Quantcast
Channel: लघुकथा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

हिन्दी-लघुकथा: संरचना और मूल्यांकन

$
0
0

हिन्दी-लघुकथा को यदि ‘कथा’ का नया, आधुनिक एवं विकसित स्वरूप मान लिया जाए तो लघुकथा की संरचना को भी मुख्यतः दो तत्त्वों में विभाजित करके उसकी तह तक पहुँचा जा सकता है। यथा 1- कथानक (कथा-वस्तु) एवं 2- शिल्प और शिल्प के छः उपतत्त्व हैं-1- चरित्र-चित्रण, 2- कथोपकथन (संवाद), 3- भाषा और शैली, 4- देशकाल (परिवेश), 5- उद्देश्य और 6- शीर्षक ।

1- कथानक (कथा-वस्तु): कथानक को अंग्रेजी में प्लॉट कहा जाता है। अरस्तु के अनुसार कथानक-कार्य का अनुकरण और घटनाओं का संगुम्फन है। कार्यानुकरण में सम्पूर्णता होनी चाहिए । इसमें आदि, मध्य और समापन का होना आवश्यक है। कथानक का रूप ऐसा होना चाहिए कि वह पात्रें के चारित्रिक विकास में उतार-चढ़ाव पैदा कर सके ।

‘कथानक’ के दो भेद होते हैं-सरल और जटिल । सरल कथानक एकोन्मुखी होता है। इसकी भाग्य-विडम्बना में विपर्यय के लिए कोई अवकाश नहीं रहता । जटिल कथानक में अनेक प्रकार के विरोध, विपर्यय आदि दिखाई पड़ते हैं (आधुनिक हिन्दी-आलोचना के बीज शब्द (पृष्ठ 29) । सरल कथानक जिसमें मात्र एक ही घटना होती है और इसका कालक्रम निरन्तर होता है। यही सरल कथानक लघुकथा के लिए होते हैं। लघुकथा कथानक के स्तर पर ही ‘उपन्यास’ और ‘कहानी’ से भिन्न होती है। अतः, लघुकथा हेतु हमें रंजनात्मक सरल कथानक का ही चुनाव करना चाहिए । और वह घटना सत्य-सी आभासित न होकर यथार्थ या यथार्थ के निकट तथा विश्वसनीय होनी चाहिए । यह यथार्थपरकता न मात्र नकारात्मक संदेशरहित हो अपितु इसके विपरीत वह सकारात्मक का दिशा-बोध भी करती हो ।

जीवन में घटता प्रत्येक जीवन्त क्षण लघुकथा का कथानक हो सकता है, बशर्त्ते उसका निरूपण एवं प्रतिपादन इतना सम्प्रेषणीय, चुस्त कसावपूर्ण, क्षिप्र और प्रवाहमान तथा उसका शिल्प कथानक के इतना अनुरूप और सटीक होना चाहिए जैसे किसी मानव की हू-ब-हू तैयार कलात्मक मूर्ति जो अपने बोलने का-सा भ्रम उत्पन्न करती हो । तात्पर्य यह है कि उसमें प्रभावोत्पादकता इतनी जबरदस्त होनी चाहिए कि पाठक सीधा लेखक के उद्देश्य तक पहुँच जाए । इस प्रभावोत्पादकता को उत्पन्न करने में उसकी आकारगत लघुता एवं क्षिप्रता जो भीतर से काफी विस्तार लिए हो, चरमबिन्दु, समापन बिन्दु और शिल्प के महत्त्वपूर्ण उपतत्त्व सटीक ‘शीर्षक’ जो लघुकथा का अभिन्न अंग बनकर उभरे आदि की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

2- शिल्प: शिल्प को अंग्रेजी में ब्तंजि कहते हैं किन्तु साहित्य में यह शिल्प हेतु सटीक शब्द नहीं है । साहित्य में ‘शिल्प’ से तात्पर्य रचना को सौंदर्य प्रदान करने वाला एवं पठनीय बनाने वाला तत्त्व जिसे छः उपतत्त्वों में विभक्त किया जा सकता है।

शिल्प के उपतत्त्व:

1- चरित्र-चित्रण: अक्सर ही एक श्रेष्ठ और आदर्श लघुकथा में भीड़ आदि की स्थिति को छोड़कर दो-तीन या चार पात्रें से अधिक की गुंजाईश नहीं होती । लघुकथा के पात्र हमारे जीवन में आस-पास चलते-फिरते हुआ करते हैं। लघुकथा-लेखकों को अपनी लघुकथा से प्रस्तुत परिवेश के अनुकूल तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से अपने पात्रें के नाम तथा चरित्र को इस हद तक उभारना चाहिए कि उनका जीता-जागता चित्र उसके जीवन-तत्त्वों का चेतन संगठन करते हुए प्रस्तुत कर सके। वह मानव के गुण-दोष, हर्ष-विवाद, विरह-मिलन की अनुभूतियों को परिस्थिति विशेष में अपने पात्रें के जीवनक्रम में रूपायित कर सके। उनके जीवन का चित्रण इतना स्वाभाविक और मार्मिक हो कि वह पाठक के हृदय को कहीं भीतर तक स्पर्श कर सके तथा उनमें दबी जिज्ञासा को जाग्रत कर सके। पात्रें में जूझने की शक्ति तथा संघर्ष (टकराहट या तनाव) आदि को उभारने से पात्र पाठकों के करीब आकर सहानुभूति प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी लघुकथाएँ सार्थक भी होती हैं और पसन्द भी की जाती हैं ।

2- कथोपकथन (संवाद): लघुकथा में कथोपकथन का अत्यधिक महत्त्व होता है। कई लघुकथाएँ तो मात्र कथोपकथन में ही पूर्ण हो जाती हैं। लघुकथा में कथोपकथन के माध्यम से आये पात्रें और उनके चरित्रें तथा परिवेश का वर्णन किये बिना भी उसे सहज वार्त्तालाप के माध्यम से ही लघुकथा के कथ्य को पाठकों तक बहुत ही सहजता से संप्रेषित किया जा सकता है। लघुकथा के पात्र प्रायः अपनी बातचीत के द्वारा ही पाठक को अपने में, अपने अनुकूल, अपनी भावनाओं में बहा ले जाते हैं और यही वह स्थिति है जिससे पाठक प्रभावित होता है। कारण, संवादों में प्रयुक्त एक-एक शब्द और पात्रें द्वारा प्रस्तुत भाषा (जिसे उच्चरित भाषा कहा जाता है) और चरित्रें द्वारा अपनाई गई शैली का जीवन्त, सटीक एवं कालानुकूल होना अनिवार्य है। संवादों में शब्दों का चयन बहुत ही सतर्कता के साथ-साथ यथार्थ के धरातल पर बहुत ही चुस्ती के साथ होना चाहिए । लघुकथा-लेखक को कथोपकथन में पात्र का वर्ग, स्तर, परिवेश, मिजाज एवं उम्र को भी पूरी तरह मद्देनजर रखना चाहिए । यही बातें उस पात्र का चरित्र कहलायेंगी । कथोपकथन में एक बात का ध्यान सदैव रखना चाहिए कि इसके अन्तर्गत वे प्रसंग भी व्यक्त हों जो कथानक की आवश्यकता के अनुसार हों । फालतूपन की कहीं गुंजाईश नहीं होनी चाहिए ।

3- भाषा और शैली: लघुकथा में दो प्रकार की भाषाओं का समानान्तर रूप में उपयोग होता है। पहली तरह की तो वह, जो लघुकथा में लेखक अपनी ओर से कहता है, प्रस्तुत करता है। दूसरी तरह की वह, जो पात्र और पात्रें के चरित्र बोलते हैं/ अभिव्यक्त करते हैं। लघुकथा में दोनों प्रकार की भाषाओं का महत्त्व होता है। लेखक लघुकथा को प्रभावकारी एवं सम्प्रेषणीय बनाने हेतु अपनी मौलिक शैली प्रस्तुत करता है, और यही शैली लेखक की अलग पहचान उपस्थित करती है, बनाती है। किन्तु श्रेष्ठ और बहुत ही स्वाभाविक लघुकथाओं में मेरे विचार से लेखक को अपनी ओर से कुछ नहीं कहना चाहिए, या यों कहिए लेखक की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए जब तक कि वह ‘मैं’ पात्र के रूप में न हो । लेखक को अपनी ओर से तभी कुछ कहना चाहिए जब कथानक या प्रस्तुति की अपरिहार्य माँग हो । लघुकथा के पात्रें के द्वारा ही सब कुछ कहलवाना श्रेष्ठ लघुकथा का एक विशिष्ट गुण होता है। लघुकथा का समापन यदि किसी पात्र के संवाद से होता है तो अपेक्षाकृत वह अधिक सहज एवं प्रभावकारी बन जाती है। कुछ लघुकथाएँ तो संवादों में ही पूरी हो जाती हैं। यह स्थिति कथानक की आवश्यकता पर निर्भर करती है। संवादों वाली लघुकथाओं में निश्चित रूप से उच्चरित भाषा (चरित्रनुकूल भाषा) का ही सटीक उपयोग होता है, होना चाहिए ।

शैली का सामान्य अर्थ साहित्यिक अभिव्यंजना की प्रविधि है। शैली अंग्रेजी के स्टाईल (ैजलसम) शब्द का पर्याय है। शैली का सम्बन्ध पूर्णतः वैयक्तिकता से है। शैली का संबंध केवल साहित्य से ही नहीं होता, बल्कि अन्य कलाओं से भी होता है। शैली अभिव्यक्ति की विशिष्ट शैली पद्धति होती है और अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में लेखक का अपना उद्देश्य, स्वभाव, दृष्टिकोण, जीवन-प्रणाली, आस्था, विश्वास, संदेह आदि व्यक्त होते चलते हैं। यही उसकी अस्मिता है।

शैली के विषय में मेरे विचार से एक बात और जान लेना आवश्यक प्रतीत होता है कि शैली में केवल लेखक का व्यक्तित्व ही नहीं उभरता अपितु समसामयिक लेखन-चिन्तन-प्रणाली का संघर्ष भी साथ-साथ उभरता है। यह संघर्ष (टकराहट या तनाव) जितना तीखा और सान्द्र होगा अभिव्यक्ति भी उतनी ही सशक्त और कालजयी होगी । अन्य साहित्यरूपों की भाँति ही ‘लघुकथा’ में भी शैली की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

4- देशकाल (परिवेश) या वातावरण: लघुकथा में देशकाल का भी महत्त्व है। कारण देशकाल के अनुसार कथानक की प्रस्तुति, संवाद और भाषा का उपयोग किया जाता है। मिथकीय लघुकथाओं को छोड़कर अधिकतर लघुकथाएँ हमारी सभ्यता, संस्कार और संस्कृति तथा वर्तमान संदर्भों से ही जुड़ी होती हैं। और इसी प्रकार की लघुकथाएँ और अधिक पसन्द की जाती हैं। कारण मनुष्य बिना किसी तामझाम के वर्तमान परिस्थितियों से सीधा साक्षात्कार करना चाहता है -उनसे दो-चार होना पसन्द करता है। मिथकीय लघुकथाएँ भी वर्तमान संदर्भों से जोड़कर ही लिखी जाती हैं, प्रस्तुत की जाती हैं। अतः अच्छी लघुकथा लिखते समय देशकाल को भी महत्त्व देना श्रेयस्कर होता है। यही देशकाल इतिहास बनता है तथा तत्काल की सभी स्थितियों से कालान्तर को अवगत कराता है ।

5- उद्देश्य: किसी भी कथा श्रेणी का प्रथम उद्देश्य ‘रंजन’ होता है। जिससे पाठक में रचना के प्रति रुचि एवं जिज्ञासा बनी रहे । लघुकथा में दूसरा उद्देश्य यह होना चाहिए कि हम अपनी लघुकथा के माध्यम से पाठक को स्थितियों/परिस्थितियों के माध्यम से यह सम्प्रेषित कर दें कि उन्हें क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए । यानी उसमें प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप में कोई ‘मानवोत्थानिक सन्देश’ बहुत ही स्वाभाविक रूप से ध्वनित या आभासित होना चाहिये । वस्तुतः लघुकथा मानव-जीवन सम्बन्धी समस्याओं पर प्रकाश डालती तथा समाधान की और कभी प्रत्यक्ष तो परोक्ष रूप से संकेत भी करती है।

लघुकथा लिखने से पूर्व उद्देश्य के रूप में कथानक भले ही लेखक के मानस-पटल पर बहुत स्पष्ट न हो किन्तु ‘कथ्य’ यानी जिसे रचना के माध्यम से ‘कहना’ है, लघुकथा का उद्देश्य होता है। निरुद्देश्य लघुकथा ही क्या, कोई भी सृजन व्यर्थ की बात है।

यहाँ यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि प्रत्येक लघुकथा में प्रत्येक उपतत्त्व का उपयोग हो ही यह अनिवार्य नहीं है, किन्तु संवाद, भाषा-शैली, उद्देश्य, शीर्षक तो प्रत्येक लघुकथा में आ ही जाते हैं ।

6- शीर्षक: अन्य विधाओं की अपेक्षा लघुकथा में शीर्षक का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है, कारण यह कि लघुकथा एक लघुकआकारीय एवं क्षिप्र विधा है, जिसमें नपे-तुले शब्दों में ही अपनी बात कहनी होती है, अतः इस विधा में सांकेतिकता एवं प्रतीकात्मकता का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। लघुकथा में उसकी संप्रेषणीयता हेतु वैसे ही सटीक शीर्षक से काम लिया जाता है। तात्पर्य यह कि उसे सारप्रज्ञ होना चाहिए । लघुकथाओं में अनेक ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं कि वे लघुकथाएँ अपने शीर्षक के कारण ही न मात्र श्रेष्ठता का शिखर स्पर्श कर गयीं, अपितु उनकी गणना कालजयी लघुकथाओं में होने लगी । लघुकथा का शीर्षक अपनी रचना से अपेक्षाकृत कहीं अधिक श्रम एवं सोच की माँग करता है।

किसी भी लघुकथा का मूल्यांकन करते समय हमें भाषा एवं देशकाल में यह देखना चाहिए कि इसमें कहीं ‘कालदोष’ तो नहीं है। कालदोष से तात्पर्य यह कि हमारे पात्र एवं उनके संवाद, भाषा-शैली, देशकाल एवं परिवेश के सर्वथा अनुकूल हों। ऐसा न हो कि चर्चा मुगल-काल की हो और भाषा वैदिक काल की या पात्र महाभारत काल के । कालदोष रचना में बहुत बड़ा दोष माना जाता है। ‘कालत्व’ दोष का ध्यान भी रखना चाहिए कि लघुकथा की प्रस्तुति कालांतर न आ जाए यदि ऐसी विवशता आ जाए तो पूर्व दीप्ति (फ्रलैशबैक) शैली का उपयोग करना चाहिए ।

संक्षेप में लघुकथा के रचना-विधान को यों व्यक्त किया जा सकता है, लघुकथा जो विश्वसनीय मानवोत्थानिक कथ्य, प्रासंगिक कथानक, सटीक भाषा और शैली, जीवन्त-संघर्ष, रंजन, संप्रेषणीय प्रस्तुति, हृदयस्पर्शी चरम बिन्दु के साथ-साथ सभी कथा-तत्त्वों, उपतत्त्वों को वर्तमान की ज़मीन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में समाहित किये एक यथार्थवादी/यथार्थवादी-सी रचना के रूप में कोई-न-कोई मानवोत्थानिक संदेश लिए आती है। लघुकथा, कथा का ही आधुनिक और विकसित स्वतंत्र स्वरूप या विधा है। अतः यह समाचार, चुटकुला, लतीफा, रिपोर्टिंग, कहानी में प्रवेश-सा वक्तव्य, गद्य गीत, संस्मरण, दृश्यग्राफी आदि न बन जाये अपितु  इसमें गद्यात्मक कथापन की उपस्थिति अपरिहार्य है।

लघुकथा-मूल्यांकन/समीक्षा/आलोचना/समालोचना करते समय मेरे विचार से सर्वप्रथम यह देखना चाहिये कि वह कहाँ तक प्रभावित करती है या कितनी हृदयस्पर्शी यानी संवेदनायुक्त है ? इसके बाद उसमें मानवोत्थानिक किन्तु नकारात्मकता रहित संदेश ढूँढ़ना चाहिए । इसके बाद शिल्प को देखना चाहिए कि वह कथानक के सर्वथा अनुकूल है या नहीं ? कारण अधिकतर रचनाएँ प्रतिकूल शिल्प के कारण ही अपना प्रभाव खो देती हैं। कथ्य और कथानक के अनुसार आकार को भी देखना चाहिए, कारण आकारगत लघुता और क्षिप्रता भी लघुकथा की एक विशेषता है। रचना सम्प्रेषणीय है या नहीं-यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है। भाषा, पात्र एवं उसके चरित्रनुकूल ही होनी चाहिए। कथोपकथन में एक शब्द भी फालतू नहीं होना चाहिए। फालतूपन से लघुकथा विकृत हो जाती है। कारण इसी फालतूपन के कारण ही कालत्व दोष उत्पन्न होता है और कालत्व लघुकथा का एक दोष है जो लघुकथा को कहानी होने का एहसास कराने लगता है।

मूल्यांकन करते समय शीर्षक पर भी गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। लघुकथा का शीर्षक उसके एक महत्त्वपूर्ण अंग की तरह होना चाहिए न कि मात्र औपचारिकतावश । लघुकथा,लघुकथा ही होनी चाहिए । समाचार की कतरन, दृश्यग्राफी, वक्तव्य, गद्य-काव्य, चुटकुला या कहानी में प्रवेश-सा नहीं । कथ्य प्रासंगिक एवं मानवोत्थानिक होना चाहिए । लघुकथा किसी अन्य कथा-रचना से प्रभावित तो नहीं है? यह देखना भी ज़रूरी है। समीक्ष्य रचना में यदि कोई प्रयोग किया गया है तो यह देखना चाहिए कि वह कितना सार्थक/उपयोगी है और लघुकथा को समृद्ध करता है या नहीं ? प्रयोग ऐसा होना चाहिए जो लघुकथा को लघुकथा ही रहने दे, उसे अन्य विधा में प्रवेश न करा दे ।

व्यंग्य लघुकथा में हो सकता है किन्तु यह लघुकथा की अनिवार्यता कतई नहीं है, यह बात भी ध्यान देने योग्य है। लादा हुआ व्यंग्य लघुकथा को सतही बना देता है। लघुकथा का आकार शब्दों में नहीं, कथानक के अनुसार होना चाहिए । लघुकथा की समीक्षा करते समय कथानक को केन्द्र मानकर चलना चाहिए । मेरे विचार से इन बातों को मद्देनजर रखकर हम किसी भी लघुकथा का मूल्यांकन एवं उसके प्रति न्याय आसानी से कर सकते हैं।

-0-डॉ सतीशराज पुष्करणा,लघुकथानगर’, महेन्द्रू,पटना-800 006 (बिहार),: 829843663, 9006429311


Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>