तीसरा पुरस्कार प्राप्त लघुकथा
गाँव से बाहर एक सड़क थी। सड़क बस नाम की ही थी बाकी तो उस पर इतने गड्ढे थे कि पैदल चलना भी दूभर था। वाहन भी सही सलामत तब ही निकल पाते जब ड्राइवर पूरी सतर्कता बरतता। सड़क ठीक करवाने के लिए गाँव वालों ने विधायक से लेकर मुख्यमंत्री तक के नाम न जाने कितनी चिट्ठियाँ लिख डाली थीं। सरकार तो मानो घोड़े बेचकर सोई थी।
एक दिन रामनिवास अपनी गाड़ी से परिवार सहित रिश्तेदारी में ।गया था। वापस लौटने से पहले ही बरसात शुरू हो गई। जब गांव तक पहुंचा तो उस सड़क पर बरसात के कारण गड्ढों में पड़ी मिट्टी ने कीचड़ का रूप धारण कर लिया था। कीचड़ को देख गाड़ी में बैठे सभी ने नाक-भौं सिकोड़ ली।
अब रामनिवास गाड़ी निकालने के बारे सोच ही रहा था कि उसकी माँ बोल पड़ी- “बेटे देखकर, गाँव के सरपंच की तो आँखें फूट रही हैं। उसे तो कुछ दिखता ही नहीं।” माँ का गुस्सा सरपंच पर फूटा।
“माँ, इसमें सरपंच क्या कर सकता है। यह तो सरकार के हिस्से की सड़क है।”
“अरे! कर क्यूँ नहीं सकता। कच्चा-पक्का रास्ता तो बनवा ही सकता है। भलाई के काम में कहीं नहीं सरकार उसे जेल में डालती।”
“माँ…”
“क्या माँ… माँ की रट लगा रहा है, किसी दिन कोई बड़ा हादसा हो गया ना, फिर देखना… पूरे गाँव पर थूकेगी दुनिया। सरपंच नहीं करवा सकता ,तो गाँव वालों के कौन से हाथ धरती पर टिके हैं, वे ही पैसे इकट्ठे करके इसे पक्का करवा दें।” माँ ने बेटे की बात पूरी होने से पहले ही अपने मन की बात कह डाली।
“माँ तेरी बात सही है, पर आजकल साझे के कामों के लिए कोई पैसे देकर राजी नहीं। दूसरा, यदि पैसे दे भी देंगे, तो काम में अनेक कमियां निकालेंगे। और इस बात का भी डर बना रहता है कि काम करवाने वाले पर गबन का ही आरोप न लगा दें। अब ऐसे में कौन आफत मोल ले।”
“अच्छा! तो हादसे होते रहने दे।” ऐसा कहते हुए माँ के चेहरे पर अनजाना-सा डर समा गया था। थोड़े दिनों के बाद उस रास्ते पर मिट्टी डलनी शुरू हो गई और फिर सीमेंट की ईंटें भी बिछने लगीं।
बात रामनिवास की माँ के कानों में भी पड़ी। वह यह सुनकर बहुत खुश हुई और पास ही बैठी एक औरत को सड़क संबंधी आपबीती सुनाने लगी- ”रामकली की माँ! उस दिन तो हम राम के घर से आए… गाड़ी का एक पहिया तो बिल्कुल गड्ढे में ही चला गया था, वो तो मेरे बेटे की ड्राइवरी अच्छी थी… नहीं। तो…!”
“ना,…रामनिवास की माँ ऐसा ना बोल। ऐसी अनहोनी तो किसी दुश्मन के साथ भी न हो। लो, अब तो सड़क ठीक हो गई।”
“…मैं तो भगवान से हाथ जोड़कर यही माँगती हूँ कि जिसने भी यह सड़क बनवाई…उसके घर में सुख-शांति बनी रहे।”
“सही बात है। अच्छे के साथ तो अच्छा होना ही चाहिए।” उस औरत ने उसकी बातों का समर्थन किया।
आज न जाने कहाँ से रामनिवास की माँ को पता चल गया कि यह सड़क किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं रामनिवास ने ही बनवाई है तो अपने बेटे पर बरस पड़ी- “तुझे क्या पड़ी थी इतना पैसा फूँकने की… बड़ा आया भामाशाह …इस पैसे से अपने दस काम सँवरते…”
माँ की बातें पूरी हुई भी नहीं थीं कि पत्नी भी अपने मन का गुबार निकालने लगी- “हम बाजार में सौ रुपये फालतू क्या खर्च कर देते हैं ,तो आग बबूला हो उठते हैं और अब देखो, पानी की तरह बहा दिया पैसा… अपने बाल बच्चों का जरा भी खयाल नहीं रहा…”
वह चुप था। उसके जेहन में कभी माँ-पत्नी का वो डर , तो कभी वहाँ से गुज़रने वालों की पतली होती हालत घूम रही थी। अब ऐसे में वह उन दोनों के इस रूप को समझने में स्वयं को असमर्थ पा रहा था।
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