आधुनिक लघुकथा का प्रारम्भ सातवें दशक से माना जाता है। इस विधा की प्रारम्भिक लघुकथाएँ आक्रोश से परिपूर्ण होती थीं, लघुकथाकार व्यंग्य पर जोर देता था और अधिकतर लघुकथाओं के अन्त मारक होते थे। उस समय के लघुकथाकार कसाव का भी ध्यान रखते थे। धीरे-2 समय के साथ इस विधा में कुछ परिवर्तन होता गया। पहले अधिकतर सामाजिक लघुकथाएँ लिखी जाती थीं, बाद में पारिवारिक लघुकथाओं को तरजीह दी जाने लगी। मनोवैज्ञानिक लघुकथाओं का भी प्रारंभ हुआ। लघुकथाएँ आकार में भी कुछ बड़ी होने लगी। घटना में भी विस्तार हुआ। व्यंग्य की धार कुछ कम हुई तथा मारक अन्त प्रभावशाली अंत में बदल गया।
‘डॉ. रामनिवास ‘मानव’ की प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ से पूर्व ‘मानव’ की लघुकथा से सम्बन्धित चार कृतियाँ, 1980 में, ‘ताकि सनद रहे’, 1986 में ‘घर लौटते कदम’, 1996 में ‘इतिहास गवाह है’ तथा 2009 में ‘हो चुका फैसला’ प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘घर लौटते कदम’ और ‘इतिहास गवाह है’ संग्रह दूसरी बार भी अस्तित्व में आए हैं। लघुकथा क्षेत्र में इनकी और भी कई उपलब्धियाँ हैं- इनकी रचनाएँ देश की विभिन्न भाषाओं की लगभग पाँच सौ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा इनकी लघुकथाएँ हिन्दी, पंजाबी, गुजराती के सत्तर लघुकथा-संकलनों में भी अपना स्थान पा चुकी हैं। इनकी लघुकथा सम्बन्धी वार्ताएँ और परिचर्चाएँ आकाशवाणी रोहतक तथा हिसार केन्द्रों से प्रसारित हो चुकी हैं। लघुकथा पर आधारित एक दर्जन लेख भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व संकलनों में प्रकाशित हो चुके हैं। इन्होंने डेढ़ दर्जन लघुकथा-संग्रहों की भूमिकाएँ लिखी हैं। इन्होंनें देश के कई लघुकथा-सम्मेलनों में भाग लिया है तथा स्वयं भी हिसार में सन् 2001 तथा सन् 2009 में सम्मेलन करवाएँ हैं। इन्होंने लघुकथा पर कर रहे कई शोधार्थियों को निर्देशन दिया है तथा इनके लघुकथा साहित्य पर शोध करके आठ विद्यार्थियों ने एम.फिल. तथा एक ने पीएच.डी. भी उपाधि प्राप्त की है। डॉ. मानव ने ‘अनुमेहा’ (उन्नाव), ‘पंजाबी संस्कृति’ (हिसार) पत्रिकाओं में लघुकथा विशेषांकों का सौजन्य सम्पादन भी किया है। इन पर अम्बाला से सम्पादित ‘पवन वेग’ (साप्ताहिक) में सन् 1981 में ‘लघुकथाकार रामनिवास मानव’ विशेषांक भी छपा है।
‘डॉ. रामनिवास ‘मानव’ की प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ संकलन में सम्पादक रोहित यादव ने इनकी अठहत्तर लघुकथाओं को शामिल किया है। हालांकि डॉ. मानव ने हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में भी लेखन कार्य किया है किन्तु इन्होंने लघुकथा विधा में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशेष पहचान बनाई है। ये प्रारंभ से लघुकथा विधा के साथ जुड़े हैं तथा लगातार अपनी लघुकथाओं से इस विधा को समृद्ध करते आ रहे हैं। इनकी लघुकथा ‘खिलौने’ में यह बतलाया गया कि घर का ड्राईंग रूम साज सज्जा वाली वस्तुओं से नहीं, बच्चों की रौनक से बनता है। ‘बहाव के सामने’ लघुकथा नारी पीड़ा को लेकर लिखी गई है। इसमें छोटी बीमार बच्ची इसलिए बीमार रहना चाहती है ताकि उसे पिता से अपने छोटे भाई आशु जैसा प्यार मिले। ‘बेटे की नाराज़गी’ में होस्टल में रह रहे बेटे को पिता जानबूझ कर मिलने नहीं जाता ताकि वह अपने दम पर जीना सीखे। ‘स्टेटस’ में घर आए पुत्र से पिता गणपत तीन हजार रुपये प्राप्त न कर सका क्योंकि बेटे ने कहा कि इस बार कुछ बचा ही नहीं, शहर में तो स्टेटस के अनुसार रहना पड़ता है।
‘कसक’ लघुकथा यह दर्शाती है कि पुत्र नौकरी लगने के बाद पिता व अपने गांव को पूछता तक नहीं। ‘मानदंड’ में क्लर्की से अच्छा खेती को बतलाया गया है। ‘घर लौटते कदम’ में शहर और गांव के अन्तर को स्पष्ट किया गया है। ग्रामीण व्यक्ति की जो कीमत गांव में पड़ती है वह शहर में नहीं। ‘इतिहास गवाह है’ में ‘बड़ों की घर में इज्ज़त नहीं, यह दर्शाया गया है। ‘बीजारोपण’ लघुकथा भाइयों में माँ-बाप के बंटवारे को लेकर है। ‘दिवाली की मिठास’ में यह बतलाया गया है कि आजकल रिश्ता पैसों से जाँचा जाता है, छोटे-बड़े से नहीं। ‘जीवन-रेखा’ में अन्धत्व के कारण पिता बेटे को छोड़ने नहीं जाता, केवल आशीर्वाद देता है। पुत्र को भी अपने पिता की निकट भविष्य में मृत्यु दिखाई देती है। इसमें बुढ़ापे और मृत्यु का वर्णन है। ‘शो-पीस’ में बेटा पिता का अनादर करता है। ‘बाप-बेटे’ भावुक मन की लघुकथा है। पुत्र-पिता की पांचवी बरसी पर उसे याद करता है। ऐसे ही विषय को लेकर डॉ. मानव ने ‘सावन की लुएँ ’ लघुकथा की रचना की है। ‘क्लेम’ यथार्थवादी रचना है। इसमें बेटी अपने पिता की सम्पत्ति में अपना हिस्सा लेने के लिए क्लेम करती है। ‘जड़ कटा पेड़’ में अपने पुश्तैनी मकान के प्रति लगाव दिखाया गया है। ‘माँ का मतलब’ में माँ की बच्चों के प्रति ममत्व की बात की गई है। ‘सबकी माँ’ में माँ पड़ोस की विधवा की मदद करती है, इसलिए वह सबकी माँ कहलाने की हकदार बनती है। ‘गरीब की माँ’ में निर्धनता का चित्रण है। ‘टॉलरेन्स’ में नारी दुर्दशा का वर्णन है। ‘औरत की भूख’ में भोजन का आधार बनाकर डॉ. मानव ने घर में नारी की दुर्दशा की व्याख्या की है। ‘पत्नी का भविष्य’ लघुकथा भी नारी दुर्दशा से ही सम्बन्धित है और ‘सरप्राइज’ भी नारी की कथा की कहानी है। ‘हार्ट-अटैक’ में नारी के हार्ट पैशंट पति के प्रति निर्ममता दर्शाई गई है। इसके विपरीत ‘सच्चा पति’ में पति अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता है तथा वह शादी का अर्थ प्यार, भावना और आत्मा के रिश्ते को मानता है। ‘बहू की समझ’ एक अच्छी और एक बुरी बहू को लेकर है। ‘कद’ माँ-बाप की सेवा पर आधारित लघुकथा है। ‘पोस्ट-कार्ड’ में यह बतलाया गया है कि अब रिश्ते पोस्टकार्ड तक ही रह गये हैं और कोई किसी की मदद नहीं करना चाहता। ‘मर्द की बात’ एक बढ़िया लघुकथा है। इसका पात्र रोशनलाल अपनी पत्नी की मौत पर अपना दूसरा विवाह नहीं करता। वह अपनी पत्नी की याद में अपने बच्चों को पालता-पोसता है। ‘दर्द-बोध’ भावुक मन की लघुकथा है। इसमें सेवानिवृत्त पड़ोसी की पीड़ा का वर्णन है। ‘शादी का शगुन’ में एक गरीब नौकरानी द्वारा दिये गये शगुन का भावमय चित्र है। ‘जानमाल की कीमत’ लघुकथा भी गरीब लोगों की दास्तां कहती है। ‘संवेदनहीनता’ एक दुर्घटना का आधार बनाकर लिखी गई है। इसमें यह बतलाया गया है कि आजकल लोग संवेदनहीन हो गये हैं। पलटवार, मोचाबंदी, निर्णय, चेतावनी, आदि लघुकथाएँ शिक्षा-जगत् में चल रहे दांव-पेंच को लेकर रची गई हैं। ‘प्रथम-प्रति’ में लेखक द्वारा किसी को भेंट की गई सद्यः प्रकाशित कृति कबाड़ी की दुकान पर मिलती है, इसका वर्णन किया गया है। ‘चयन-प्रक्रिया’ में विभिन्न संस्थाओं द्वारा जानकारी के आधार पर किस प्रकार पुरस्कारों का बंटना होता है, इसका बढ़िया वर्णन किया गया है। ‘सम्मान’ में यह बतलाया गया है कि आजकल लोगों ने सम्मान करने का भी धंधा बना लिया है। ‘मान-सम्मान’ बहुत अच्छी लघुकथा है। लोग अपना मान-सम्मान किस प्रकार अपने खर्चें से करवाते हैं, इसका इसमें वर्णन है। ‘हत्या’ बहुत ही कम शब्दों में लिखी गई लघुकथा है। ‘जय श्री राम’ भी कलेवर में अत्यन्त लघु है और यह व्यंग्य प्रधान लघुकथा है। ‘पहली गोली’ समाज में हो रहे अन्याय के विरोध में लिखी लघुकथा है। यह आक्रोश से परिपूर्ण व्यंग्य प्रधान लघुकथा है। ‘अल्टीमेटम’ इन्सानियत को लेकर लिखी गई भावना प्रधान अच्छी लघुकथा है। ‘टिकट का आधार’ चुनाव में टिकट लेने का आधार क्या होता है, इस ओर पाठक का ध्यान केन्द्रित करती है। ‘कारण’ पुलिस की विरोध में लिखी गई रचना है। ‘तन्दूरी-चिकन’ कलेवर में छोटी है तथा वेश्यावृत्ति का आधार बनाकर लिखी गई है।
इन्होंने व्यवस्था, प्रशासन और न्यायपालिका में हो रही धांधलियों का आधार बनाकर भी कुछ रचनाएँ लिखी हैं। ‘व्यवस्था’ यथार्थवादी रचना है। ‘आग’ लघुकथा में यह बतलाया गया है कि व्यक्ति दूसरों के दुःख से दुःखी नहीं होता, किन्तु जब वह दुःख अपने पर आता है तो वह बहुत दुःखी होता है, ‘मुक्ति’ लघुकथा भट्ठा मजदूरों से सम्बन्धित है और इसमें भट्ठा मजदूरों का मुखिया भूख की मुक्ति की बात करता है। ‘छत’ लघुकथा में यह बतलाया गया है कि जीवन में किसी की छत्रछाया का होना ज़रूरी है। ‘लालटेन’ राजनीतिक लघुकथा है और व्यंग्य से भरपूर है। ‘भगवान’ में भक्तों की स्वार्थपरता पर व्यंग्य किया गया है।
इस प्रकार डॉ. रामनिवास मनव ने आक्रोश व व्यंग्य से परिपूर्ण लघुकथाओं के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा पारिवारिक सभी प्रकार की लघुकथाओं की रचना की है। वर्ण्य विषय की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि डॉ. ‘मानव’ आधुनिक लघुकथा की आजतक की सम्पूर्ण यात्रा के एक महत्त्वपूर्ण पथिक रहे हैं। इनकी कुछ रचनाएँ गांव और शहर के अन्तर को स्पष्ट करती हैं और कई लघुकथाएँ सम्बन्धों की कथा सुनाती हैं क्योंकि डॉ. रामनिवास ‘मानव’ स्वयं प्राध्यापक रहे हैं, इसलिए इन्होंने कुछ लधुकथाएँ शिक्षा-जगत् से सम्बन्धित लिखी हैं जो कि यथार्थवाद को लिए हुए हैं।
इनकी लघुकथाओं के शीर्षक भी बहुत कम शब्दों पर आधारित हैं। कुछ शीर्षक स्टेट्स, टालरेन्स, सरप्राइज, हार्ट-अटैक अंग्रेज़ी शब्दों को लिए हुए हैं। डॉ. रामनिवास ‘मानव’ ने अपनी कुछ लघुकथाओं के अन्त तुलनात्मक शैली के आधार पर किए हैं-जैसे ‘कसक’ लघुकथा में वह सोचते रहे कि बेटे के लिए उनका महत्त्व ऊसर जमीन और कच्चे मकान जितना भी है या नहीं। इसी प्रकार ‘इतिहास गवाह है’ का अन्त भी कुछ ऐसा ही है-‘उसे एकाएक याद हो आया, दस वर्ष पूर्व उसने भी तो यहीं किया था, अपने बूढ़े बाप के साथ’। ‘दिवाली की मिठास’ का अन्त-‘उसे लगा, जैसे दिवाली की सारी मिठास पटाखों की बारूदी गंध से कसैली हो गई है’ अत्यन्त प्रभावशाली बन पड़ा है। ‘जीवन-रेखा’ का अन्त पात्र की मनोदशा पर आधारित है-‘काका बिल्कुल वैसे ही बैठे थे, बुझे हुए, जड़वत् और उदास’। ‘सावन की लुएँ ’ का अन्त रूपक अलंकार से अलंकृत है-‘‘ वह तुरन्त आंखों का दरवाज़ा बंद कर लेता है।’’ इनकी तीन लघुकथाओं के अन्त में व्यंग्य है। जैसे उन्हें चेन की नहीं, रोटी की जरूरत है साहब (सोने की चेन) लेकिन ये राजनीतिक दल और नेता क्या उन्हें एक लालटेन दे पाएँ गे (लालटेन) तथा तब से मंदिर में भगवान की मूर्ति है, भगवान नहीं (भगवान)। अन्त की दृष्टि से इनकी लघुकथा मारक प्रभावशाली अन्त के अन्तर्गत ही आती हैं।
डॉ. रामनिवास ‘मानव’ ने कथोपकथनों का यथोचित प्रयोग किया है। इसके कारण इनकी लघुकथाएँ तीव्रता से आगे की ओर बढ़ी हैं। ‘मानदंड, ‘बीजारोपण’ तथा ‘क्लेम’ लघुकथाएँ तो प्रारंभ से अन्त तक कथोपकथनों से ओत-प्रोत हैं।
इन्होंने अपनी कुछ लघुकथाओं का प्रारंभ अपनी ओर से भूमिका बांधकर किया है। जैसे ‘कसक’ लघुकथा भी प्रारंभिक पंक्तियां देखिए-‘‘गांव का युवक पढ़-लिखकर शहर में नौकरी क्या करता है, अपनी जड़ और ज़मीन से ही कट जाता है। शहर जाकर वह अपने गांव के अभावों और अतृप्तियों का प्रतिशोध लेना शुरू कर देता है।’’ इसी प्रकार का ‘संवेदनहीनता’’ लघुकथा में भी वर्णन है-हमारी संवेदनाएँ किस कदर शून्य हो गई हैं, इसका एक उदाहरण आज शहर के व्यस्त प्रताप चौक के पास हुई दुर्घटना के समय देखने को मिला। ‘सम्मान’ लघुकथा में पहली पंक्ति उद्देश्य से सम्बन्धित है -‘‘आजकल लोगों ने सम्मान करने को भी धंध बना लिया है।’’ लघुकथाओं के अधिकतर प्रारम्भ वर्णनात्मक शैली में हैं।
डॉ. रामनिवास ‘मानव’ ने अपनी लघुकथाओं में कई जगह पर पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। जैसे-इतनू नगीच हुयां पाछै बी महनां-महनां मैं आवा सा (कसक)! ‘घर लौटते कदम’ लघुकथा में उपमा अलंकार का वर्णन है-‘उनका चेहरा, भरे बादल-सा लटका रहता।’ ‘अनलौटे श्रीराम’ में ‘फुस्स’ शब्द का बढ़िया प्रयोग हुआ है-‘फिर छुट्टियां भी दो-चार न पड़े, तो पटाखे फुस्स हों या न हों, उनका मन ज़रूर फुस्स हो जाता है। ‘बाप-बेटा’ में डॉ. ‘मानव’ ने कलात्मक भाषा का वर्णन किया है-आँखों में अश्रुधारा उमड़ने लगती है। उसे लगता है कि वह पिघल कर बह जाएगा, आँसुओं की नदी में। ‘सावन की लुएँ ’ में भाषा का चमत्कार द्रष्टव्य है-ज़मीन में तो फसल पता नहीं, कब उगेगी, पर काका के चेहरे पर तो वह आज ही उग आई है, लहलहाने लगी है। लगभग सभी लघुकथाओं की भाषा सरल, सुबोध तथा प्रभावशाली है।
‘घर-लौटते कदम’ में डॉ. ‘मानव’ ने तुलनात्मक शैली का प्रयोग किया है-ई मैं तो हम कोठी-कार आला कै नौकरी बी ना हीं लगता ऊ गांव मैं हम हबेलीवाला तो कहिलावत हैं। ‘जीवन-रेखा’ में संस्मरणात्मक शैली है-समूचा अतीत, किसी चलचित्र की भांति, एकाएक उसकी आंखों के सामने घूम गया। ‘सावन की लुएँ ’ में भी‘‘उसका मन चालीस वर्ष पीछे, अतीत में लौट गया’’-संस्मरणात्मक शैली ही है। ‘शो-पीस’ में आत्मकथात्मक शैली है।
इनकी कुछ लघुकथाओं में किसी-न-किसी रूप में नवीनता है। ‘कसक’ लघुकथा में लेखक स्वयं लघुकथा नायक की बात करता है। हमारे लघुकथा नायक श्रीमान् के साथ भी ऐसा हुआ। ‘अनलौटे श्रीराम’ में लेखक बीच-बीच में पात्रों के बारे में स्वयं कहता है-‘‘सीता।’’ मान लीजिये यहीं उनकी पत्नी का नाम है।’’ इसी लघुकथा से-‘‘दशरथ-नन्दन रामचन्द्र जी तो दिवाली के दिन अयोध्या वापिस आ गये थे, लेकिन हमारे लघुकथा-नायक
रामचन्द्र अक्सर घर नहीं पहुँच पाते’’। ‘‘पत्नी बनाम नारी’’ पत्रात्मक शैली में लिखी लघुकथा है। ‘‘संवेदनहीनता’ में संवाददाता उपेन्द्र व मनीषा की बातचीत द्वारा घटना का वर्णन है। ‘अपने लोग’ डायरी शैली की लघुकथा है।
डॉ. ‘मानव’ ने अपनी लघुकथाओं में बहुत कम पात्र लिए हैं। यह आवश्यक भी है। इनके पात्र ग्रामीण क्षेत्र से भी हैं, तो नगर की भूमि को लिए हुए भी हैं। पात्र जवान हैं तो बूढे भी हैं। शिक्षा क्षेत्र से भी हैं तो प्रशासन की ओर से भी। किन्तु जो हैं, अपने पद के अनुसार भाषा का प्रयोग करते हैं। पाठक को ये सब पात्र जाने-पहचाने लगते हैं। इन्होंने अपने पात्रों के नाम उनके पद या स्थान को लेकर गढ़े हैं-जैसे ग्रामीण पात्रों के नाम रति राम, महाराम, राममूर्ति आदि रखे हैं। इन्होंने ग्रामीण वातावरण का वर्णन बहुत अच्छे ढंग से किया है-‘सावन की लुएँ ’ लघुकथा में देखिए- ‘‘काका ऊंट पर पिलानी कसकर हल जोतते हैं, पनिहारी-ओरने को, बजाकर, हिला-डुलाकर देखते हैं।’’
इनकी लघुकथा की एक विशेषता रोचकता भी है, ये रचना में रोचकता लाने के लिए विषय-वस्तु, कथोपकथन, कसाव, शैली, भाषा की ओर विशेष ध्यान देते हैं। इनकी लघुकथाएँ पाठकों के अत्यन्त निकट की हैं। पाठक किसी-न किसी रूप में पात्रों में अपनी झलक देखता है।
कुल मिलाकर यह कहना पड़ेगा कि डॉ.रामनिवास‘मानव’ की लघुकथा को देन अविस्मरणीय है। भविष्य में और लघुकथाओं द्वारा लघुकथा साहित्य को समृद्ध करेंगे-ऐसा मेरा विश्वास है।
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पुस्तक: डॉ. रामनिवास ‘मानव’ की प्रतिनिधि लघुकथाएँ :सम्पादक: रोहित यादव,प्रकाशक: अनिल प्रकाशन, नई सड़क, दिल्ली;प्रथम संस्करण: 2014, मूल्य: 180.00 रुपये
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लघुकथा-यात्रा के सभी सोपानों को पार करतीं लघुकथाएँ
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