गरीबी में महँगाई की मार, धर्म व आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे, पर्यावरण का ह्रास व संस्कार, संस्कृति की अवमानना, जीवन-मूल्यों को भुलाना, क्या आदम एक रुग्ण समाज की प्रतिष्ठा करने की ओर चल पड़ा कान्ता रॉयहै? सोचकर ही डर लगता है। ऐसे विपरीत हालात में विश्व व्याकुल है और आज व्याकुल हमारा भारतीय समाज भी है। अत: शिक्षित-वर्ग अब सचेत होना चाहता है, रुग्ण मानसिकता को झकझोरना चाहता है और ऐसे में वक्त की कमी के चलते चंद पंक्तियों में बात कहने का माध्यम एक मात्र ‘लघुकथा’ को पाता है। चंद पंक्तियों में लघुकथा प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से एक क्षण-विशेष में लघु-जीवन को सामने रख चिंतन को खुराक देती है।व्यक्तिगत अनुभव अर्थात् जीवन-यात्रा में पाए अनुभवों के आधार पर कही गई बातें सिर्फ प्रौढ़ व वयोवृद्ध लेखकों की कलम से ही नहीं ; अपितु किशोर, नवयुवकों , प्रौढ़-युवाओं की कलम भी पूरी प्रखरता से सामने ला रही है। हालाँकि ‘लघुकथा’ सिर्फ हृदय की व्याकुलता को यूँ ही कह भर विधा नहीं है, यह ‘लघुता’ को शब्दों की मितव्ययिता के साथ हासिल एक उद्देश्य पूर्ण कथ्य का समावेश है। इकहरी देने से विधा होने के नाते समाज में व्याप्त विसंगति रूपी एक तीर का संधान करते हुए यथार्थ के धरातल से निकाल कथ्य पर अचूक निशाना लगाना लघुकथा है। किसी भी घटनाक्रम को पूरे कौशल के साथ पैनी-धार देकर अभिव्यक्त करना ही ‘लघुकथा’ है। यदि कथ्य दार्शनिकता, चिंतन-बोध लिए मनोवैज्ञानिक तरीके से सम्प्रेषित है , तो बिम्बों के माध्यम से रहस्यात्मक अनुभूतियों को ग्रहण करना लघुकथा का सिद्धांत है। जब तक लेखक स्वयं के अंदर नहीं डूबेगा ,तब तक लघुकथा की सतह से भी दूर रहेगा। विधा के प्रति रुझानों को देखना ख़ुशी की बात है कि वर्तमान काल हिंदी-साहित्य में लघुकथा-काल के रूप में चिह्नित हो रहा है।
‘मेरी पसंद’ की दो लघुकथा चुनते हुए बड़ी दुविधा में हूँ। जिन लघुकथाओं को पढ़ते हुए ‘लघुकथा’ से परिचय हुआ था, जिन कालजयी लघुकथाओं को पढ़ते हुए लिखना सीखा, वे लघुकथाएँ सब मेरी पहली पसंद है और वर्तमान में जिन साथियों के साथ दिन-रात लिखती-पढ़ती हूँ ,वे भी बेहद प्रभावित करते हैं एवं मेरी पसंद में शामिल होते हैं। नई पीढ़ी, जिनके लिए आम-तौर पर कहा जा रहा है कि वे संवेदनहीनता का शिकार हो रहें है। मै इन बातों से इन्कार करती हूँ, कारण इतना है कि कहने और होने में जमीनी फर्क होता है। युवा लघुकथाकारों में हरीश शर्मा की लघुकथा ‘रंग’, हेमंत राणा की ‘जवाब’, डॉ. कुमार संभव जोशी की ‘श्राद्ध’, कुमार गौरव की ‘हरी चूड़ियाँ’, चंद्रेश कुमार छतलानी की ‘पूतना’, उपमा शर्मा की ‘आकांक्षा’, इत्यादि को पढ़ते हुए मैंने पाया है कि नयी पीढ़ी पहले के मुकाबले कहीं अधिक संवेदनशील है। वे तकनीकों को समझने में आगे हैं, उनकी ग्रहण क्षमता और केलकुलेशन फास्ट है, जितने देर में हम किसी आइकॉन को पहचानने की कोशिश करते हैं, उतने देर में वे पूरा डेटा पढ़कर यहाँ से आगे बढ़ जाते हैं, फेस-रीडिंग हो या बॉडी-लेंग्वेज को समझना, उनका सब कार्य त्वरित गति से होता है। वैश्वीकरण के दौर में उनकी सोच प्रेक्टिकल है, जमीनी हकीकत के मद्देनजर पॉइंट-टू-पॉइंट अपनी बात तर्कसंगत तरीके से कहते हैं। वे हवाई किले नहीं बनाते, जमीनी हकीकत को जीते हुए हम सबसे कहीं अधिक संघर्षरत हैं। उनके ‘कहन’ का अंदाज बदला हुआ है, आज संवेदनाएँ गहरी व अपने उच्चतम शिखर पर है। इसी सोच के तहत जब भी नई कलम की ओर देखती हूँ, तो सबसे पहले सुनील वर्मा का नाम आता है। इस युवा में हम अपने संस्कार, जीवन जीने में मूल्यबोध की विरासत को सुरक्षित पाते हैं। आपकी लघुकथाएँ आज के परिवेश की लघुकथाएँ होती है। यहाँ नए तरीके से कथ्य उठान पाता है। आप संतुलन बना कर मनोवैज्ञानिक तरीके से समग्रता लिए परिवेश को ढालते हैं। प्रस्तुत लघुकथा ‘रिश्ते’ में कथ्य को कहने के लिए हमारी लस्त-पस्त भारतीय सड़क को कथानक के रूप में चुना है ,जहाँ एक सार्वजनिक घटना यथार्थबोध लिये घटित हुई है। आगे-पीछे गाड़ियों की रेलमपेल, अव्यवस्थित ट्रेफिक के बीच फँसी जनता के बीच कार-चालक एवं स्कूटर-चालक के बीच व्यर्थ निर्मित विवाद को दर्शाया गया है। यहाँ दो तरह के लोग और उनका मनोविज्ञान लघुकथा की अंतर्वस्तु बनकर बाहर आता है। हल्की-सी खरोंच, जिसे महज़ होनी समझकर अनदेखा किया जा सकता था, लड़के द्वारा बुजुर्ग को आँखें दिखाते हुए कहना कि, “ओये अंकल..देखकर चला न। अपने बाप की सड़क समझकर स्कूटर चला रहा है क्या?” पढ़ते ही मन को तिक्त कर जाता है। बस-चालकों, ऑटो-चालकों सहित अन्य वाहन चालकों द्वारा कमजोर को देख उसे दबाने की कोशिश में इस तरह आक्रोश का प्रकट होना, अक्सर यातायात के वक्त देखा जा सकता है। कार-चालक और स्कूटर-चालक, यहाँ लेखक एक विशेष वर्ग द्वारा सामाजिक व्यवहार को दिखाने की कोशिश की है।
जब लड़के के आक्रोश से डरा, दबा हुआ आदमी गलती ना होने पर भी नरमी से पेश आता है तो उस लड़के के तेवर को और बल मिलता है और उसे धमकी देते हुए कहता है कि, “……….बुढ्ढा है; इसलिए लिहाज कर रहा हूँ वरना..” जैसे ही अपने पति को अपमान की उस अवस्था पर खड़े पाती है, तो पत्नी, जो पति से रोज की तकरार में, आपस में मुँह फुलाकर अबोला की अवस्था में है, तैश में आ जाती है और लड़के से पूछ बैठती है कि, “वर्ना क्या?” और जैसे ही लड़का आदमी के हाथ-पैर तोड़ने की बात करता है तो सीधे सामने आ जाती है और उसे मुकाबले के लिए चैलेन्ज करती है कि, “तू हाथ तो लगाकर देख। तोड़ न दूँ तो कहना..” यहाँ नारी एक पत्नी ही नहीं, माँ के स्वरूप को भी साकार करती है।
जहाँ अबोलेपन में भी पत्नी के प्रीति की उत्कृष्टता इन पंक्तियों में उजागर होती है वहीं ‘रिश्ते’ में एक-दूसरे की कमियों को पूरा करना यानी अर्धनारीश्वर की छवि सामने आ जाती है। जीवन को संतुलित बनाने के उद्देश्य से ही दो विपरीत स्वभाव को एक साथ करने के उद्देश्य से ‘रिश्ते’ आसमान में बनाए जाते हैं, जो दाम्पत्य जीवन का ठोस आधार है। कथ्य की मनोवैज्ञानिक बुनावट पाठक-मन को विमोहित करने में सक्षम है।
पवन जैन की लघुकथाओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि शब्दों का समृद्ध भण्डार और जीवन तत्त्वों का समावेश जब परिपक्वता से अभिव्यक्त करने को उद्यत हो उठता है ,तो ‘फाउन्टेन पेन’ जैसी लघुकथा बनकर बाहर निकलती है ,जो ह्रदय को कहीं अन्दर तक स्पर्श करती हुई भावना के स्तर पर छूकर निकलती है। एक निष्ठावान, संघर्षशील बैंककर्मी सेवानिवृत्त होने के पश्चात लेखन की ओर उन्मुख होता है, तो जीवन भर की पूँजी, जो जीवन के अध्ययन के पश्चात वह प्राप्त करता है, उसको बाँटने हेतु कलम को साधन बनाता है। बिगड़े हुए समाज को अपनी अपेक्षाओं पर खरा उतारने हेतु सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें नहीं करता है ; बल्कि उपेक्षित मूल्यों की पुनर्स्थापना हेतु चेतना के लिए अपने शब्दों को ध्वनित करता है। पवन जैन की प्रत्येक लघुकथाओं में जीवन का द्वन्द्व दृष्टिगोचर होता है। बुन्देली परिवेश और जमीन से जुड़ाव उनकी कथाओं में विस्तृत-व्यापक भूमि का स्रोत बनती है। लघुकथाकार का द्रष्टा एवं विचारक होना पहली शर्त है जिस पर पवन जैन का नाम उभरकर सामने आया है।
पारितोषक के रूप में पाया हुआ उपहार जिसे बाबूजी को अपने प्राचार्य से मिला था, उसको लेकर तमाम उम्र ‘तमगे’ प्राप्त करने के गर्व से भरकर सैद्धांतिकता को जीते रहे। पहली कहानी का प्रकाशित होने का सन्दर्भ देते हुए बाबूजी का बेटे को हिदायत के साथ उस पेन को जेब में लगाना ऐसा था ,मानों अपने संस्कार की विरासत सौंप रहें है।
‘आज बाबू जी की पुण्य तिथि पर उनकी तस्वीर पर माला चढ़ाकर, पेन साफ कर स्याही भर के शर्ट की सामने की जेब में खोंसकर एक सिपाही की तरह सीना तानकर कार्यालय पहुँचा।’
जब इन पंक्तियों को पढ़ते हैं ,तो अच्छाई का स्थापत्य और उम्मीद के डैने फैलते हैं, यहाँ बेटे द्वारा सैद्धांतिकता का उठान चरमोत्कर्ष पर पहुँचता है।
‘लिखने के लिए एक दो बार पेन निकाला पर हाथ काँप गए, कुछ न लिख सका ।’ यहाँ पर आकर हाथ के काँपने को जिस तरह से भाव मिले हैं, दरअसल यहीं पर लघुकथा मानसिक आयाम पर जीवंत हो उठी है।
“मैं कचहरी का बड़ा बाबू….” इन पाँच शब्दों में क्षोभ जिस तरह से उभरकर आया है ,यह काल्पनिक नहीं बल्कि बेटे की परिस्थिति की वास्तविकता है। व्यग्रता व्यापक रूप में विस्फोट करता महसूस होता है।
कथ्य के अनकहे में यहाँ कार्यालय के बड़े बाबू होने के दायित्व तले उस कलम के निर्वाह का विसर्जन परिलक्षित हुआ है। पिताजी के फोटो के साथ कलम का टिकाना और दिया जलाना प्रतीक है कि सिद्धांत सिर्फ पूजन करने योग्य हैं, उनका अनुपालन करना संभव नहीं। पात्र के अन्दर कई पात्र लड़ते हुए दृष्टिगोचर है। यहाँ जिस तरह से आदर्शों की टकराहट और तनाव को निरूपित किया गया है यह लेखन की गुरुता, उसके स्तर को काफी ऊँचा उठा जाती है।
दोनों ही लघुकथा में एक भी शब्द अतिरिक्त नहीं है। जीवन की विविधता, चारित्रिक तारतम्य सधा हुआ है। दोनों ही लघुकथा ‘अवाक्’ की दशा में पाठकों को पहुँचाने में सक्षम है।
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1.पक्के रिश्ते- सुनील वर्मा
शादी के इतने सालों बाद भी दोनों में अक्सर किसी बात को लेकर तकरार हो जाती थी। आज फिर चुप्पी ओढ़े हुए दोनों किसी काम से बाजार जा रहे थे। रास्ते में उनसे आगे चल रही कार द्वारा सहसा ब्रेक लगा लेने के कारण उनका स्कूटर उसे छू भर गया। नतीजतन कार सवार लड़के ने पीछे आकर अपनी कार पर नजर डाली।
हल्की-सी एक खरोंच देखकर उसने स्कूटर पर बैठे आदमी से गुस्से में कहा “ओये अंकल..देख कर चला न। अपने बाप की सड़क समझ कर स्कूटर चला रहा है क्या?”
“मगर बेटा, ब्रेक तो तुमने अचानक से लगाए थे।” आदमी ने सफाई दी।
“तो…इसका मतलब तू पीछे से ठोक देगा। बुढ्ढा है इसलिए लिहाज कर रहा हूँ वरना..”
“वरना क्या..?” अब तक स्कूटर पर चुप बैठी औरत ने जवाब में प्रतिप्रश्न किया।
अपनी पत्नी को शांत रहने का इशारा करते हुए आदमी ने लड़के से कहा “कम से कम बात तो तमीज से करो बेटा। हल्की-सी खरोंच ही तो है।”
आदमी का शांत स्वभाव देखकर लड़का और अधिक हावी होते हुए बोला -“हल्की-सी खरोंच..! बुढ़ापे में क्यों अपनी पसलियाँ तुड़वाना चाहते हो अंकल?”
शर्ट की बाहें चढ़ाता हुआ वह आगे बढ़ा ही था कि स्कूटर के पीछे से उतरकर औरत लड़के के सामने आ खड़ी हुई और उससे भी कुछ अधिक आवेशित स्वर में बोली- “तू हाथ तो लगाकर देख। तोड़ न दूँ तो कहना..”
अप्रत्याशित जवाब सुनकर लड़का सकपकाया। अब तक जमा हो चुकी भीड़ में भी उन दोनों का पक्ष बढ़ता देख उसने कार स्टार्ट की और वहाँ से चुपचाप निकल गया।
औरत ने वापस मुड़कर आदमी को देखा और स्कूटर पर बैठते हुए बड़बड़ाई- “इतना सुनने की क्या जरूरत थी? एक थप्पड़ न रख देते खीँचके..!”
तमाशा अधूरा रह जाने का मलाल करते हुए छँट रही भीड़ में से एक ने कहा- “कमाल है यार..वह आदमी होकर चुपचाप सुनता रहा और उस औरत को देखो तो।”
दूसरे ने उसे मुस्कुराते हुए जवाब दिया “लोग यूँ ही थोड़े कहते हैं कि जोड़ियाँ ऊपर से बनकर आती हैं।”
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2-फाउंटेन पेन- पवन जैन
उस जमाने में बी. ए. प्रथम श्रेणी से पास होने पर बाबू जी को कालेज के प्राचार्य ने पारितोषिक स्वरूप दिया था। बाबू जी ने न जाने कितनी कहानियाँ,कविताएँ लिखीं इस पेन से। हमेशा उनकी सामने की जेब में ऐसे शोभा बढ़ाए रखता जैसे कोई तमगा लगा हो।
मेरी पहली कहानी सारिका में प्रकाशित होने पर बाबू जी ने प्रसन्न हो कर मेरी जेब में ऐसे लगाया जैसे कोई मेडल लगा रहे हों और साथ में हिदायत दी कि इस पेन से कभी झूठ नहीं लिखना,और न ऐसा सच जिससे किसी का अहित हो।
आज बाबू जी की पुण्य तिथि पर उनकी तस्वीर पर माला चढ़ाकर, पेन साफ कर स्याही भर के शर्ट के सामने की जेब में खोंस कर एक सिपाही की तरह सीना तान कर कार्यालय पहुँचा।
लिखने के लिए एक दो बार पेन निकाला पर हाथ काँप गए, कुछ न लिख सका।
मैं कचहरी का बड़ा बाबू दिन भर खोंसे रहा उस पेन को घर आकर पिता जी की फोटो के साथ टिका दिया,उनके नाम का दीपक जलाकर।
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कान्ता राय,मकान नम्बर-21,सेक्टर-सी सुभाष कालोनी ,नियर हाई टेंशन लाइन,गोविंदपुरा,भोपाल- 462023,फोन – 9575465147
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