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लघुकथा माने,  एक पंक्ति में कितने मोती?

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मेरी माँ जो पढ़ने, लिखने की बहुत शौकीन हैं; जिन्होंने विवाह के कई सालों बाद अपनी ग्यारहवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की ओर जो आज भी धार्मिक पाठशाला में पढ़ने जाती हैं; हमें बचपन में जैन धर्म की किताबों से पढ़कर अधिकतर हर रात को कथाएँ सुनातीं थीं। लघुकथाओं से मेरी पहली मुलाक़ात शायद यही रही  है।

उसके बाद समाचार पत्र-पत्रिकाओं में कई सालों से मैं लघुकथाएँ  पढ़ रही थी। ‘ओशो’ अपनी बात को हमेशा छोटे-छोटे किस्सों या कथाओं के माध्यम से ही समझाते हैं। इन लघुकथाओं ने कई बार मन पर बहुत गहरी छाप छोड़ी। ये बात भी मन में उठती थी की कितने कम शब्दों में कितनी गहरी बात कह दी गई है। ओशो की छोटी-छोटी कथाएँ कई बार मेरे लेखों का भी हिस्सा बनी।

अब जब मैंने लघुकथा लिखना शुरू किया तो मेरा रचनाओँ को पढ़ने का नज़रिया बदलने लगा। एक पाठक या एक लेखक के साथ पाठक के नज़रिए में बहुत बड़ा फ़र्क होता है। एक लेखक जब पढ़ता है तो उसकी रचना से जुड़ी माँग बड़ जाती है; कसौटी भी बदल जाती है। अपने लिए भी व अन्य रचनाओं के लिए अब कलम के साथ ज़िम्मेदारी, धार,  शिल्प, नियम सबकी ज़रूरत महसूस होने लगती है।

दूसरों से हम सीखतें हैं व ख़ुद को गढ़ते जाते हैं बस ऐसे ही एक लेखक का लेखकीय कर्म पूरा होता है। सीखने के लिए, मन को तरंगित कर जाने के लिए रचना से जुड़ी कोई दीवार नहीं होती है।

लघुकथा वक्त के साथ समृद्ध, प्रसिद्ध होती जा रही है। आज लेखकों, पाठकों की संख्या बढ़ती जा रही है। साथ ही लघुकथा अपने सीमित दायरों के बावजूद अनन्त को छूने की क्षमता रखती है। एक पल, एक पीढ़ी,  एक युग  ही नहीं कई पीढ़ी व युगों को समेटकर भी लघुकथा लिखी गई हैं। साथ ही नियम के मानदंडों पर भी ख़री उतरीं हैं।

लघुकथा के क्षेत्र में कई नाम हैं जो मील का पत्थर साबित हुए हैं। लगभग 150 वर्षों का इतिहास समेटे लघुकथा हर दिन सम्रद्ध होती जा रही है। रमेश बतरा,डॉ सतीश दुबे , पारस दासोत , सतीश राज पुष्करणा ,  सुकेश साहनी , रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ , श्यामसुंदर अग्रवाल ,  बलराम अग्रवाल  ,   अशोक भाटिया,सुभाष नीरव , मधुदीप जी जी जैसे कई नाम हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से लघुकथा को समृद्ध किया है। इनका साहित्य के क्षेत्र में योगदान आने वाली पीढ़ी के लिए के रास्तों को रौशन करेगा!

कला ख़ुशबू की तरह होती है उसने कभी भौगोलिक दीवारों को नहीं माना है। संगीत, नृत्य, खेल हो या फिल्में इन्होंने सरहदों के पार प्रसिद्धि पाई है। फिर लेखन इससे कैसे अछूता रह पाता! रवींद्र नाथ हो या टॉलस्टॉय, ख़लील जिब्रान हो या सत्यजीत रे या प्रेमचंद इन सबकी रचनाओं को अनुवादित किया गया है। साहित्य के अमृत से कोई अछूता ना रहे इसकी हमेशा कोशिश की गई है।लघुकथा के संदर्भ में कहें तो ख़लील जिब्रान की लघुकथाएँ मुझे बहुत भाती हैं।

आज प्रचार, प्रसार के माध्यम के कारण हम पढ़ते और सीखतें हैं। साथ ही हम मार्गदर्शन भी पाते हैं। उस दौर का लेखन तो सिर्फ़ आत्मा की आवाज़ ही रहा होगा। जो देखा, समझा, भोगा वो लिख दिया। वैसे उससे अनुपम कुछ होता भी नहीं है! हर लेखक ने थोड़ी हकीक़त, थोड़ा फ़साना इससे मिलकर ही तो रचना का संसार रचा है।

उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में लिखी गई ये दो लघुकथाएँ आज बीसवीं शताब्दी में भी उतनी ही सटीक बैठती है।जैसे रात-दिन, सुख-दुःख, हार-जीत साथ-साथ रहतें हैं वैसे ही ये दो लघुकथाओं का एक जोड़ा है। ‘जब मेरा हर्ष पैदा हुआ’ और ‘जब मेरा शोक पैदा हुआ’।

हर्ष और शोक को अपनी संतान के रूप में प्रस्तुत करना इस कथा की ख़ूबसूरती है। वो हर्ष को गोद में अपने बच्चे की तरह उठाकर ख़ुश हुआ। हमारे जीवन के सुख- दुःख हमारी सन्तानों की तरह ही तो होते हैं। जिन्हें हम बड़ी लगन से पालते हैं। साथ ही अपनों का साथ भी चाहते हैं। हर्ष, शोक को सन्तान कहकर जिब्रान ने एक सटीक बिम्ब का प्रयोग किया है। कितनी अजीब बात है जब किसी के जीवन में ख़ुशी आई तो उसे  बाँटने वाला कोई नही था।  वो कई चाँदनी रातों तक  अपने घर की छत पर खड़ा सबको पुकारता रहा पर उसकी खुशियों में शामिल होने कोई नही आया और अंततः उसका हर्ष तन्हा मर गया। मरे हुए हर्ष की याद पतझड़ के आख़री पत्ते के जैसी ही तो है जो एक बार गुनगुनाई और फिर हमेशा के लिए ख़ामोश हो गई। ये एक और बिम्ब का सुंदर प्रयोग है! कल और आज के युग का भी यही हाल है ना, हमें किसी की सफलता, ख़ुशी बर्दाश्त नहीं होती। हम किसी को प्रोत्साहन देने के लिए आगे नहीं बढ़ पाते। ख़ुशी बांटने से बढ़ती है पर उस ख़ुशी का क्या जिसे कोई नज़र उठा कर नहीं देखे? इसी कथा का दूसरा पहलू जिब्रान ने बड़ी ख़ूबसूरती से पिरोया है ,जिसमें ‘जब मेरा  शोक पैदा हुआ’  तो उसे उसने  बड़ी जतन से पाला; अपने दुःख को अतीत को हम हमेशा ज़िन्दगी भर अपनी पीठ पर उठाए घूमते हैं। इसीलिए  वह  शक्तिशाली, सुंदर हो जाता है सब उसपर ध्यान देते हैं तो वो उसे ख़ुशी देता है। सबको हमेशा अपने दुःख बड़े ही लगते हैं ना?!  कितनी बड़ी विडंबना है कि हर्ष से मिलने कोई नही आया। घर की छत पर खड़े होकर चाँदनी रातों में सबको पुकारा वो भी व्यर्थ गया पर  जब वो अपने  शोक से बातें करता तो लोग घर की दीवारों पर कान लगाकर उसकी बातें सुनते। दुःख बड़ा बातूनी होता है जो रातों को जागकर् , अपनी यादों के गीत गुनगुना सकता है और जिसे दुनिया सुनना पसंद करती है। एक सच ये भी है कि शोक जीवन को गहराई देता है, जिससे उसके गीतों में दर्द पैदा होने लगा था।  इंसान भी इस गर्व से भर जाता है कि देखो! मेरे दुःख ने मेरा कद बड़ा कर दिया है। एक दिन जब दुख मर जाये तो हम फिर अकेले हो जाते हैं। कोई हमारी तरफ देखता भी नही!  दुखड़े सुनने को कई आ जाते हैं पर तन्हाई को बाँटने कोई नही आता। यही संसार की रीत है यहाँ सब आँसू पर खुश होते हैं और खुशी में साथ छोड़ देतें हैं।

मेरे दूसरे पसंदीदा लेखक हैं- श्याम सुंदर अग्रवाल जी।

श्यामसुंदर जी की ‘संतु’ मुझे बेहद प्रिय है! एक पंक्ति में कितने मोती हैं यही सौन्दर्य, कुशलता है एक लेखक की!  ‘प्रौढ़’ और ’बेनाप’ के जूते भी गरीब का पैर नहीं डगमगाने देते। ग़रीब तब  भी काम ढूँढता है जब उसकी काम करने की उम्र नहीं होती है। बेनाप के जूते ने कथा के दर्द को उभारा है। हम तो बेनाप के जूते से चल भी नहीं सकते पर एक गरीब उन्हें पहन कर टूटी सीढ़ियों पर पानी की बाल्टी उठाकर चढ़ सकता है पर उसके पैर नहीं डगमगाते हैं।  दो रुपये की एक बाल्टी मानें रोज़ के बीस रुपये की आस  उसे बेहद ख़ुश कर देती है। बड़ी बाल्टी शोषण करने वाले कि मानसिकता को दर्शाती है। यदी हम पैसे देकर पानी मँगवा रहें है तो छोटी बाल्टी तो कभी हो ही नहीं सकती है।  रोज़गार के साथ एक प्याली चाय गरीबों का दिल जीत लेती है। कम पैसे का अहसास वो चाय हमेशा पूरा कर देती है और बेचारा गरीब उस चाय के कप के नीचे अहसान में दब जाता है। वाज़िब दाम की बात तो उसके मन में आती भी नहीं है।  महीने भर नहर में पानी नहीं आया, तो उसका रोज़ का काम पक्का! ये ख़ुशी तब बिखर जाती है उसके पैर डगमगाते जाते हैं  जब वो ख़ाली हाथ सीढ़ियाँ चढ़ता है, तब उसे अंदर से बिना देखे ही कोई कहता है -“अब पानी की कोई ज़रूरत नहीं है नहर में पानी आ गया है।“  वह खाली हाथ ,रोज़गार छिन जानें के दर्द को झेल नहीं पाता है और उन सीढ़ियों से औंधे मुँह गिर जाता है। जिन टूटी सीढियों पर पानी की बाल्टी उठाए होने पर  भी उसके पैर जमें रहते थे ,पर रोज़ी छीनने की बात सुनकर वह ख़ाली हाथ भी ख़ुद को नहीं सम्हाल पाता है। कितनी भयावह है भूख़, ग़रीबी! एक अनियमित रोजग़ार वाला व्यक्ति आधा पेट ख़ाकर कैसे जीता है, यह मैंने इस कथा में महसूस किया।  सामाजिक विसंगतियों को दर्शाने का एक खूबसूरत ज़रिया है: लघुकथा! ‘संतु’ ने एक पूरे वर्ग के दर्द को अपनी इस कथा में समेटा है। व्यवस्था के दोष से उपजा अमीरी-ग़रीबी का फ़र्क लोगों के दिलों को द्रवित कर दे यही इस कथा का एक सशक्त, सार्थक सन्देश है।

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1-1-जब मेरा हर्ष पैदा हुआ-खलील ज़िब्रान

जब मेरा हर्ष पैदा हुआ तो मैंने उसे गोद में उठा लिया और छत पर खड़ा होकर पुकारने, लगा-“ आओ, मेरे पड़ोसियों देखो, आज मेरे घर हर्ष पैदा हुआ है। आओ, इस आनन्ददायक वस्तु को देखो, जो सूर्य के प्रकाश में हँस रही है।“

किंतु मेरा एक भी पड़ोसी मेरे हर्ष को देखने के लिए नहीं आया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।

सात पूर्णिमाओं तक मैं हर रोज छत पर खड़े होकर अपने हर्ष की मुनादी करता रहा, परन्तु किसी ने इस तरफ ध्यान न दिया। बस मैं और मेरा हर्ष बिल्कुल अकेले रहे। न किसी ने उसकी तलाश की और  न उसे कोई देखने के लिए आया।

इस कारण मेरा हर्ष निढाल हो गया, क्योंकि न तो मेरे सिवा अन्य किसी दिल ने उसकी दिलजोई की, न किसी अन्य के होंठों ने उसके होंठो को चूमा।

परिणाम यह हुआ कि अकेले रहने के कारण एक दिन मेरा हर्ष भी चल बसा।

अब मैं अपने मृत शोक की याद में अपने मृत हर्ष को याद करता हूँ।

लेकिन अफ़सोस! यह स्मृति एक पतझड़ के पत्ते की तरह है जो हवा में एक क्षण के लिए ज़रा गुनगुनाती है और फिर हमेशा के लिए खामोश हो जाती है।

1-2-जब मेरा शोक पैदा हुआ-खलील ज़िब्रान

जब मेरा शोक पैदा हुआ तो मैंने बड़े यत्न से उसे पाला ओर बड़ी सावधानी से उसकी रक्षा की।

और मेरा शोक अन्य सब जीव- धारियों की तरह बढ़ने लगा। शक्तिशाली, सुंदर और हर्षपूर्ण!

हम एक-दूसरे को प्यार करते थे। मैं और मेरा शोक! और हम अपने चारों ओर की दुनिया को मोहब्बत करते थे, क्योंकि शोक के दिल में बड़ी करुणा थी और मेरा ह्रदय भी शोक के कारण दया से भर गया था।

और जब मैं और मेरा शोक आपस में बात करते थे तब हमारे दिनों को पंख निकल आते थे और हमारी रातें स्वप्न हो जाती थी, क्योंकि शोक बात करने में बड़ा निपुर्ण था और मैं भी उसकी वजह से बहुत बातूनी हो गया था।

जब हम दोनों एक साथ गाते थे, मैं और मेरा शोक, तो हमारे पड़ोसी खिड़कियों पर बैठकर सुनते, क्योंकि हमारे गीत समुद्र की तरह गहरे थे और हमारे स्वरों में आश्चर्यजनक स्मृतियाँ छिपी थीं।

जब मैं और मेरा शोक साथ- साथ टहलते थे तो लोग हमें प्यार की दृष्टि से देखते और हमारे सम्बन्ध में आहिस्ता-आहिस्ता मीठे शब्द कहते। कुछ लोग ऐसे भी थे, जो हमसे ईर्ष्या करते थे, क्योंकि मेरा शोक श्रेष्ठ था और मुझे भी अपनी श्रेष्ठता पर गर्व था।

किंतु अन्य सभी नाशवान् वस्तुओं की तरह एक दिन मेरा शोक भी चल बसा और मैं मातम करने के लिए अकेला रह गया।

अब मैं बोलता हूँ तो मेरे शब्द मेरे कानों को भार मालूम होते हैं।

मैं गाता हूँ तो  मेरे पड़ोसी सुनने नहीं आते और जब मैं रास्ते में चलता हूँ तो कोई मेरी ओर आंख उठाकर नहीं देखता।

अब सिर्फ नींद में मुझे ये दर्द भरी आवाज़ सुनाई देती है, “ देखो, यह वह मनुष्य पड़ा है, जिसका शोक मर चुका है।

2-संतू-श्याम सुन्दर अग्रवाल

प्रौढ़ उम्र का सीधा-सा संतू बेनाप बूट डाले पानी की बाल्टी उठा जब सीढ़ियाँ चढ़ने लगा तो मैंने उसे सचेत किया, “घ्यान से चढ़ना। सीढ़ियों में कई जगह से ईटें निकली हुई हैं। गिर न पड़ना।”

“चिंता न करो, जी! मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।”

और सचमुच बड़ी-बड़ी दस बाल्टियाँ पानी ढोते हुए संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला।

दो रूपए का नोट और चाय का कप संतू को थमाते हुए पत्नी ने कहा, “तू रोज आकर पानी भर दिया कर।”

चाय की चुस्कियाँ लेते हुए संतू ने खुश होकर सोचा-“रोज बीस रुपए बन जाते हैं पानी के। कहते हैं अभी नहर में महीना और पानी नहीं आनेवाला। मौज हो गई अपनी तो !”

उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।

अगले दिन सीढ़ियाँ चढ़कर जब संतू ने बाल्टी माँगी तो पत्नी ने कहा, “अब तो जरूरत नहीं। रात को ऊपर की टूँटी में भी पानी आ गया था।”

“नहर में पानी आ गया! ” संतू ने आह भरी और लौटने के लिए सीढ़ियों पर कदम घसीटते लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढ़ियों में गिरने की आवाज हुई। मैंने दौड़कर देखा, संतू आँगन में औधे मुँह पड़ा था। मैंने उसे उठाया। उसके माथे पर चोट लगी थी।

अपना माथा पकड़ते हुए संतू बोला, “कल बाल्टी उठाए तो गिरा नहीं, आज खाली हाथ गिर पड़ा।”

एक लेखक की कलम की पहली ज़रुरत है उसकी पढ़ने की क्षमता! वो फ़िर किताबें हो सकती हैं; मानव मन भी हो सकता है। परिस्थितियों के फूल भी हो सकते हैं और अंगारे भी। प्रक्रति का कोमल रूप ओस की बूंदों के रूप में हो सकता है या तूफान के रूप में। किसी की उंगलियों की सरसराहट भी हो सकती है तो किसी की आंखों के सुर भी! रचना के इस अनन्त सागर में लघुकथा के मोती बनते, मिलते रहेंगें! ज़रूरत है उन्हें आत्मसात् करने की; अपनी क्षमताओं को पंख देने की…।

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