बहुत दिनों के बाद वसुधा को फुर्सत रे पल मिले थे,जो उसे बिल्कुल अच्छे नहीं लग रहे थे…मन तो पाखी बन उड़ चला और जा बैठा उन पलों की मुंडेर पर, जब उसका इकलौता दुलारा बिन खबर किये…पूरे तीन बरस बाद विदेश से लौटा था और घर की देहरी पर खड़ा था,नये पत्ते सी नाज़ुक एक अनजान युवती के साथ। वह कुछ पूछती या आगे बढ़ कर पुत्र को गले लगाती…वही बोल पड़ा,” मम्मा! यह आलिया है..आपकी बहू “और साथ ही वे दोनों उसके पाँव छूने को झुके पर उसने खुद को चार कदम पीछे खींच लिया और मुड़ कर अपने कमरे में चली गई।
उसके पति ने ही आगे बढ़ कर दोनों का स्वागत किया,आशीर्वचन कहे और भीतर ले कर आये। इससे पूर्व कि वह खुद को कमरे में बंद कर लेती,पति चले आये और उसका हाथ थाम स्निग्ध स्वर में बोले,” वसु! सच को स्वीकार कर लो और चल कर उन्हें आशीर्वाद और प्यार दो…नहीं तो इकलौती संतान से हाथ धो बैठोगी।”
वसुधा एक कदम आगे बढ़ी तो आलिया दो कदम। वह दो कदम बढ़ाती तो आलिया चार कदम। प्याज़ की पर्तों की तरह धीरे-धीरे वे एक-दूसरे से खुलने लगीं और घर की बगिया हँसी-खुशी के फूलों से महकने लगी। पता ही नहीं चला खुशरंग फुहारों से भीगे दो महीने कैसे गुज़र गये और आज एयरपोर्ट पर बिदाई की घड़ियों में जब आलिया उसके सीने से लग कर रो रही थी तो उसके नयन-कटोरे भी छलक आये । सहसा पति ने उसके कंधे पर हाथ धरते हुए कहा,” वसु! यह बेला तुम्हारे रोने की नहीं आलिया बिटिया के आंसुओं को मन की तिजौरी में समेटने की है। बहुत कीमती हैं ये आँसू।”
उसने सवालिया दृष्टि से पति को देखा तो वह बोले,” आलिया हमारे घर बहू बन कर आई थी पर बेटी बन कर जा रही है क्योंकि घर से बिदा होते हुए बेटियाँ रोती हैं, बहुएं नहीं।”
अनायास ही वसुधा ने अपना आँचल खींच कर उसका वह कोर चूम लिया जिसमें उसकी बच्ची आलिया के आँसुओं की महक बसी थी।
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-कमल कपूर
2144/9सेक्टर,फरीदाबाद121006,(हरियाणा)
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आँसुओं की महक
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