पिछले चार दशकों से लघुकथा लेखन में निरन्तरता बनी हुई है। इस दौरान सैकड़ों लघुकथाकार आए और हजारों लघुकथाएँ लिखी गईं। समय प्रवाह के अनुसार कुछ लघु कथाकार छूटते चले गए और कुछ नए जुड़ते चले गए यानी कि लघुकथा लेखन गतिमय बना रहा। इन नए जुडऩे वालों में से एक हैं डॉ. पद्मजा शर्मा। डॉ. शर्मा ने लघुकथा साहित्य को एक उत्कृष्ट कृति ‘बेटी और अन्य लघुकथाएँ’ पुस्तक रूप में दी है।
पुस्तक की रचनाकार एक महिला हैं। महिला होने के नाते उनके पास स्वयं का भोगा हुआ व अपने महिला मित्रों के संग गुजरे जीवन का एक बहुत बड़ा नारी जीवनानुभव है जिसको अपनी कलम से बहुत ही ईमानदारी व अच्छे ढंग से अभिव्यक्त किया है। उदाहरण के तौर पर लगाम, मर्जी, खुश हूँ, बुलावा जैसी लघुकथाएँ नारी सशक्तीकरण को इंगित करती हुई सकारात्मक सोच की उत्कृष्ट लघुकथाएँ हैं। दूसरी तरफ नारी अत्याचारों से भरी केस, अब आएगा भी नहीं जैसी नारी शोषण को दर्शाती लघुकथाएँ भी हैं। लेखिका महोदया ने इनसे हटकर नारी आम जीवन पर आधारित मरद, देह, मध्यम वर्ग, चेहरा, तो?, मैडम, काजल, फिर भी आदि लघुकथाएँ सामान्य नारी जीवन शैली को प्रस्तुत करती नारी विमर्श की बेजोड़ लघुकथाएँ दी हैं।
महिलाएँ संवेदनशील मन की होती हैं। यह नारी का एक प्राकृतिक गुण है। अगर महिला एक रचनाकार हो तो उसका मन और ही अधिक भावुक व नम्र हो जाता है। इसी उक्ति की सत्यता प्रकट करती पद्मजा की चोर, किताब, याद, मुक्ति, आशीष, शगुन, फूल आदि लघुकथाएँ मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण लघुकथाएँ हैं।
परिवार एक ही वंश का सामाजिक समूह होता है और औरत होती है उसकी धुरी। समाज को बनाना, बिगाडऩा व संस्कारित करना औरत जात की प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। परिवार में सन्तुलन व सांमजस्य बनाए रखने की घनात्मक सोच को उजागर करती हुई स्त्री, स्नेह, रोते रहे, बेटी, भूत विदा ले रहे हैं तथा उसका फोन जैसी पारिवारिक पृष्ठभूमि की लघुकथाएँ भी इस संग्रह में पढ़ने को मिलती हैं।
पद्मजा जी ने अपनी पुस्तक में प्रतीकात्मक लघुकथाएँ भी संगृहीत की हैं। मेरी सोच के अनुसार- बहुत जरूरी हो तब ही लघुकथा में प्रतीकों का प्रयोग करना चाहिए, नहीं तो रचना में सत्यता से परे होने का खतरा मँडराने लगता है। ऐसी ही शैली की चिडिय़ा, साथी, रामदयाल, रामबाबू, कौन है लघुकथाएँ हैं। हालाँकि ये लघुकथाएँ प्रतीकात्मक हैं फिर भी भाषा शैली व अपने उद्देश्य पर खरी उतरती हैं। यह पद्मजा जी के रचना कौशल व अनुभव का करिश्मा है।
इस लघुकथा संग्रह में लेखिका महोदया ने व्यावसायिक संदर्भ की लघुकथाएँ भी दी हैं। अपने व्यवसाय को सफल व गतिमय बनाए रखने के लिए येन केन प्रकारेण नीति अपनाते हुए न जाने क्या क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं। ऐसा ही कुछ पद्मजा जी ने बताने की कोशिश की है, मैनेजमेंट की सोच, खेल, सफल वकील, तबाही लघुकथाओं के जरिए।
इष्ट देव के प्रति आस्था रखना एक स्वस्थ सोच व परम्परा है लेकिन धर्म के प्रति अन्धतापूर्ण अनुसरण करने वालों को ठगी व मूर्खपणा के अलावा कुछ हासिल नहीं होता। संग्रह की खुदा व सेवा लघुकथाओं का यही सार है।
पद्मजा जी ने अपनी लघुकथाओं में आधुनिक राजनीति एवं राजनेताओं के क्रिया-कलाप को भी छुआ है तथा जनप्रतिनिधि कहे जाने वाले व्यक्तियों की पोल खोलते हुए समाज के सामने उनके आचरण, करणी-कथनी व कार्य शैली को खुला रखने की कोशिश की है। उदाहरण के तौर पर स्केण्डल, यह प्रजातंत्र है, किंगमेकर, वोट, जमानत, वोट बैंक, विकल्प, भूख, एवज, मंत्री और राजनीति जैसी लघुकथाओं को लिया जा सकता है।
वर्तमान में भ्रष्टाचार कार्यालयों व विभागों के कर्मचारियों और अधिकारियों के रक्त में रम गया है। रक्त के बिना शरीर का कार्य अवस्था में रहना सम्भव नहीं उसी प्रकार भ्रष्टाचार के बिना किसी कार्य का समय पर सफलतापूर्वक सम्पादित हो पाना असम्भव सा लगता है। और इस भ्रष्टाचार की नींव दिन प्रतिदिन और गहरी होती जा रही है। ऐसे ही कुछ अभिव्यक्त किया गया है, के.पी. शर्मा, निर्णय व घूस जैसी लघुकथाओं में। ऐसे ही कथानक पर आधारित पुलिसिया शैली की तेवर तथा नजर लघुकथाएँ भी पढ़ऩे को मिलती हैं। इस पुस्तक में पद्मजा जी ने बच्चों की मानसिकता को बहुत गहराई से परखा है। उनकी बाल हरकतों, भय रहित निश्छलता व मुँह से स्वाभाविक स्पष्ट बोल निकलना एक प्राकृतिक बाल मानसिकता का द्योतक है। ऐसा ही एहसास कराया गया है भगवान मर गया, पाठ, माँ का राजकुमार, माँ के जाने के बाद, रोते रहे, माँ , निशाना लघुकथाओं के माध्यम से।
वैसे तो इस पुस्तक की सभी लघुकथाएँ आधुनिक लघुकथा के तत्वों पर खरी उतरती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं। और यह भी सच है कि लघुकथा संग्रह में सभी लघुकथाएँ एक ही कथानक व शैली पर रची गई लघुकथाएँ ही संगृहीत हों, सम्भव नहीं। जब लघुकथा शब्द हमारे जेहन में आता है। तो बोध लघुकथा शब्द भी उसके सामने आकर खड़ा हो जाता है। ऐसे ही शब्दों को पिरोते हुए पद्मजा जी ने आदेशपरक, शुभ, प्रार्थना, उन्नायक, टेक केयर माँ , आम आदमी जैसी लघुकथाएँ हमें दी हैं अगर इन्हें आधुनिक बोध लघुकथाएँ कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
पद्मजा जी के लघुकथा लेखन में मुझे एक खासियत का एहसास हुआ -इनके द्वारा सामान्य सी घटना व आम बात पर लघुकथा लिखा जाना। ऐसा कोई रचनाकार तब ही कर सकता है जब उसमें लेखन की परिपक्वता व अनुभव का एक विशाल भण्डार हो। बैठोगे, नया सफर व आनन्द जैसी लघुकथाएँ लिख कर पद्मजा जी ने यह सिद्ध कर दिया है।
वैसे पुस्तक की सभी लघुकथाएँ अच्छी बन पड़ी हैं फिर भी मेरे आकलन के अनुसार याद, किताब और शगुन मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती हुई संग्रह की बेहतरनी लघुकथाएँ हैं।
पुस्तक से गुजरने के बाद लगा कि लगभग सभी लघुकथाएँ स्तरीय एवं पठनीय हैं। कुछेक को छोड़कर सभी संग्रहित लघुकथाएँ लघुकथा की परिभाषा में आती हैं। और पाठक को झकझोरते हुए कुछ सोचने को मजबूर करती हैं। बावजूद इसके संग्रह की कुछ लघुकथाएँ घुळगाँठ व चाय ऐसी लघुकथाएँ हैं जिनके लेखन का उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो पा रहा। अत: पद्मजा जी को य हाँ और अधिक सजगता की जरूरत थी। साथ में पूरे संग्रह में ‘शब्द’ एक ऐसी लघुकथा है जो बहुकथनात्मक लघुकथा है। लघुकथा की पहली शर्त है कि एक कथानक का होना। उसी को केन्द्र मानकर लघुकथा लिखी जानी चाहिए। संग्रह में दर्जनभर ऐसी लघुकथाएँ हैं, जो आकार में बड़ी हैं, बहुत बड़ी हैं, लघुकथा के दायरे से बाहर निकल रही हैं। अपने उद्देश्य पर केन्द्रित रहते हुए कम से कम शब्दों का प्रस्तुतीकरण ही लघुकथा है। बड़े कलेबर की रचना लघुकथा की सीमा से निकलकर कहानी की ओर झाँकने लग जाती है। उदाहरण के तौर पर भूख, मैं, रोते रहे, दरवाजा खोलो और बैठो, बाबा जी का ठुल्लू, देवांग, नारायण, लंगोट, कुण्डली और प्यार लघुकथाओं को लिया जा सकता है। यहाँ पद्मजा जी को अपने रचना कौशल और अपने अनुभव का सही उपयोग करना था।
खैर! संग्रह की लघुकथाओं की स्तरीयता से इन्कार नहीं किया जा सकता। आप में लेखन की क्षमता है और अपनी रचनाधर्मिता से लघुकथा साहित्य को बहुत कुछ दे पाएँगी ऐसा मुझे विश्वास है।
–डॉ. रामकुमार घोटड़