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हृदय के झरोखें से

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जहाँ तक श्रेष्ठ लघुकथाओं में ‘मेरी पसंद’ की बात आती हैं, हृदय के झरोखें से एक साथ कई लघुकथाएँ ताकने–झाँक करने लगती हैं। चाहे वह सुकेश साहनी की ‘ठंडी रजाई’, ‘इमिटेशन’, ‘डरे हुए लोग’ हों या सतीश राज पुष्करणा की ‘पत्नी की इच्छा’, ‘व्यापारी’, ‘तानाशाह’। तारिक असलम तस्नीम की ‘सिर उठाते तिनके’, ‘हालात’, ‘ताकत’ हो या भगवती प्रसाद द्विवेदी की ‘भविष्य का वर्तमान’। डॉ. कमल चोपड़ा की ‘साँसों का विक्रेता’, ‘खेल’, ‘इस तरह हों’ या रामयतन यादव की लघुकथा ‘विधवा’, ‘कलयुगी रावण’ या ‘लाटरी’। इक्कीसवीं सदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर मेरी पसंद की लगभग दो सौ ऐसी लघुकथाएँ होगीं, जो लघुकथा के विकास में अपनी अह्म भूमिका निभाने में सक्षम है।
इस छोटे से आलेख में इनमें से ही दो ऐसे लघुकथाकारों की एक–एक ऐसी प्रतिनिधि लघुकथाओं पर चर्चा करना चाहूँगा,जो लघुकथा के इतिहास में लघुकथा को एक नई दिशा देने के क्रम में सक्षम है।
डॉ. कमल चोपड़ा की लघुकथाओं की यह विशेषता रही है कि वह लेखकीय पृष्ठभूमि के बजाय, पात्रों के माध्यम से, पूरी तरह अभिव्यक्त होती है। मानसिक तनावों के बीच पात्रों की अमानवीय प्रवृत्ति का दायित्वपूर्ण रचनात्मक साक्ष्य दिखता है उनकी सर्वाधिक चर्चित लघुकथा ‘खेल’में।
आर्थिक संकट के कारण, दैहिक शोषण का दृश्य, मर्मभेदी टीस छोड़ जाती हैं–कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘खेल’ में। मनौवैज्ञानिक दृष्टि से भी यह लघुकथा बाल मनोविज्ञान के उन पहलूओं को उजागर करती है, जहाँ आज के बच्चे भी रुपए–पैसे की खनक से दूर नहीं दिखते। हालाँकि उनकी सोच में अन्तर पड़ सकता है, जहाँ बड़ों द्वारा कहा गया ‘झूठ’ भी बच्चों के सामने एक बड़ा सवाल बनकर उसके ही अंतस् को कुरेदते रहता है। तथा उसका भोलापन हमारी वयस्क मानसिकता को कहीं दूर तक झकझोर देता है। आज से लगभग 20 साल पहले पढ़ी गई कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘खेल’ आज भी मेरे अंतस् में चुभती है और यह मेरी पसंद की यादगार लघुकथा बन गई है।
कमल चोपडा के बाद एक और नाम हमेशा मेरी पसंद के क्रम में आता है, वह है रामयतन यादव। रामयतन की लघुकथा की विशेषता है कि वे बहुत ही कम ाब्दों में बहुत ही कम कलाबाजी दिखलाते हुए अपने कथ्य और शैली के बल पर, पाठकों के हृदय में सीधे–सीधे उतर जाने की पूरी–पूरी क्षमता रखता है। कुछ ऐसी ही लघुकथाओं में रामयतन की दो लघुकथाएँ ‘विधवा’ और ‘लाटरी’ लगभग 20 साल बाद भी मेरी पसंद की लघुकथा क्रम में सर्वोच्च स्थान रखती है। यहाँ मैं ‘विधवा’ लघुकथा पर विचार व्यक्त करना चाहूँगा।
‘विधवा’ में भूखे बच्चे द्वारा भूख मिटाने का जो समाधान,भोलेपन के साथ हमारे सामने प्रस्तुत होता है, वे हमारे भीतर की संवेदना को अतिविस्तार तो देता ही है, हमारे अंतस् को भी कुरेद देता है। बाल मनोविज्ञान की यह श्रेष्ठ लघुकथा कही जा सकती है,जहाँ एक मासूम बच्चा भूख से आगे और कुछ भी सोचने, चिंतन करने की आवश्यकता महसूस नहीं करता। यही विशेषता भी है इस लघुकथा की, जिसकी महिला पात्र क्रोधित होते हुए भी खुद कोअपने बच्चे की इस मासूमियत से अलग नहीं रख पाती । रामयतन यादव की लघुकथाओं में घटना संदर्भों की मौलिकता तथा प्रस्तुति की ताज़गी सुखद आशा तो जगाती ही है, पंसदीदा लघुकथाओं के बीच अपना स्थान भी बना लेती है।
1-खेल
-कमल चोपड़ा

एक फटे हुए कपड़े के बीच में गाँठ मारकर बनाई गई गुडि़या,एक डिबिया और कुछ टूटी–फूटी चूड़ियों के टुकड़े, अपने इन खिलौनों के साथ वीनू खोली के कोने में अकेला ही खेल रहा था।
खोली के दरवाजे को ठेलकर अंदर आए पैंट–कमीज वाले बाबू को देखकर वीनू डर गया। उसने भागकर अपनी माँ से हँस–हँसकर बातें करता देख वह कुछ आश्वस्त हुआ।
‘‘वीनू….तू लच्छी के घर जाकर उससे खेल….’’
लच्छी की याद आते ही वीनू अपने खिलौने समेटकर उसके घर खेलने चल दिया।
वापस आया तो दरवाजा बंद था। वह काफी देर खटखटाता रहा। दरवाजा खुला। बाबू उसकी माँ को कुछ रुपए देकर जाने लगा। जाते–जाते एक चवन्नी वीनू के हाथ पर रखता गया।
‘‘माँ! बाबू ने मुझे भी….बाबूजी अच्छे थे ना….पर माँ, ये बाबूजी थे कौन? बताओ ना माँ, कौन थे?’’
‘‘तेरे स्वर्गीय पिता के पुराने दोस्त।’’ माँ ने बहाना टिका दिया।
‘‘अच्छा…पर क्या करने आए थे?….माँ, बोलो ना, क्या करने आए थे?’’
माँ झुँझला उठी,’’ मुझे नहीं पता, सिर मत खा!’’
‘‘माँ….पर मुझे पता है , किसलिए आए थे।’’
‘‘किसलिए ?’’ काँप गई माँ।
‘‘तुम्हारे साथ खेलने….है न माँ….जिस तरह मैं लच्छी के घर जाता हूँ…खेलने के लिए।’’ माँ ने सीने से लगा लिया वीनू को।
‘‘पर माँ….मैंने तो लच्छी को कभी नया पैसा भी नहीं दिया। बाबू तो तुम्हें…माँ…माँ! मै यह पच्चीस पैसे लच्छी को दे आऊँ?’’
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2-विधवा-
रामयतन यादव

एक छोटे एवं पिछड़े गाँव में एक गरीब परिवार किसी तरह अपना जीवन- यापन करने की चेष्टा में संघर्षरत है। पति–पत्नी दिनभर खेतों में मजदूरी करते हैं और पति शाम होते ही अपनी कमाई तो शराब के ठेके पर ही दे आता है। बस, पत्नी की कमाई से उनका एवम् उनके एक मात्र बच्चे का पेट पलता है।
एक दिन पत्नी की तबीयत कुछ सुस्त हो गई और वह मजदूरी करने नहीं जा सकी। अत:, उस दिन फ़ाकाकशी ने उन्हें घर दबोचा। परन्तु बच्चा इन सारी जेहमतों से अनजान–माँ से अपनी क्षुधा मिटाने हेतु कहने लगा–
‘ माँ कुछ खाने को दो न! भूख से मरा जा रहा हूँ ।’
‘बेटा! कुछ देर और ठहर जा, तेरा बाप कुछ लेकर आता ही होगा।’
‘ माँ! कुछ देर ठहरने के लिए तो तू सबेरे से ही कह रही है।’ माँ के आँचल को उसने अपने हाथों से खींचते हुए कहा।
‘ माँ! तू मुझे साथ लेकर वहाँ क्यों नहीं चली जाती?’
‘ कहाँ?’ माँ ने आश्चर्य से पूछा।
‘वहीं, जहाँ रामप्यारी चाची रहती है। वहाँ तो खाने–पीने की कोई कमी नहीं है।’
‘बेटा! वह विधवा आश्रम है। वहाँ सिर्फ़ विधवाएँ ही रहती हैं।’
‘तो,तू भी विधवा क्यों नहीं हो जाती….. माँ,!’
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