नौवाँ पुरस्कार प्राप्त लघुकथा
ठण्ड की दस्तक तेज थी। हवाएँ बदन सिहराने के लिए काफी थीं। नवम्बर माह में सुबह पाँच बजे उठकर तैयार होकर पार्क जाना कोई मामूली बात नहीं थी। मैं बिना नहाए घर से बाहर नहीं निकल सकती और शायद इसलिए मुझे प्रतिदिन नहाते वक्त नानी का ‘कार्तिक स्नान’ याद आता था, जो नानी की दिनचर्या में शामिल था गंगा नदी जाने के लिए।
अब यहाँ छोटा नागपुर में न ही गंगा नदी और न अब दिखता कोई नदी में कार्तिक-स्नान। हाँ! बिजली नहीं रहने पर बाथरूम में ठंडे पानी से स्नान करने में जरूर कार्तिक-स्नान की याद आ जाती है। पौने छह में मैं अपने ट्रैक-सूट में पार्क में पहुँच जाती। न चाहते हुए भी निगाहें मिस्टर वर्मा को ढूँढने लगती। जैसे ही मिस्टर वर्मा दिख जाते , तो मेरी नजरें दूसरी और देखने लगतीं, मानो मैंने किसी को न देखा।
“हैलो मिसेज फ्रेश”
मिस्टर वर्मा के मुख से आज तीन शब्द सुनकर न जाने कौन सी नजदीकियों का आभास होने लगा। आज थोड़ा और जोश से वाकिंग ट्रैक पर पाँव बढ़ने लगे। कुछ मीठी-मीठी सी लगने लगी थी पार्क की हवा। पेड़ों से छनकर आती धूप भी गुदगुदाने लगी थी। एक घंटा टहलते हुए कैसे बीत गया पता ही न चला।
पिछले एक महीने से हमारे बीच सिर्फ ‘हैलो’ ही होता था।
पर ‘हैलो’ भी बहुत अच्छा लगता था। और आज तो …दिल बहुत खुश था। आज नींद देर से खुली।
“चलो आज मैं भी वाक पर चलता हूँ। अब तो खुश हो!” घर से निकलते वक्त पति की अचानक आवाज आई। पता नहीं क्यों थोड़ी आजादी छिनती हुई लगी।
मैंने मुस्कुराकर कहा,”हाँ! हाँ! चलो न!!” पर शायद थोड़े ऊपरी मन से।
हम पार्क में पहुँच चुके थे। मेरी निगाहें आज किसी को नहीं ढूँढ रही थी। आज हवाएँ भारी लग रही थीं। धूप भी तीखी लग रही थी। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था मानो मेरी आँखें खुद से आँखें चुरा रही हों।
शायद हर किसी को चाहे स्त्री हो या पुरुष अपने रिश्तों के बीच एक स्पेस चाहिए। रिश्ते बोझ न बनें, उनके दायरों में घुटन न लगे, इसके लिए शायद एक मर्यादित स्पेस चाहिए।
“देखो, देखो वह मिस्टर हैंडसम तुम्हें कैसे घूर रहा है।” पति ने चुहलबाजी करते हुए कहा।
”पता नहीं, मैं इधर-उधर नहीं देखती।” बड़ी सहजता से मैंने अपनी सफाई दे दी और पार्क में अपने चक्कर गिनने लगी।
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