भूमंडलीकरण के इस दौर में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ एशिया के सस्ते श्रम और विस्तृत बाजार को ललचाई नजरों से देख रही है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में उत्पादन और व्यापार के लिए तो आ ही रही है साथ में अपनी वर्क कल्चर और पश्चिमी संस्कृति भी ला रही है। वे हमारी भाषा, वेषभूषा, खान -पान , रहन -सहन को तो प्रभावित करती है , अतिस्वार्थ का बिरवा रोप कर हमारे पारम्परिक सम्बन्धों में जहर भी घोल रही है बच्चों को कैरियर ओरियंटेड बनाकर, देश , समाज और परिवार से भी काट दिया है।
संचार के तमाम साधनों पर ग्लेमरस विज्ञापन देकर उपभोक्ता प्रवृत्ति को बढ़ाया जा रहा है। उच्च जीवन स्तर का अर्थ है अधिक वस्तुओं का अधिक मात्रा में उपयोग करना । इसके लिए कर्ज की व्यवस्थाएँ फैलाई जा रही है , जिसें देश भी डूबे हैं और परिवार भी ।
भूंमडलीकरण लाभ और अधिक लाभ कमाकर करोडों को बेरोजगारी और गरीबी की ओर धकेल रहा है। विरोध के स्वर विकसित देशों में उभरने लगे हैं ऑकूपाई वॉल स्ट्रीट जैसे प्रदर्शन अमेरिका ही नहीं यूरोप के विकसित देशों में हो रहे है। लालची लौंडे पर नकेल कसने का काम अब आम जनता कर रही है ।
प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन ने हमारे लिए नये संकट पैदा कर दिए हैं। ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से भूमंडल का ताप बढ़ रहा है। और इस स्थिति को तुरंत न रोका गया तो अगले पचास साल में जलवायु में इतना परिवर्तन हो जाएगा कि उसमें पुनः संतुलन बनाने की संभावना ही समाप्त हो जाएगी । पर्यावरण का प्रश्न आज के समय का मुख्य प्रश्न बन गया है ; क्योंकि यह अब जीवन -मरण का प्रश्न हो गया है।
इस दौर में हमारी भाषाएँ लुप्त हो रही है, लोक- गीत, संगीत, नृत्य सभी को आज संरक्षण की जरूरत पड़ रही है इस दौर ने हमारे जीवन मूल्यों को प्रभावित किया है , सादगी अब दरिद्रता मानी जाने लगी है बचत करने वाला अब कंजूस हो गया है , मौज करेा की संस्कृति फैलाई जा रही है , जनता की अरबों -खरबों की कमाई लड़ाइयों और आयुधों में समाप्त हो रही है । क्षेत्रीय ल़ड़ाइयों का खेल खेलकर अमेरिका पूरे विश्व पर अपनी धौंस जमा रहा है।
फिल्म व टी.वी सितारों , खिलाडि़यों ,मॉडलों को सैलिब्रिटी बनाकर मीडिया जनता के सामने रोज परोस रहा है वे लोग भी सैलिब्रिटी बन गए हैं ,जो पेज 3- पर फोटो सहित उपस्थित होते है एक खोखलापन ग्लेमरस युग में प्रवेश कर रहा है , जिनके हाथों में डौर है वे जानते है वे क्या कर रहे है , और क्यों कर रहे है।
दुनिया एक बाजार हो गई है, मुक्त व्यापार का नारा बुलंद है , प्रतिबंध हटाए जा रहे है आत्मनिर्भरता एक बेकार धारणा बनकर रह गई है।
कांक्रिट के जगंल खड़े हो रहे है, जंगल और खेती की जमीन कम होती जा रही है। खेती करना अलाभकारी हो गया है खेती की लागत बढ़ी है; लेकिन लागत के अनुसार फसलों के दाम नहीं मिल रहे , सब्सीडी हटाए जाने का दबाव है। किसान कर्जे में डूबे आत्म हत्याएँ कर रहे हैं।
वर्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन, आई एम एफ , वर्ड बैंक और ऐसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएँ जिन पर जी-7 देशों का वर्चस्व है एशिया , अफ्रीका और लेटिन अमेरिकी देशों के शोषण का सबब बन रहा है।
पूरे विश्व में प्राकृतिक संपदा की लूट मची है इस लूट के लिए करोड़ों की रिश्वत दी जा रही है । हाशिए पर पड़े लोगों की परवाह करनेवाला कोई नहीं है। मुख्य धारा की पार्टियाँ वंचित लोगों की चिन्ता नहीं करती है बल्कि वे उच्च वर्ग और मध्यमवर्ग के हितों का ही पोषण करती है।
एक धुव्रीय विश्व के ग्लोबल विलेज में इस नये साम्राज्यवाद से निपटने की ताकते अभी उभरी भी नहीं हैं समतावादी और समाजवादी सोच के लोग बिखरे पड़े हैं और इस निजाम से निपटने की कोई रूपरेखा नहीं बना पा रहे हैं ।
कुछ व्यक्ति , ग्रुप या स्वतः स्फूर्ति आंदोलन इस महाशक्ति से कैसे लोहा लेंगे ! वैसे अपने ही अंतविरोधों से यह भर भरा जाए तो बात अलग है आज की मंदी , अगर विश्व स्तर पर निंयत्रित नहीं हो पाई तो अर्थ व्यवस्थाएँ चौपट हो सकती हैं। ऐसे समय में लोगों को सावचेत करने का काम साहित्य कर सकता है।
इस भूमंडलीकरण के एकीकृत गाँव ने उत्पादन वितरण निवेश बेंकिग व बाजार को ही प्रभावित नहीं किया है; बल्कि जीवन शैली और जीवन मूल्यों में भारी बदलाव किया है एषिया के पारम्परिक समाजों में भारी उथल -पुथल मची है। भारतीय समाज में पारिवारिक व सांस्कृतिक मूल्यों को लेकर अत्यधिक लगाव है ; लेकिन पीढ़ी -दर-पीढ़ी इनका क्षरण हो रहा हैं और वैश्विक नागरिक अन्तर्राष्ट्रीय जीवन शैली और जीवन मूल्यों को अपनाता जा रहा है जो बाजार, व्यक्तिवाद और उपभोक्तवाद को उच्च स्तर पर ले जाते है।
भूमंडलीकरण को संभव बनाने में संचार के साधनों का बड़ा योगदान है , सैटेलाइट , टी.वी. कम्प्यूटर , मोबाइल , फोन , लैपटॉप , और भी गैजेट से है जो संदेशों को तुरंत -फुरत विश्व के कोने – कोने तक पहुँचा सकते हैं। ज्ञान का अथाह सागर है इंटरनेट । इंटरनेट पर सब उपलबध है। योग , आयुर्वेद, होम्योपेथी , विज्ञान , तकनीक और तमाम क्षेत्रों का ज्ञान इस ज्ञान कोष में है। खरीदना हो बेचना हो , लोगों से जुड़ना हो , विवाह रचाना हो , फेसबुक जैसी साइट से आन्दोलन तक खड़े हुए है. ‘प्रेमब्लाग’ में सतीश दुबे बताते है कि इन्टरनेट ने पुराने प्रेमियों को प्रौढ़ावस्था में जोड़ा है , प्रेम की कोपलें फिर फूटने लगी है , ब्लाग के माध्यम से ये प्रेम कथा चलती है ।
‘गुरुदक्षिणा’ (सतीश दुबे) का नया अंदाज देखिए । शिक्षिका के प्रेम में पड़े शिष्य ने ‘ऑरकुट पर शिक्षिका की ‘लव मी नाम से प्रोफाइल बना दी। इतना ही नहीं , इस प्रोफाइल में इस शिष्य ने अश्लील सूचनाएँ और परिवार के सदस्यों के मोबाइल नम्बर डाल दिए ।नतीजन आने वाले अश्लील फोन से परिवार के लोग परेशान होने लगे । ‘साइबर साहित्य’ (सतीश दुबे) में पोर्न साइट पर सर्फ करते किशोर , युवा और प्रौढ़ सभी को देखा जा सकता है। लेखक ने इस बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता प्रकट की है ।
इंटरनेट पर चैटिंग का चस्का लगते क्या देर लगती है। अपने भीतर उछलती उत्तेजना को महसूस करना, प्रौढ़ा के लिए आसान है कि वह अपने को टीन ऐज बताकर अति प्रसन्न है , तो उधर प्रौढ़ पुरुष भी अपने को युवा बताकर ही उससे चैट कर रहा है एक उत्तेजना की खोज में है दोनों। लेकिन एक दूसरे को ‘चीट करके ही कामोत्तजना का आनन्द लेते है , प्रेमविहीन सेक्स के मजे लेते लोग ‘दर्पण के अक्स’ आभा सिंह में भी मिल जाएँगे।
अन्तरा करवडे की कथा ‘’मानसिक व्यभिचार’ में नेट पर एक दूसरे को फ्लर्ट करते पात्र मिल जाएँगे। रीता के मेसैंजर पर एक अनजान संदेश उभरा ‘हैलो ! स्वीटी उसने थोड़ी पूछताछ के बाद रीता को वॉइस चैट के लिए राजी कर दिया । रीता ने लॉग आउट होने की सोची ,लेकिन थोड़े बहुत मजे लेने में क्या हर्ज है । यह सोचकर वह कुछ देर तक चेट करती रही।
इंटरनेट का मंदिर (उमेश महादोषी ) अंर्तजाल के एक सकारात्मक आयाम को हमारे समक्ष खोलता है । पापा की बीमारी के बारे में नेट पर सर्च करते-करते ऐसे पेशेंट की बीमारी का पता चला ,जिसके लक्षण पापा की बीमारी से मिलते थे। उस पेशेंट का इलाज अमेरिका के डॉ.एबॉट ने किया। बेटे ने उसने संपर्क साधा । उन्होनें बताया कि इस तरह के पेशेंट के बचने की बहुत कम उम्मीद है, अगर आप लोग इजाजत दे, तो मैं नया परीक्षण करना चाहूँगा । सौभाग्य से परीक्षण सफल रहा। माँ ने मत्था टेकते भगवान का आभार प्रकट किया। ‘मां असली कृपा करने वाला भगवान तो इंटरनेट है ,जिसने हमें डॉ.एबॉट से मिलवाया।
भूमंडलीकरण ने विश्व में लोगों की आवाजाही को बहुत बढ़ा दिया है , उद्योग , व्यापार, व्यवसाय व नौकरी के लिए लोग एक देश से दूसरे देश में माइग्रेट हो रहे है। एशिया के लाखों लोग विकसित देशों में स्थायी रूप् से बस गए हैं ;ताकि वे उच्च जीवन स्तर का आनन्द ले सके । इसका वृद्ध जनों पर क्या असर पड़ रहा है ,यह लघुकथा लेखकों ने अपनी रचनाओं में उकेरा है।
माता -पिता लंदन में सैटल्ड दोनों बेटों से मिलने को तरस रहे थे ; लेकिन उन्हें उनकी फिक्र करने का समय कहाँ ! कभी- कभार एक फोन या कुछ पैसे भेज देते । कैंसर ग्रस्त माँ को देखने कोई नहीं आया , उसके मरने के बारह घंटे बाद छोटा बेटा आया, वह भी तीन दिन बाद ही रिटर्न फ्लाइट से चला गया। मोबाइल यहीं भूल गया अचानक रिर्कोडेड वॉयस बाक्स का स्विच दब गया ‘सुना बड़े भैया माँ नहीं रही, इंडिया चल रहे हो या नहीं। तू तो सब जानता है ….. एक ‘एग्रीमेंट (मुरलीधर वैष्णव ) करते है , तू माँ की डैथ पर चला जा , पापा की डैथ पर मैं चला जाऊँगा ।
सफलताएँ तमाम भावनाओं को कुचल देती है । अपने माता पिता के लिए कृतज्ञता का भाव तक नहीं है ‘बर्फ होती संवेदनाए’ (इंदु गुप्ता) में प्रवासी महात्वाकांक्षी बेटे ने घर द्वार बेच कर पिता की व्यवस्था स्थानीय वृद्धाश्रम में कर दी। कभी-कभार फोन , डाक द्धारा स्वेटर , टोपी का उपहार भेज देता। साढ़े चार बरस गुजर गए ,बेटे को न आना था , न आया। पिता चल बसे तो आश्रम वालों ने खबर कर दी। उसके जवाब में बेटे ने मेल भेजा कि छुट्टी मिलना संभव नहीं , कृपया क्रियाकर्म कर दें। एक विडियो रील बनाकर अत्येंष्टि और वीडियोग्राफी का बिल भेजं दें.
बेटें ने पिता की सम्पत्ति बेचकर विदेश में उच्च षिक्षा और वहीं बसने के लिए फ्लेट खरीद कर पिता को विदेश ले गया कहा अब आप ‘भूमंडल की यात्रा’ (उमेश महादोषी) का आनन्द लेते रहे। वहाँ उसने अपनी पाकिस्तानी दोस्त रूबिया से शादी कर ली , पिता ने कुछ विरोध किया ,तो बेटे ने प्रत्युत्तर दिया -‘आज हम देश की सीमाओं से ऊपर उठ चुके हैं, न रूबिया पाकिस्तान की बंधुआ है और न मैं हिन्दुस्तान का। हमारा देश पूरी दूनिया हैउ। इस बीच बंम्बई पर आतंकी हमला होता है , पिता और उनके हमउम्र दोस्त आपस में चर्चा करते हैं। बहू रूबिया उनकी बातें सुन लेती है । मेरे घर में रह कर मेरे ऊपर ही अविश्वास करते हो , एक दिन भी नहीं रुकने दूँगी . और उन्हें एअर टिकट देकर भारत भेज दिया । विश्व यात्राओं के रंगीन सपने की जगह रहने के लिए घर और जीवन यापन की समस्याएँ उनके मुँहहॅं बाए खड़ी थी।
इंग्लैंड में बसे गोलू के चाचा , दादी की बरसी पर आए; लेकिन चाची और बच्चे परीक्षा का बहाना बना कर वहीँ रह गए। वे आए, तो अपना मोतियाबिंद का ऑपरेशन भी करवा लिया, जो काम यहाँ 4 हजार रुपए में हो गया, वहाँ चार हजार पौंड में होता , चाचू ने इस मौके को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । (अवमूल्यन -अजय गोयल) समझौता (रविन्द्रकान्त) में कम्पनी के ग्लोबल ऑफिस की इंटीरीयर डेकोरेशन में कम्पनी मालिक के पिता की तस्वीर नहीं रख सकती ।
‘‘मै पिता के सामान के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता ।कोई बात नहीं सर सम्मान आपके घर पहुँचा देते है।
शील कौशिक अपनी लघुकथा ‘’हवा के विरुद्ध’ में बताने की कोशिश करती है कि कुछ लोग हैं, देश , परिवार और भावनाओं की कद्र करते है। मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर बेटा -बहू वापस भारत आने की कह रहे थे। माँ समझा रही थी बेटा हमारी तरफ से कोई बंधन मत समझना, कल तुम्हारे दिमाग में यह बात आए कि बड़े बेटे को तो अमेरिका सेटेल कर दिया और हमें यहाँ ……….‘हमने आपसे और अपने शहर की मिट्टी से जो पाया है उसे लौटाने की बारी है। वे भारत लौट आते हैं और माता -पिता के साथ रहते हैं।
‘महानगर की डायरी’ मे अंतरा करवडे लिखती हैं- आज परिवार को पति- पत्नी और संतान तक सीमित कर दिया है ।दादा -दादी जैसे परिवार का हिस्सा ही नहीं हो, साथ रहते हुए भी अलग है। पीढ़ियों के अंतराल में जीवन शैली का अंतर साफ झलकता है और उससे उत्पन्न सामंजस्य की समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं. भूमंडल के स्वामी (उमेश महादोषी) पूरे विश्व से मेधावी व्यक्तियों को उंचे पेकेज देकर रख लेते है। और काम के अच्छे अवसर प्रदान करते हैं।
संचार के अन्य साधनों जैसे फोन , मोबाइल, टीं.वी. , डीवीडी इत्यादि को लेकर भी लेखकों ने लघुकथाएँ रची है । ‘ब्लैंक कॉल (हरमनजीत) से परेशान है परिवार के वरिष्ठ जन। लेकिन लड़के -लड़कियाँ ब्लैंक कॉल का इंतजार ही करते है। लड़के तो लड़के, लड़कियाँ भी बिगड़ी हुई हैं। टाइम पास के लिए बस मर्दों से ही बातें करती हैं। ‘स्वागत (श्याम सुदंर दीप्ति) कोरपोरेट ऑफिस में काम करने वाली महिला कर्मचारी को भद्दे एसएमएस भेजे जाते हैं।
वैश्वीकरण के दौर में इलेक्ट्रोनिक मिडिया के विभिन्न चैनलों की आपसी प्रतियोगिता और टीआरपी बढ़ाने के लिए खबरों को सनसनीखेज बना देते हैं किसी भी त्रासदी को ‘उत्सव’ (श्याम सुदंर अग्रवाल) बना देने की कीमिया भी उन्हीं मीडिया वालों की देन है वे अपने सामाजिक दायित्व को भूल कर लाभ पर ही केन्द्रित होते है।
म्यूजिक एलबम के दृश्य में निर्माता का बालक हिरोइन के स्कर्ट को ऊँचा कर जंघा पर लगे टेटू को देखना चाहता है । निर्माता का मानना है कि उसमें अश्लील कुछ भी नहीं है। वही बालक जब सो रही अपनी माँ का जंघा स्पर्श कर कहता है -ममा आपका टैटू कहाँ है ।मुझे देखना है तब पति -पत्नी के होश उड़ जाते हैं। कमाने के लिए इन जिन मूल्यों की रचना करते है। जब वे ही अपने पर उलट कर लौटते हैं तब हमें कैसा लगता है यही दिखाया है नरेन्द्र कौर छाबड़ा की लघुकथा ‘असर’ में।
मीडिया की संवेदनशीलता (हरीश चंद्र वर्णवाल) पर यह कथा व्यंग्य करती है। पोप जॉन पौल द्धितीय बीमार चल रहे थे, कभी भी भगवान को प्यारे हो सकते है। न्यूज चैनल के लिए यह बड़ी खबर होगी । पोप पर कुछ अच्छे पैकेज पहले से बनाकर रखे जाएँ पैकेज तैयार भी हो गए ;लेकिन पोप मरने का नाम ही नहीं ले रहे फिर एक दिन वे चल बसे आफिस पहुँचा, तब तक तो कई स्टोरी चल चुकी थी। ‘यही तो एक पत्रकार की संवेदनशीलता है।’
भूमंडलीकरण के दौर में प्रतियोगिता मूल मंत्र है हम प्रतियोगिता की जगह सहयोग को मूल्य क्यों नहीं देते? प्रतियोगिता शीर्ष पर कुछ लोगों को पहुँचाएगी जबकि सहयोग सभी के लिए फायदेमंद रहेगा। इस प्रतियोगिता में बाजी मारने के लिए स्त्री का भरपूर उपयोग हो रहा है ‘बाजार (अरुणकुमार) में दो पीसीओ की दुकानों की प्रतियोगिता को दर्शाया गया है एक में उसकी सुन्दर बेटी काउंटर पर बैठी है, तो दूसरे पर उसकी पत्नी मनमोहक मुस्कान बिखेर कर ग्राहकों का स्वागत कर रही है।
यही बात सतीश दुबे ‘माँ का धर्म’ में कहते हैं मार्केटिंग सेन्टर युवतियों को घर-घर सेलेरी कम कमीशन बेसिस पर वाशिंग पाउडर बेचने के लिए नियुक्त कर अपना व्यापार बढ़ाना चाहते हैं ;लेकिन माँ की अपनी चिंता है। वह तुरंत नौकरी छुड़वा देती है।
‘खुशफहमी’ (हसन जमाल) इसी प्रतियोगिता दौड़ को दर्शाया है। ‘क्यों भाई तुम इस कदर तेजी से कहाँ भागे जा रहे हो? क्या तुझ पर कोई विपदा आन पड़ी है’।
‘जानते नहीं जमाना कितनी तेजी से भाग रहा है’ तुम्हारे आगे कोई नहीं है ।
‘मैं सबसे आगे निकल आया हूँ’ ।
‘लेकिन आपके पीछे भी कोई नहीं है’।
‘क्या सब इतने पीछे रह गए , उफ बेचारे !
यही थीम ‘’अंधी दौड़ (भगीरथ) की है एक बहुत बड़ी भूल भूलैया है ….. वे भागते है , बेतहाशा , वे दौड़ते हैं अंधे कोने से टकराते हैं , लहूलूहान होते हैं लेकिन दौड़ जारी है ।
‘क्या हम इस अंधी दौड़ में भागने के बजाय इस भूल -भूलैया को नहीं तोड़ देना चाहिए। एक ने कहा।
‘क्या ऐसा हो सकता है? लेकिन दौड़ फिर भी जारी रहती है।
इस दौड़ पर अमर गोस्वामी भी अपनी कथा ‘हायमालिक’ में प्रश्न चिह्न लगाते हैं। उसने नोट कमाया , डालर कमाया , पौंड कमाया, बदनामी कमाई और प्रतिष्ठित हुआ .‘स्वीस बैंक में धन जमा करवाया । स्वार्थ की विशाल वेदी के सामने बैठकर अपनी संवेदना , कोमल भावना , परमार्थ साधना सब को स्याह करते हुए कारोबार के नये क्षितिज ढूँढ निकालने के लिए नेताओं , अफसरो और माफिया के आगे पलक-पाँवडे बिछाते -बिछाते एक दिन चल बसे। दरबान कहते हैं- हाय मालिक ! क्या इसी दिन के लिए इतना दंद -फंद किया था । मरना तो तुम्हें इन गरीबों की तरह ही पड़ा।
छोटे प्रतियोगिताओं को बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ प्रतियोगिता से बाहर कर देती है ( भूंमडलीकरण – आनंद)
जब से स्त्रियों को उच्च शिक्षा और ऊंचे पेकेज पर नौकरियाँ उपलब्ध होने लगी है, लिव इन रिलेशनशिप का चलन चलने लगा है , जहाँ युवक -युवती बिना शादी के एक ही घर को शेयर करते है। पति -पत्नी की तरह । विवाह और परिवार की संस्था पर प्रश्न चिह्न लग रहे हैं और हमारे परिवार के लोगों की चिंताएँ साफ झलक पड़ती हैं । तारीख असलम तस्मीन की कथा ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में कविता और आर्मन इसी रिलेशनशिप में थे । आर्यन अमेरिका चला गया और फिर उसने पलटकर नहीं देखा , कविता के पाँव तले की गायब हो गई ,तब साहिल ने हाथ थामने की बात की। लगा जिंदगी फिर पटरी पर आ गई है एक रात लेट नाइट ड्यूटी करके आई ,तो देखा साहिल गलफ्रेंड के साथ मस्तियों में डूबा है। वह अपसेट हो गई । साहिल आश्वस्त करता है कि साथ रहते हैं और सदा रहेंगे; किंतु किसी के निजी मामलों और सम्बन्धों में दखल नहीं देंगें। उसे लगता है मेरिज तो घरवालों की मर्जी से ही ठीक है। ‘वजूद की तलाश’ (सतीश राज पुष्करणा) में मंदिरा अपने फ्रेंड के साथ 10-12 वर्षो से लिव इन रिलेशनशिप में रह रही थी। अब वह माँ बनना चाहती है ।उसके पहले वह उससे विवाह करना चाहती है ;लेकिन वह तैयार नहीं होता बस ऐसे ही स्वंतत्र बिंदास जिंदगी जिओ। वह सिंगल मदर नहीं रहना चाहती, कोई तो हो जो जिम्मेदारियों को शेयर कर सके।
बाजार हमारे लिए ‘खुशियों की सौगात’ (सतीश कुमार) लाया है , सजे -धजे चमचमाते बाजार हमारे आकर्षण का केन्द्र है , हम ललचाई आँखों से देखते है , अभावग्रस्त पति अपनी पत्नी को बाजार ले जाने से डरता हैं कि कहीं पत्नी साड़ी वगैरह लेने के लिए न कह दें। पत्नी घर की स्थिति समझती है ;लेकिन बाजार की रौनक देखने भर से खुशी मिलती है ,जिसका कोई मोल नहीं ।
फ्री चिप्स (पी. के. राय) कथा मार्कंटिंग टेकनीक पर आधारित है। पोस्टर -बैनरों से लैस कंपनी की प्रचार गाड़ी के इर्द गिर्द एक ही रंग के कपड़ों में सजी-धजी युवतियाँ डांस कर रही थी । एनांउंसर कह रहा था एक स्लिप पर अपना नाम, पता, कॉन्टेक्ट नम्बर वगैरह भरिए और ले जाइए फ्री चिप्स का पैकेट । अगले ही दिन मोबाइल पर कॉल आता है ‘मै फला इंश्योरेंस से बोल रही हूँ और विभिन्न स्कीमों के बारे में बताती है । दूसरा कॉल कोंग्रेचुलेशन आप हमारे लकी ड्रा में चुने गये हैं मार्केट आपको फाँसने की पूरी तैयारी में है।
बाजार आपको लुभाता है , खरीदने को पैसा नहीं है , कोई बात नहीं क्रेडिट कार्ड तो है , क्रेडिट कार्ड का मकड़जाल व्यक्ति को कर्ज में डूबा कर ‘मकड़ी’ की (सुभाष नीरव) तरह चूस लेता है।
बाजार क्रांतिकारियों तक का बाजारीकरण कर देता है मॉल में ग्राहकों की भीड़ मक्खियों की तरह भिनभिना रही थी एक लड़का टीशर्ट पहने जिस पर चे का चेहरा छपा था, को देखकर उसकी गर्लफ्रेंड बोली वाउ नाइज लेकिन ये है कौन, हालीवुड स्टार , लड़का बोला ‘आई डॉन्ट नो बेब , मे बी सम रॉकस्टार। ‘सॉरी डियर चे’ (महेश शर्मा)
नौकरियों में हायर -फायर के सिस्टम में व्यक्ति असुरक्षित और भयग्रस्त जीवन जी रहा है। ‘कवच कुण्डल’ (जसवीर चावला ) में मैंनेजर कर्मचारी को नौकरी से अलग करने का फैसला सुनाते हुए कहते हैं ‘आप सोने के कुडंल है , पर कम्पनी को चुभ रहे हैं। कान में पहनना मुश्किल है, उतार देना होगा तुरंत ही , मेरे कुछ कहने -सुनने के पहले ही लिफाफा पकडाते हुए मैनेजर ने अपना दायाँ हाथ मिलाने को बढ़ा दिया । कर्मचारी सोच रहा था, यदि कुंडल एक दूसरे को पकड़ ले तो गेट पर कवच -सी मजबूत दीवार बन सकते है।
लाइफ स्टाइल को बदलने की पूरी तैयारी में है भूमंडलीकरण। कसौटी (सुकेश साहनी) में प्रोफशन के अलावा पर्सेनेलिटी टेस्ट के नाम पर इस तरह इस तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं ? विवाहित है बॉस के साथ सप्ताह से अधिक घर से बाहर रही है, बॉस के मित्रों को ड्रिंक सर्व किया है फ्रेंड्स के साथ डेटिंग पर गए , चैटिंग करती है, एडल्ट हाट रूम में जाती है , चैंटिग के दौरान वेब कैमरे के सामने खुद को एक्सपोज किया है।
गरीब घरों के बच्चे भी ‘भूमंडलीकरण (श्रीनाथ) के इस दौर में मॉडल बनने के सपने संजोय रहे है, वे ही घर की जरूरतों की बजाय अपनी दुनिया में रचे बसे हैं।
हालांकि वैश्वीकरण ने विकासशील देशों की खेती को चौपट कर दिया है। लेकिन उनसे संबधित रचनाएँ हिन्दी लघुकथा साहित्य में उपलब्ध नहीं है
अबीज (पूरण मुद्गल) में किसान गेहूँ के जीएमएस सीड का उपयोग करता है ।गेहूँ की बाली में बीज फट जाता है ,ताकि इसे बीज के उपयोग में नहीं लिया जा सके तथा हर बार किसान को नया बीज खरीदना पड़ेगा । पारंपरिक बीज की विभिन्न जातियाँ अब लुप्त प्राय हो गई हैं। जो कई सदियों से भारत की जलवायु के अनुकूल खेती में उपयोग की जाती थी।
हिन्दी लघुकथा साहित्य ने भूमंडलीकरण के मात्र कुछ आयामों को छुआ भर ही है।इसके विशाल प्रभाव क्षेत्र को समेटने में लघुकथा लेखकों को अपना ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है । भूंमडलीकरण विकास और उच्च आर्थिक वृद्धि दर के नाम पर नई -नई समस्याएँ पैदा कर रहा है उन्हें भी उकेरने की आवश्यकता है। यह एक ऐसा पिरामिड खड़ा कर रहा है। जिसके शीर्ष पर बैठे बीस प्रतिशत लोग आधार पर पड़े 80 प्रतिशत लोगों के लिए जीवन जीने के समुचित साधन उपलब्ध नहीं होने देते । भूमंडलीकरण का मानवीय चेहरा बेनकाब होता जा रहा है। और नीचे के स्तरों पर ट्रिकल डाउन की थ्योरी सफल होती नहीं दिख रही है। ऐसे में नई राहों का अन्वेषण भी जरूरी है।