकता का चित्रण करती लघुकथा ‘बँटवारा’ मेरे सामने है। दोनों बच्चों ने सारे सामान आपस में बाँट लिये अब बचे माँ–बाप। पिता को पेंशन मिलती है और माँ बीमार रहती है, उस पर दवाओं का खर्च भी है, वह कभी भी मर सकती है, हज़ारों खर्च हो जाएँगे। तय यह हुआ कि दोनों लॉटरी निकाल लें, जिसके हिस्से पिता आएँ वो पिता रखें, दूसरा माँ को रखे। लॉटरी की पर्ची जब बच्चा उठा रहा था , तो दोनों भाई तथा उनकी पत्नियाँ आँखें मूँद कर भगवान से प्रार्थना कर रहे थे “हे भगवान! हमारी ‘पिता’ वाली पर्ची ही निकालना।”
इस विषय पर यह एक श्रेष्ठ लघुकथा है, किन्तु जो बात ‘माँ का कमरा में है, वो प्रभाव इस विषय से जुड़ी किसी अन्य लघुकथा में नहीं है। इसके बावजूद यह लघुकथा अपने विषय के साथ न्याय करती है। शीर्षक भी सटीक है और भाषा–शैली भी विषय एवं पात्रों के चरित्रनुकूल है।
‘लड़का–लड़की’ के अन्तर को महत्त्व देते माता–पिता पर प्रहार करती इस लघुकथा का विषय अब बहुत घिस पिट चुका है, अब तो जरूरत है ‘पानी के घटते स्तर’, ‘कंकरीट के बढ़ते जंगल’, ‘मनुष्य में नित्य प्रति अधिक–से–अधिक धनार्जन की लिप्सा’, ‘व्यक्ति में क्रमशः बढ़ती स्वार्थ की प्रवृत्ति’ इत्यादि अनेक विषय ऐसे हैं, जिनकी आज जरूरत है, पर लिखना चाहिए।
‘लड़का–लड़की’ के अन्तर को महसूस करते माता–पिता की घटिया सोच पर प्रहार करती एक साधारण लघुकथा है। इसकी अपेक्षा ‘लड़की का बाबा’ धारा के विरुद्ध खड़ी लघुकथा प्रभावित करती है। इसका विषय पूर्व कथा की तरह पुराना है, किन्तु इसकी प्रवृत्ति एवं प्रस्तुति दोनों मिलकर इस लघुकथा को श्रेष्ठता की श्रेणी में सहज ही स्थान दिला देती हैं।
स्वार्थी प्रेम को केन्द्र में रखकर लिखी गयी एक सुन्दर लघुकथा है ‘बच्चा’, किन्तु इसका शीर्षक रचना को सटीकता प्रदान नहीं करता। इस लघुकथा का यह अंश महत्त्वपूर्ण है-
फिर नीलू उठती हुई बोली, “अच्छा… तो मैं चलती हूँ।”
“…कल आओगी न ?”
“किसलिए ?”
“यूँहीं …मिलने के लिए आज की तरह।”
“सॉरी अजय, मैं डैड की गोद में खेल रहे किसी बच्चे से प्यार नहीं करना चाहती।” कह कर नीलू तेज गति से चल दी।”
वह दूर जाती हुई नीलू व डूबते हुए सूर्य को देखता रह गया।
इसी श्रेणी में ‘लड़की की तलाश’ एक लघुकथा है जो भ्रूण हत्या जैसी समस्या के विरुद्ध खड़ी होती है। यह लघुकथा यह बताती है, क्रमशः लड़कियों का अनुपात कम होते जाने से सहजता से अच्छे–अच्छे लड़लों को शादी हेतु लड़कियाँ नहीं मिल पा रही हैं। प्रत्यक्ष तो नहीं, किन्तु परोक्ष रूप से भ्रूण हत्या जैसे घिनौने कृत्यों पर प्रहार करती यह लघुकथा अपने सुन्दर शिल्प के कारण हृदय को स्पर्श न भी करे, तो भी विचार करने हेतु विवश तो करती ही है। विचार करने हेतु विवश करना ही इस लघुकथा की सार्थकता है। इसका कथोपकथन सहज स्वाभाविक है, इसमें आरोपित जैसा कोई शब्द नहीं है। शीर्षक भी सुन्दर है।
नित्य प्रतिदिन रेप कांडों की बढ़ती संख्या आज देश की एक बड़ी समस्याओं में एक है, जिसका व्यवस्था अथवा प्रशासन द्वारा तो कोई विशेष हल नहीं ही निकल पा रहा है, किन्तु इस मामले में हमारी न्यायपालिका भी चाहे जिस कारण से हो, बहुत बहुत कमजोर एवं दीन–हीन खड़ी नज़र आती है। बलात्कारियों हेतु शीघ्र न्याय एवं कठोर दंड की व्यवस्था अपेक्षित है। आदमी ‘डर’ से डरता है। आज की नारी जब घर में ही सुरक्षित नहीं है, तो बाहर की क्या बात है। कतिपय पंक्तियाँ इस लघुकथा के संदर्भ में इसी लघुकथा से देखें फिर इधर–उधर देखा और गहरी साँस लेकर धीरे से कहा, “घर में किसके पास छोड़ें कमला ? बाप इसका तो दारू पी के पड़या रवै सारा दिन। उसकी निगाह तो मन्ने ठेकेदार से भी खराब लगे। ठेकेदार से तो मैं बचा लूँगी, उससे कौन बचावैगा छोरी नै ?”
इस लघुकथा की विशेषता इसकी क्षिप्रता में है। एक भी शब्द कम ज़्यादा नहीं है। शीर्षक भी बिलकुल सटीक है। आज की औरत का सबसे बड़ा दर्द उसके नारीत्व की असुरक्षा है। इसके संवाद उच्चरित भाषा में जो पात्रों के चरित्रनुकूल हैं, लघुकथा के सौंदर्य में वृद्धि करते हैं।
इस लघुकथा में नायिका का अन्त: एवं बाह्य दोनों तरह का संघर्ष भी बहुत ही सुन्दर ढंग से संप्रेषित हुआ है। नाटकीयता के साथ–साथ विश्वसनीयता लिए हुए, आज के जीवन का कटु यथार्थ भी है। कुल मिलाकर प्रत्येक दृष्टिकोण से यह लघुकथा हृदय में तीर की तरह चुभ जाती है और इन स्थितियों पर सोचने हेतु विवश करती है। सोच हेतु विवश करना ही लेखक का अभीष्ट भी है। लेखक अपने अभीष्ट में पूर्णत: सफल रहा है।
इस वर्ग में रखी एक और ध्यान आकर्षित करती लघुकथा है, ‘बुढ़ापे के लिए’। वृद्धावस्था को केन्द्र में रखकर एक सुन्दर एवं रचनात्मक विचार देती लघुकथा हृदय में उतर जाती है। आज के बेटे–बहुओं का क्या ठिकाना कि वृद्धावस्था में कब कैसा व्यवहार करें। ऐसे में अपने हित में सोचना भी जरूरी है। यह सुन्दर सोच ही इस लघुकथा को श्रेष्ठ बना देती है। शीर्षक बहुत सटीक तो नहीं; किन्तु फिर भी चलेगा। यानी साधारण है जबकि श्याम सुंदर अग्रवाल जैसे वरिष्ठ लघुकथाकारों से तो अपेक्षाएँ बहुत बढ़ जाती हैं।
इसी वर्ग की अगली लघुकथा ‘इच्छा’, जो प्यार की गहराई को प्रत्यक्ष करती एक श्रेष्ठ लघुकथा है। हृदय स्पर्श करती यह लघुकथा यह स्पष्ट करती है कि प्यार एक ऐसे एहसास का नाम है, जिसमें वासना का लेश मात्र भी अंश नहीं होता। प्यार को प्रायः लारेगों ने ठीक से न तो कभी समझा और न ही इसकी जरूरत समझी। आज प्यार तो शादी तक पहुँचने की सवारी मात्र है, जबकि वह इससे बहुत परे की बात है, जिसे लेखक ने बहुत ही करीने से अपने पात्रों के माध्यम से कहलवाया है। प्यार की विशेषता यह है कि यह सबको नसीब नहीं होता, जिसे नसीब होता है, उसे फिर और कुछ नहीं मिलता। इस पर मुझे एक पुराने किसी उस्ताद शायर का एक शेर याद आ रहा है-
जिसे उसने मोहब्बत दी, फिर कुछ नहीं दिया
जिसे सब कुछ दिया, उसे इस लायक नहीं समझा।
इस श्रेष्ठ रचना हेतु श्याम सुन्दर निश्चय ही बधाई के पात्र हैं। इस लघुकथा का शीर्षक भी सटीक है।
इस क्रम में अब आती है लघुकथा ‘बेटा’। यह कथा भी नालायक बेटे को केन्द्र में रखकर रची गयी है, किन्तु इसका सकारात्मक पहलू यह है कि इसमें लेखक कहता है कि दामाद भी बेटा ही होता है, अगर बेटा नालायक निकल जाये , तो कभी–कभी दामाद की शक्ल में भी आज्ञाकारी बेटा उपस्थित हो जाता है। हालाँकि ऐसा बहुत कम होता है, मगर होता है। सकारात्मक सोच भी बहुत श्रेष्ठ तो नहीं किन्तु साधारण लघुकथा से थोड़ी ऊपर की है, यह लघुकथा। इसका प्रतिपादन विषयानुकूल है।
इस वर्ग की अन्तिम लघुकथा के रूप में ‘मोहल्ला’ है, जो दो पीढ़ियों के स्वाभाविक अन्तर को प्रत्यक्ष करती है जिसका शीर्षक अपना औचित्य कहीं भी सिद्ध नहीं कर पाता है। अत: यह ऐसी रचना नहीं है, जिस पर विस्तार से कुछ कहने की आवश्यकता हो।
‘घर–परिवार’ वर्ग के पश्चात् अब इसी के विस्तृत रूप यानी समाज को केन्द्र में रखकर लिखी गयी कुछ लघुकथाओं को देखना–परखना अनिवार्य लगता है। हालाँकि घर–परिवार भी समाज का ही एक छोटा हिस्सा है किन्तु अध्ययन की सुविधा हेतु ‘घर–परिवार’ पर मुझे अलग से विचार करना उचित मालूम पड़ा। समाज तो बहुत बड़ा क्षेत्र है। खैर… इस क्रम में सर्वप्रथम ‘धर्म भाई’ लघुकथा है जो स्वार्थी और अवसरवादी लोगों के चरित्र को अपने ढंग से उजागर करती है। इस लघुकथ्का की चंद पंक्तियाँ उद्धृत करना यहाँ प्रासंगिक होगा- “धीर साहेब ने उसके चेहरे को ध्यान से देखते हुए कहा, पिछली बार सुमित जी से आपकी बात कब हुई थी ?”
“सर, अभी पिछले हफ्ते ही तो बात हुई है। बात तो होती रहती है। आप इजाजत दें , तो अभी…।”
“मिस्टर कमलेश, आपके करीबी मित्र व धर्म भाई सुमित कक्कड़जी का तीन महीने पहले देहान्त हो चुका है और उससे पहले वे छः माह तक कैंसर से लड़ते भी रहे हैं।” धीर साहेब ने दूसरी बात बीच में ही काटते हुए कहा। ऐसे चरित्र आज हमारे समाज में गली–गली में घूमते–फिरते मिल जाएँगे।
दूसरी लघुकथा में विपन्नता का सटीक चित्रण किया गया है, जिसका शीर्षक है ‘रोटी की ताकत’। वस्तुतः यह सच्चाई है कि रोटी की जरूरत आदमी से क्या–क्या नहीं करवाती है। भूख लगी हो , तो प्रायः व्यक्ति अपना मान–सम्मान भूलकर रोटी को जैसे भी हो, हासिल करना चाहता है। यही इस लघुकथा का कथ्य है, जो कि वास्तविकता लिए हुए है। हालाँकि इस विषय पर अनेक अच्छी लघुकथाएँ पढ़ने को मिली हैं, मेरी दृष्टि में लेखक ने इस लघुकथा को मांजने में वांछित श्रम नहीं किया, अन्यथा इस विषय पर एक श्रेष्ठ लघुकथा अवश्य हो सकती थी।
‘वही आदमी’ लघुकथा का औचित्य समझ में नहीं आया। लेखक का क्या उद्देश्य है? वह क्या कहना चाहता है? यों भी यह लघुकथा अविश्वसनीयता की शिकार है। यथार्थ इसके विपरीत है। मजदूर तबके में कहीं ऐसा होता होगा, पर आम समाज में प्राय: ऐसा नहीं होता। रचना वही कारगर होती है जो अपने लिखे जाने का औचित्य सिद्ध करने में सफल हो जाए। यह रचना इस निकष पर पूर्णत: असफल है।
‘वापसी–2’ एक अच्छी लघुकथा है, जो अंधविश्वास एवं ढोंग से पर्दा हटाती है और इन घातक बातों से दूर रहने हेतु प्रेरित करती है। इसका निरूपण कथानक के अनुसार है और भाषा–शैली इस लघुकथा को श्रेष्ठ बनाने में पूरा सहयोग करती है। इस लघुकथा में नायिका अपने पति के साथ अपने खोये हुए झुमके का पता लगाने, जिस बाबा के पास जाती है। वहाँ जाने पर- “हमने कमरे में प्रवेश किया , तो सब सामान उलट–पुलट हुआ पाया। बाबा और उनका एक शागिर्द कुछ ढूँढ़ने में व्यस्त थे।
हमें देखकर बाबा के शागिर्द ने कहा, “बाबा जी थोड़ा परेशान हैं, आप लोग शाम को आना।”
मैंने पूछ लिया, “क्या बात हो गई ?”
बाबा जी की सोने की चेन वाली घड़ी नहीं मिल रही। सुबह से उसे ही ढूँढ़ रहे हैं।” शागिर्द ने सहज भाव से उत्तर दिया।
लेखक कहना यह चाहता है कि जो बाबा अपनी खोयी चीज़ के विषय में नहीं बता सकता वह दूसरों की खोयी चीज़ों के बारे में क्या बताएगा! इस लघुकथा में हल्का किन्तु तीखा व्यंग्य का पुट है जो इस रचना को धार प्रदान करता है। यही इस रचना की विशेषता है। हाँ! इस रचना के शीर्षक से मेरी सहमति नहीं बनती। इसका शीर्षक भी यदि रचना के तेवर का होता , तो रचना का स्तर और ऊँचा उठ सकता था।
प्रायः पुरुष कामुक प्रवृत्ति के हुआ करते हैं, उन्हें अपने साथी के दुःख–दर्द अथवा इसकी इच्छा की चिन्ता नहीं होती।
इसी कथ्य को बहुत ही सलीके से प्रस्तुत करती है लघुकथा ‘अपना–अपना दर्द’। अगर इसमें नायिका का मनोविश्लेषण भी प्रस्तुत किया जाता जैसा डॉ सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘मन के साँप’ में किया गया है , तो यह रचना और बेहतर बन सकती थी, अभी तो यह सीधी सपाट–सी हो गयी है। हाँ! इसका शीर्षक बहुत ही सटीक है और विषय भी सुन्दर है। भाषा शैली भी अनुकूल है। लेखक की एक लघुकथा ‘उसका डर’ है जो ‘दहेज–दानव’ को केन्द्र में रखकर लिखी गयी है। यों तो इस विषय पर अनेक श्रेष्ठ लघुकथाएँ हिन्दी में मौजूद हैं। किन्तु यह लघुकथा अपने प्रतिपादन के कारण श्रेष्ठ बन गयी है। इसका शीर्षक भी कथानक के अनुकूल है। इसका अन्तिम पैराग्राफ अवलोकनीय है, देखें- “लेकिन मेरी इतनी स्पष्टता के बावजूद भी इसका संशय दूर नहीं हुआ लगता था। उसकी आँखें नम हो आर्इं, फिर रोकते–रोकते भी बह पड़ीं। आँखों से बाहर बह आए पानी को साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए वह भरभराई आवाज में बोली, “भाई साहब, मेरी बड़ी बेटी इसी कारण शादी के बाद मायके में बैठी है– शादी के बाद हम उनकी माँगें पूरी नहीं कर पाए…।”
आजकल ‘भीख’ एक धंधा बन गया है और इसे काफी फलता–फूलता हुआ देखा जा रहा है। कुछ तो स्वयं भिखारी करते हैं, किन्तु बच्चे जो भीख माँगते हैं, उनके पीछे धंधा करने वाले बड़े–बड़े लोगों का रैकेट होता है। ऐसे ही लोगों की पोल खोलती श्याम सुन्दर की लघुकथा ‘दानी’ है। बहुत ही करीने से सजाई गयी लघुकथा है, किन्तु इसके शीर्षक से मैं स्वयं को सहमत नहीं कर पा रहा हूँ।
जीवन का यह कटु यथार्थ है कि ‘भूखे भजन न होत गोपाला।’ ‘भरा हो पेट तो संसार जगमगाता है, सताये भूख तो ईमान डगमगाता है’, इसी भाव को प्रस्तुत करती है लघुकथा ‘मथुरा’।
नायिका, नायक से पूछती है कि तुम मथुरा के रहने वाले हो जहाँ विशाल और सुन्दर–सुन्दर मंदिर हैं। बड़ी पवित्र जगह है, वहाँ तुम्हारा मन नहीं लगता, जो तुम यहाँ पंजाब में भटक रहे हो ? इसके उत्तर में नायक कहता है, “भूखे पेट भी कहीं मन लगता है बीबी जी ? यहाँ पेट भर रोटी मिलती है। हमारी तो यहीं मथुरा है।” यह अपने कथानक एवं निरूपण के कारण अच्छी लघुकथा बन गयी है।
‘नौजवान रिक्शावाला’ अति साधारण लघुकथा है। हाँ! आज की युवा पीढ़ी जो नशे में डूबी है, उस पर अंडर करंट व्यंग्य रचना है, जो कहीं से भी हृदय को झिंझोड़ती नहीं है, जो कि होना ही चाहिए था।
रूढ़ियों पर कुठाराघात करती, अग्रवाल जी की एक अच्छी लघुकथा ‘कुण्डली’ है। यह लघुकथा भी ‘वापसी–2’ का दूसरा संस्करण है। दोनों का थीम एक ही है। इसका शीर्षक भी बहुत सटीक नहीं है, ऐसी लघुकथाओं में प्राय: दो ही प्रकार के शीर्षक आकर्षित करते हैं। एक तो जो प्रतीकात्मक हों या व्यंग्यपरक हों। इस शीर्षक में यह दोनों विशेषताएँ नदारद हैं।
‘चमत्कार’ भी हालाँकि रूढ़ियों पर चोट करती है, किन्तु इसमें ‘वापसी–2’ एवं ‘कुण्डली’ जैसी गंभीरता नहीं है। यह किसी घटना की चालू अखबारी रिपोटिंग जैसी लगती है। तात्पर्य यह है कि पाठकों को बाँधने की शक्ति इस रचना में नहीं है। अतः लघुकथा लिखने का औचित्य सिद्ध होता मुझे प्रतीत नहीं होता।
प्राय: व्यक्ति का यह स्वभाव है कि वह जितना होता नहीं इससे कहीं अधिक बढ़कर स्वयं को दिखाना चाहता है। इसी ‘दिखावा’ प्रवृत्ति ने प्राय: युवा पीढ़ी को दिग्भ्रमित किया है। श्याम सुन्दर की ‘रहबर’ लघुकथा भी यही बात कहती है, यह अलग बात है कि इसका शीर्षक रचना से तालमेल बिठा नहीं पाता, जिससे यह एक श्रेष्ठ रचना बनने से चूक गयी, यों इसका कथोपकथन सटीक है, भाषा–शैली का भी इसमें पर्याप्त सहयोग मिला है।
‘बाल श्रमिक’ कानूनी रूप में गलत एवं दंडनीय है, किन्तु फिर भी यह एक सामाजिक समस्या बनी हुई है, कारण आज जो कानून के रखवाले हैं वही अपने घरों में बच्चों को अपने घरेलू कार्यों एवं सेवा–टहल हेतु रखे हुए हैं, तो कोई भी इसे समझ सकता है कि इस समस्या का हल कैसे संभव हो पाएगा? किन्तु फिर भी यह चिन्ता का विषय तो है ही। अत: अपना लेखकीय दायित्व का निर्वाह कहते हुए लेखक ने इसे अपनी लघुकथा का विषय बनाकर अपने दायित्व का निर्वाह किया है और बाल श्रमिक के दर्द को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है। इस रचना का भी शीर्षक उतना सटीक नहीं है, जितना अपेक्षित था।
आज के भौतिककवादी युग में पैसा ही प्रधान है। आज यही सारे विश्व को नचवा रहा है और लड़वा भी रहा है। यही प्रवृत्ति आज प्रत्येक व्यक्ति की भी है। इसी कारण घूस का बोलबाला भी है। प्रतिदिन समाचार–पत्र इसके साक्षी हैं कि ‘टॉप टू बॉटम’ इसी में लिप्त हैं, जिसको जहाँ जितना अवसर मिलता है, कोई चूकता नहीं है। यही कारण है अपने समय को रचनाओं के माध्यम से प्रत्यक्ष करते श्याम सुन्दर ने अधिकाधिक दौलत पाने की लिप्सा को प्रत्यक्ष करती ‘सेठजी का भोजन’ लघुकथा लिखी। प्रतीकात्मक शीर्षक के रूप में यह लघुकथा को बल देता है और उसे श्रेष्ठता की श्रेणी में ला खड़ा करता है।
नालायक बेटों को केन्द्र में रखकर श्यामसुन्दर ने शायद सबसे अधिक लघुकथाएँ लिखीं हैं। उन्हें शायद अपने आसपास यह सब देखने को काफी मिला है। खैर… ‘राह में पड़ता गाँव’ भी इसी कथ्य को लेकर लिखी गयी एक अच्छी लघुकथा है। इसका प्रस्तुतीकारण श्रेष्ठ एवं सराहनीय है। एक वृद्धा माँ की खुशफहमी इस लघुकथा में शानदार ढंग से अभिव्यक्त हुई है। किन्तु रचना के कथ्य एवं कथानक से इसका शीर्षक मेल नहीं खाता, जिससे रचना श्रेष्ठता से कुछ कदम पीछे हट जाती है। इस लघुकथा की ये पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं इससे पहले कि वह नज़र बचाकर एक तरफ हो जाता, लड़का बोल पड़ा- “दादी, चाचा आया है, लेने को।” जबकि वस्तुतः तो वह अपनी साली साहिबा को लेने बस स्टैण्ड आया था, वो तो आयी नहीं, माँ जिसने पत्र भी लिखा था उसे लेने तो नहीं आया मगर… ?
वृद्धा के झुर्रियों- भरे चेहरे पर मुस्कान आ गई, “मैं न कहती थी, चिट्ठी, डाली है, देबु जरूर आएगा लेने।” वस्तुतः इसका शीर्षक ‘खुशफहमी’ होना चाहिए था।
आज के युग में यदि आपके पास बुद्धि हो और जोखिम उठाने का हौसला हो तो आपको लक्ष्य प्राप्ति से कोई नहीं रोक सकता। यही कथ्य है ‘मुर्दे’ लघुकथा का। इसकी प्रस्तुति एवं भाषा–शैली दोनों के सुन्दर समन्वय से यह रचना अच्छी बन गयी।
इस श्रेणी यानी समाज से जुड़ी लघुकथाओं में जनवाद के पक्ष में खड़ी होती सार्थक एवं प्रतिक्रियावादी लघुकथा है। जिसका शीर्षक भी कमाल का है। होटल के लड़के (कर्मचारी) की माँ से होटल का मालिक बलात्कार करता है तो अपनी माँ की इज्जत उतारने का बदला लेने उस रात लड़के ने काँच का गिलास और तोड़ दिया– और टूटा हुआ गिलास होटल मालिक के सीने में धँस गया। इसका शीर्षक ‘टूटा हुआ गिलास’ अधिक सटीक होता कारण पूरी लघुकथा टूटे हुए गिलासों के इर्द–गिर्द विकास पाती है।
हम आज जिस समय में जी रहे हैं वो समय ऐसा है जिसमें हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। इससे मुक्ति पाने हेतु आन्दोलन भी हुआ किन्तु परिणाम क्या निकला, टाँय–टाँय फिस्स! ऐसे में कोई भी संवेदनशील रचनाकार चुप कैसे बैठ सकता है। अतः श्याम सुन्दर ने इस विषय पर अनेक लघुकथाएँ लिखकर अपने दायित्व का निर्वाह काफी हद तक पूरा किया। भ्रष्टाचार पर उनकी लघुकथाओं में ‘सिटीजन चार्टर’, ‘सरकारी मेहमान’, ’वर्दी की ताकत’, ‘लोक सेवक’, ‘सिपाही’, ‘उत्सव’ और ‘जनसेवा’ मुख्य हैं।
‘सिटीजन चार्टर’ भ्रष्ट वर्तमान सरकारी कार्य–प्रणाली को प्रत्यक्ष करती एक साधारण लघुकथा है। सरकारी कर्मचारी सब आपस में एक होते हैं और काम न करने के सौ–सौ बहाने और कारण निकाल देते हैं और अन्य कर्मचारी भी उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिला देते हैं और जब तक कर्मचारी को इच्छित घूस नहीं मिल जाती तब तक कोई कुछ भी कर ले काम नहीं होता। यह इस लधुकथा का कथ्य है। यह सभी सरकारी कार्यालयों की सच्चाई है। लेखक ने मुद्दा भी ठीक उठाया है किन्तु प्रभावहीन प्रस्तुति के कारण यह लघुकथा अपना दम–खम नहीं दिखा पाती।
‘सरकारी मेहमान’ में भी लेखक ने सरकारी व्यवस्था का कच्चा–चिट्ठा प्रस्तुत किया है कि कैसे बड़े अधिकारी अपने निजी कार्य से कहीं जाते हैं, और उसे सरकारी कार्य से जोड़कर पूरा यात्रा–भत्ता वसूल कर लेते हैं। यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है। इसका शीर्षक भी कथ्य के सर्वथा अनुकूल है। इस लघुकथा की ये पंक्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं “इसका मतलब ये रात यहीं रुकेंगे?”
“यार, रात नहीं रुकेंगे तो टी.ए. का बिल कैसे बनेगा?”
“उनका तो टी.ए. का पैसा बनेगा, हाँ। पता नहीं कितना खर्च हो जाएगा।”
“यार! हमने कौन–सा जेब से लगाना है। सरकारी फण्ड्ज में से ही इधर–उधर करने हैं।”
“और इस इधर–उधर में अपने हाथ भी कुछ लगेगा ही।”
यह लघुकथा आज हर कार्यालय का कटु यथार्थ है। इसी में सरकारी खजाने प्रभावित हो रहे हैं और जनता महँगाई का दंश झेलने हेतु विवश है। निश्चित रूप से इस विषय पर लिखी गयी लेखक की एक अच्छी लघुकथा है।
‘वर्दी की ताकत’ का उद्देश्य तो सुन्दर है, किन्तु बात बन नहीं पायी और यह लघुकथा अपनी सही राह से भटक गयी और भटककर बिखर गयी।
इस लघुकथा का कथानक सत्य तो हो सकता है, किन्तु आज का यथार्थ नहीं। आज कोई भी पुलिसवाला वर्दी में हो या बिना वर्दी के दाम कम करा ही लेगा किन्तु मुफ्त सब्जी ले जाए, यह उसकी हिम्मत नहीं और सब्जीवाला उसे डंडा दिखाए यह भी यथार्थ नहीं है। और इस लघुकथा के चरम बिन्दु के रूप में लिखित वाक्य का भाव भी स्पष्ट नहीं होता कि वस्तुतः लेखक क्या कहना चाहता है। पंक्ति देखें- “जल्दी ही आपको हम सब भी वर्दी में नजर आएँगे।” यहाँ प्रश्न उठता है कि कैसे? ऐसी अविश्वसनीय लघुकथाओं से लेखक को बचना चाहिए।
‘लोक सेवक’ भी ‘सरकारी मेहमान’ वाले कथ्य का ही एक दूसरा रूप है। शिक्षा मंत्री और विभागीय सचिव ने विभाग के बड़े सप्लायर की बेटी की शादी में शामिल हेतु उस क्षेत्र के स्कूलों का सरकारी दौरा रख लिया, जिसका कुछ भी सार्थक परिणाम नहीं निकला। इसी बहाने लेखक ने इसमें एक दूसरा कथ्य भी मिला दिया कि आजकल सरकारी स्कूलों में न भवन है, यदि हैं तो छतें नहीं हैं। वहाँ खानापूर्ति हेतु कम्प्यूटर भेज दिए जाते हैं जिन्हें न तो रखने की जगह है और न ही कोई इसे चलाना जानता है। बिजली पूरा दिन वैसे ही नहीं रहती, तो कम्प्यूटर चलेगा, कैसे ? ऐसे में यह तो सरकार एवं बच्चों दोनों के साथ धोखा और विश्वासघात है। इसी यथार्थ को बेहतरीन ढंग से रखती है यह लघुकथा। ‘लोक सेवक’ इसका शीर्षक ठीक है जो एक व्यंग्य के रूप में अपने होने का धारदार एहसास कराता है। इसी क्रम में ‘उत्सव’ लघुकथा की चर्चा भी अनिवार्य प्रतीत होती है। यह लघुकथा मीडिया के स्वयं अपने प्रचार करने पर तीखी एवं कलात्मक चोट करती है। प्रत्येक दृष्टिकोण से यह सराहनीय लघुकथा है।
‘जन–सेवा’ भी व्यंग्यात्मक शीर्षक है जो इस बात पर व्यंग्य करता है कि लोकसेवक बने लोगों द्वारा नि:शुल्क खून जाँच और इलाज किया जा रहे हैं। लोग वहाँ आते हैं किन्तु बाद में उन्हें पता चलता है कि उनकी किडनी ही निकाल ली गयी है। वस्तुतः यह कार्य लोकसेवक के रूप में गुर्दों के सौदागर कर रहे हैं। ऐसे समाचार तो मीडिया प्रस्तुत करता ही रहता है। यह लघुकथा अच्छी है किन्तु इसमें और अधिक श्रेष्ठ बनने की कई संभावनाएँ शेष हैं जिन पर शायद लेखक का ध्यान नहीं गया।
अन्त में एक लघुकथा ‘सिपाही’ जो वस्तुत: भ्रष्टाचार से भिन्न एक अलग ही संवेदना का स्पर्श करती लघुकथा है कि सिपाही जीवन ऐसा क्यों है कि फौज में बिना दुश्मनी के सिपाही एक–दूसरे के दुश्मन हो जाते हैं।
दो शत्रु देशों के एक–दूसरे से सहानुभूति रखते दो सिपाहियों का संवाद काबिलेगौर है- “मेरी भी सभी चिन्ताएँ तेरे वाली ही हैं– बिलकुल वही कितनी अजीब बात है, है न– हमारे सुख–दुःख सब एक जैसे हैं। समझ नहीं आता फिर हम आपस में क्यों लड़ मरे?” इस लघुकथा में यह प्रश्न विचारनीय है। यही इस लघुकथा की सार्थकता भी है।
श्याम सुन्दर अग्रवाल यों तो संवेदनात्मक लघुकथाओं में दक्षता रखते हैं, किन्तु उन्होंने अन्य विषयों को भी अपनी लघुकथाओं का विषय बनाया है, अब यह बात अलग है कि उन्हें अन्य विषयों पर उतनी अधिक सफलता नहीं मिली जितनी संवेदनापरक लघुकथाओं में मिली है। यहाँ हम उनकी तीन लघुकथाओं ‘वापसी–1’, ‘सन्तू’ और ‘आँगन की धूप’ की चर्चा करेंगे। ‘वापसी–1’ और ‘सन्तू’ ये दोनों लघुकथाएँ मनोविज्ञान पर आधारित हैं और ‘आँगन की धूप’ आज की बड़ी समस्या पर्यावरण पर केन्द्रित है। आज पर्यावरण पर अधिक लिखने की ज़रूरत है।
‘वापसी–1’ में फैशन के कपड़े पहने, उजले बातों को काले रंग के करीने से सेट कराके नायक अपने को पूरी तरह युवक समझने लगता है। किन्तु सामने बैठी युवती का उसकी तन्द्रा भंग करते यह कहना, “अंकल, जरा मैगज़ीन देना।” उसे पूरी तरह धरातल पर ला देता है।
बाल रंग कर और रंग–रंगीले कपड़े पहनकर कोई अधेड़ युवक नहीं बन सकता, उम्र अपना प्रभाव सदैव प्रत्यक्ष करती है। इसी मनोविज्ञान को स्थापित करती है यह लघुकथा। यह लघुकथा प्रत्येक दृष्टिकोण से एक अच्छी लघुकथा है।
मनोविज्ञान कहता है कि जब तक आस रहती है तब तक व्यक्ति सक्रिय एवं स्वस्थ रहता है, किन्तु जैसे ही आस की डोर टूटती है तो व्यक्ति भी टूट जाता है और वह किसी काम का नहीं रहता। यही मनोविज्ञान स्पष्ट हुआ है ‘सन्तू’ लघुकथा में। इस लघुकथा का निरूपण भी सुन्दर ढंग से हुआ है, किन्तु यह रचना अपनी सटीक भाषा–शैली के अभाव में वह प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पायी जिसकी अपेक्षा थी। फिर भी अपने कथ्य के कारण यह लघुकथा महत्त्वपूर्ण है।
आजकल शहरों में हर ओर ऊँचे–ऊँचे भवनों के बनने से धूप के न मिलने तथा इस कारण पौधों के पनपने से उठ रही पर्यावरण की समस्या को रेखांकित करती ‘आँगन की धूप’ एक अच्छी लघुकथा है, जो जहाँ बड़ी इमारतों की समस्या को रेखांकित करती है वहीं पौधों को धूप न मिलने से उनके मुरझाने की समस्या पर भी सुन्दर ढंग से प्रकाश डालती है। श्याम सुन्दर को पर्यावरण जैसे ज्वलंत विषयों पर अन्य अनेक लघुकथाएँ लिखनी चाहिए।
श्याम सुन्दर ने विभिन्न विषयों पर अनेक प्रकार की लघुकथाएँ लिखी हैं, उन्हीं में कुछ ऐसी लघुकथाएँ मेरे समक्ष हैं, जिनके कथानक पर विश्वास करना संभव नहीं होता। यहाँ डॉ सतीशराज पुष्करणा के इन शब्दों से सहमति जताते हुए, “सत्य और यथार्थ में बहुत अंतर है। सत्य वह जो आँखों देखा है। कभी–कभी आँखों देखा भी ऐसा होता है जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता जैसे किसी व्यक्ति के हाथों में छः उँगलियाँ हों, ऐसा सत्य हो सकता है, किन्तु इसे यथार्थ नहीं कहा जा सकता। यथार्थ तो यही है कि प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में पाँच उँगलियाँ ही होती हैं। यथार्थ आँखों देखा सत्य नहीं भी हो सकता किन्तु वह विश्वसनीय तो होगा ही। अतः साहित्य में यथार्थ का स्थान मान्य और महत्त्वपूर्ण है। “मैं कहना चाहूँगा कि श्याम सुन्दर की ‘खुशखबरी’, ‘डर’, ‘तीस वर्ष के बाद’, ‘योद्धा’, इत्यादि कुछ ऐसी लघुकथाएँ हैं जिनके कथानक सत्य तो हो सकते हैं किन्तु अविश्वसनीय होने के कारण हमारे सामाजिक जीवन का यथार्थ नहीं। जो यथार्थ नहीं उसे साहित्य में बहुत सहजता से मान्यता नहीं दी जा सकती। हाँ! कहीं फैंटेसी शिल्प को लेकर लिखी गयी रचनाएँ अपवाद हो सकती हैं। ‘खुशखबरी’ श्यामसुन्दर की ऐसी लघुकथाओं में एक है। यह न मात्र अविश्वसनीय है, अपितु नकारात्मक एवं पलायनवादी संदेश देने वाली सतही रचना भी है। ‘डर’ लघुकथा भी अविश्वसनीय श्रेणी की एक लघुकथा है। जिसमें दस वर्षीय बच्ची को इस बात से चिन्तित दिखाया है कि वह अपना इलाज नहीं करायगी क्योंकि इलाज में काफी पैसे खर्च होंगे। यदि उसके इलाज में इतने पैसे खर्च हो जाएँगे तो उसकी बड़ी बहन की शादी कैसे होगी ? यह चिन्ता तो आज की सयानी संतानें नहीं करतीं तो दस वर्षीया बच्ची कैसे करेगी ? यों यदि इसे यथार्थ से दूर मान लिया जाए तो इसके शेष पहलुओं पर विचार करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
‘तीस वर्ष के बाद’ में जीवन का यथार्थ तो नहीं, हाँ! फिल्मी कहानी जरूर दिखती है जो हमें रंजन तो दे सकती है, साहित्यिक संतोष नहीं। ऐसी अविश्वसनीय घटनाएँ अखबारों की खबरों के रूप में पढ़ने में अच्छी लगती हैं। वस्तुत: ये समाचार–पत्रों के समाचार ही होते हैं, हो सकते हैं। साहित्यिक स्तर पर जीवन का यथार्थ नहीं, जो रचना जीवन के यथार्थ से अलग हो, उसका साहित्यिक महत्त्व ही क्या ?
इसी श्रेणी की एक और लघुकथा ‘योद्धा’ देखें जो अव्यवहारिक एवं अविश्वसनीय तो अवश्य है किन्तु वह एक सार्थक प्रश्न अवश्य ही छोड़ जाती है कि कानून बनाते समय मात्र एक ही पक्ष पर विचार नहीं करना चाहिए। उसके अन्य पक्षों पर भी विचार करना चाहिए, जिससे आमजन को राहत मिल सके। किन्तु यह रचना और कुछ न भी करे सरकारी कानून के कमजोर पक्षों की ओर संकेत करते हुए अपने रचना–धर्म का निर्वाह तो अवश्य ही करती है।
लेखक की लघुकथाओं में कतिपय लघुकथाएँ जैसे- ‘भिखारिन’, ‘नौजवान रिक्शावाला’, ‘रहबर’ और ‘घर’ ये चार लघुकथाएँ ऐसी हैं जिनके शीर्षक से सहमत होना कतई संभव नहीं अपितु उचित शीर्षक नहीं होने के कारण इन लघुकथाओं के पूरे व्यक्तित्व पर खराब असर पड़ा है और ये रचनाएँ श्रेष्ठता की सीमा से दूर हो गयीं। लघुकथा–सृजन जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही महत्त्वपूर्ण उसका शीर्षक रखना भी है और विशेष रूप से लघुकथा में। जो लघुकथा लेखक इसके शीर्षक के प्रति गंभीर नहीं होता उसकी रचनाएँ प्रायः श्रेष्ठता की सीमा से दूर हो जाती हैं। श्याम सुन्दर की इन लघुकथाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ है।
अब अन्त में निष्कर्ष के रूप में यह बताना चाहता हूँ कि श्याम सुन्दर की ‘माँ का कमरा’, ‘एक उज्ज्वल लड़की’, ‘टूटी हुई ट्रे’, ‘गिद्ध’, ‘भिखारिन’, ‘बोझ’, ‘बँटवारे का अधिकार’, ‘बेटी का हिस्सा’, ‘बेड़ियाँ’, ‘राँग नम्बर’, ‘रावण’, ‘लड़की का बाबा’, ‘बच्चा’, ‘कर्ज़’, ‘शहीद की वापसी’, ‘घर’, ‘इच्छा’, ‘इतिहास’, ‘सदा सुहागिन’ इत्यादि कतिपय कुछ ऐसी लघुकथाएँ हैं जो लघुकथा के सारे मानदंडों पर भले ही पूरी न उतरती हों, किन्तु हृदय के स्तर पर वे अवश्य ही स्पर्श करती हैं, संवेदित करती हैं या वह पाठक को उसकी आँखों में उँगलियाँ डालकर उसे जगाकर यथार्थ के धरातल पर खड़ा करके जीवन की सच्चाइयों से रू–ब–रू करते उनसे संघर्ष करने हेतु प्रेरित करती हैं ताकि व्यक्ति अपने गिरते हुए जीवन स्तर को क्रमशः ऊपर उठाने हेतु सक्रिय हो सके, वस्तुतः हुए किसी भी अच्छी रचना का यही धर्म भी है।
रही विधा के मानदंडों पर पूरा उतरने की तो सच्चाई यही है कि जब लेखक लिखता है तो वह रचनाकार होता है, उसके सामने उसे जो कहना है वह होता है तथा किस तरह कहना है वह होता है, कहीं–कहीं रचना के पात्र लेखक से उसकी इच्छा के विरुद्ध भी बहुत कुछ लिखवा लेते हैं और रचना को एक भिन्न स्वरूप दे देते हैं। यह जानना अनिवार्य है कि पहले रचनाएँ होती हैं, मानदंड उन्हीं रचनाओं को केन्द्र में रखकर बनाए जाते हैं। लघुकथा भी इसका अपवाद नहीं है। श्याम सुन्दर की अधिकांश लघुकथाएँ विशेष रूप से संवेदनापरक लघुकथाएँ आने वाली पीढ़ियों हेतु मानक बन सकती हैं, संवेदना रचना को स्वत: पाठकों के निकट ले जाती है और उससे उसका घनिष्ठ संबंध बना देती हैं। श्याम सुन्दर की अनेक लघुकथाएँ ऐसी हैं जिनके नामों का उल्लेख भर किया गया है। मुझे श्याम सुन्दर अग्रवाल जी से लघुकथा के विकास हेतु बहुत आशाएँ हैं विश्वास है वे हिन्दी एवं पंजाबी लघुकथा के विकास हेतु पूरी त्वरा से सक्रिय रहकर उत्कृष्ट रचनाओं से इस विधा को सजाते–सँवारते रहेंगे।
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