हिन्दी लघुकथा लेखन का रकबा बढ़ा है, इस बात पर कोई शक नहीं, लेकिन लघुकथा की श्रेष्ठ फसल के बरअक्स लघुकथा की खरपतवार गुणात्मक ढंग से उग रही है, फलस्वरूप आजकल अच्छी लघुकथाओं के टोटे दिखाई दे रहे हैं। जो गिने-चुने लघुकथाकार मौजूदा दौर में भी सटीक और विश्वसनीय लघुकथा लिख रहें हैं,
वे ही लघुकथाकार अनुकरणीय होकर लघुकथा का मुद्दा और माद्दा दोनों को समान रूप से बचाए हुए हैं।कतिपय लघुकथाएँ जो बरबस ही मेरा मन आकर्षित करती है, उनके लघुकथाओं में लघुकथाकार सेवा सदन प्रसाद की ‘नए साल का विश’, अशोक शर्मा की ‘मुखौटा ‘,श्याम सुंदर अग्रवाल की ‘साझेदार’,विनोद खनगवाल की ‘प्रदेय के पीछे ‘आदि सामयिक महत्व की लघुकथाएँ हैं।बावजूद इन लघुकथाओं के जिन दो लघुकथाकार की चर्चा यहाँ पर कर रहा हूँ उनमें सन्तोष सुपेकर की लघुकथा ‘मुखर होती सिहरन ‘तथा श्याम बिहारी श्यामल की लघुकथा ‘हराम का खाना ‘भी मेरी पसंद में शुमार है, जिसकी चर्चा मैं यहाँ कर रहा हूँ।
‘ मुखर होती सिहरन ‘ शीर्षक से शोभित संतोष सुपेकर की लघुकथा का पहला आकर्षण लघुकथा को दिया शीर्षक ही है ।यह ऐसा शीर्षक है जो लघुकथा के कथ्य को अपने पार्श्व में छुपाए हुए है । शीर्षक की यही खूबी पाठकों के मन पर दस्तक देती है । चुनान्चे इससे पाठक जिज्ञासावश जुड़कर लघुकथा का आस्वादन अवश्यमेव करता ही है ।एक सार्थक शीर्षक वही है जो पाठकों को कथानक में दृष्टिसम्पन्नता के साथ उतरने का न्यौता देता मिले।सुपेकर की लघुकथा का ‘ मुखर होती सिहरन ‘शीर्षक उक्त आशय में सार्थक है ।
सन्तोष सुपेकर की लघुकथा ‘ मुखर होती सिहरन ‘ समाज में व्याप्त उस आशंका को रेखांकित करती घटित होती है, कि मेले -ठेले में प्रायः छोटे बच्चों के खो जाने का भय बना रहता है । लघुकथाकार सन्तोष सुपेकर ने इस समाज प्रचलित धारणा में केवल बच्चे ही नहीं बुजुर्गों के भी मेले में खो जाने के सम्भावित विचार को अपनी लघुकथा ‘मुखर होती सिहरन ‘में स्थापित करते हुए प्रस्तुत लघुकथा को एक ऐसा नैसर्गिक आयाम दिया है, जिसकी वजह से यह लघुकथा कथ्य की दृष्टि से स्पष्ट और वाचाल हो उठी है ।
पिता रामकिशन अपने बच्चों को मेला दिखाने के लिए ले जाने से पूर्व उनकी जेब में अपने घर का पता और अपना मोबाइल नंबर लिखी कागज की पर्ची दृष्टिसम्पन्नता की सोच से उपजे इस आशय के साथ डाल देता है कि मेले की भीड़ भरी रेलमपेल में बच्चे यदि असावधानीवश खो जाएँ तो किसी अन्य अपरिचित की जागरूकता के कारण उसके गुमशुदा हुए बच्चे उसे आसानी से मिल सकते हैं ।
लेकिन प्रस्तुत लघुकथा में ट्विस्ट तब उत्पन्न होता है जब मेले में घूमने के लिए तैयार हुई बैठी माँ खुद को लेकर सोचती है कि आखिर उसके बेटे रामकिशन ने उसके पास नाम-पता लिखी ऐसी कोई पर्ची क्यूँकर नहीं छोड़ी ।( बूढ़े -बच्चे दोनो समान ),जो माँ पहले बेटे रामकिशन को उसके बच्चों के मेले में गुम न हो जाने के आशय को लेकर नाम पता और मोबाइल नंबर लिखी कागज की पर्ची उनके जेब में रखे जाने की बेटे की जागरूकता से खुश थी वह अपनी अवस्था के चलते हुए मेले में खुद के खो जाने के सम्भावित विचार के कारण बेटे से यही सजग व्यवहार अपने लिए भी अपेक्षित समझती थी कि उसका बेटा रामकिशन उसके हाथ में भी नाम -पता वाली पर्ची थमादे।अनपढ़ माँ की सोच में मेले में अपने खो जाने का भय इस बात से भी पुष्ट था कि इसी मेले में पिछली बार उसकी पड़ोसन पार्वती बाई गुम हो चुकी है ।खुद की जिंदगी में झांककर जिस तरह वृद्ध लोग चलते हैं ,उनकी इस अटूट धारणा को लेकर लघुकथाकार सन्तोष सुपेकर ने अपनी लघुकथा में वृद्ध जीवन की विचारगत त्रासदी को गहराया है ।’मुखर होती सिहरन ‘लघुकथा अपने कथ्य से इस बात का विस्फोट करती मिलती है कि, क्या वाकई परिवार में वृद्ध उपेक्षा के शिकार हैं ?समाज में पसर चुके सघन भौतिकवादी संकट के कारण वृद्ध जीवन के साथ जो विसंगतियां जुड़ चुकीं हैं,यह लघुकथा इस आशय का ध्वनियातमक बोध भी कराती मिलती है।प्रस्तुत लघुकथा का केंद्र लघुकथा के अंत में मुखर हुआ मिलता है जब उपेक्षा ,भय,आशंका इत्यादि कारकों से गुजर रही मां अपने बेटे रामकिशन को मेले में सबके साथ ने चलने का फैसला या अपना विचार यह कहकर (खुद के बचाव )प्रकट करती है कि, आजकल के चोरी -चकारी भरे माहौल में उसका घर पर रहना जरूरी है ।
लघुकथा ‘मुखर होती सिहरन ‘न केवल बुजुर्ग जीवन में ठहरे उनके जीवन विषयक कंपकंपाते हृदयविदारक भावों के परिशिष्ट खोलती है वरन एकाकी होते बुजुर्गों के जीवन -चक्र का खाका भी खींचती प्रतीत होती है।
-श्याम बिहारी श्यामल की लघुकथा ‘हराम का खाना ”गूढ की गाढ़ी चाशनी में नमक के डाले गए डल्ले की तरह एक ऐसी हाजिर जवाबी लघुकथा है, जो दोयम दर्जे की औरत की अस्मिता पर तंज कसने वाले पर खुद औरत की ओर से किए जाने वाले प्रहारों का विस्फोटक विवेचन करती है । लघुकथाकार श्याम बिहारी श्यामल ने अपनी लघुकथा का शीर्षक ‘ हराम का खाना ‘ जिस वैचारिक परिपक्वता के साथ रखा है, यह बड़ा गौरतलब है ।प्रस्तुत लघुकथा के शीर्षक की महत्ता लघुकथा के अंत में मुखर होती है जब एक कर्मरत स्वाभिमानी महिला अपने पर कीचड़ उछालने वाले का मुँह अपने सच्चे मगर सटीक वचनों से नोच डालती है ।जो व्यक्ति कड़ी मेहनत से अपनी रोटी की जुगाड़ में दिन-रात संलग्न बना रहता है ऐसे व्यक्ति के निमित्त ‘हराम का खाना ‘खाने जैसी बात कहना मानवता की कदर घटाने जैसी अप्रीतिकर बात है ।
श्याम बिहारी श्यामल की लघुकथा ‘हराम का खाना ‘भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का दोहन करती तथा भारत की सदियों पुरानी व्यवस्थित सामाजिक परम्परा का अनुगमन करने वाली ऐसी विश्वसनीय लघुकथा है, जो समाज में गलत जानेवाले वाले व्यक्ति को दिशा -बोध कराती मिलती है ।
प्रस्तुत लघुकथा का उनवान गांव में रहने वाले चमरू नामक व्यक्ति की नयी – नवेली पुतोहु को लेकर चरितार्थ होता है।भारतीय मान्यता में शहर या गांव में किसी के भी घर में विवाहिता बनकर नई बहू आती है, तो सम्बन्धित घर में उस बहू का ‘ मुँह दिखाई कार्यक्रम ‘रखा जाता है । ताकि घर आई नवेली बहू शहर या गाँव के हर वर्ग के वाशिंदों से परिचित हो सके।
गांव के उच्चवर्गीय रघु बाबू की पत्नी भी चमरू की पुतोहु की मुँह दिखाई की रस्म में सम्मिलित होने की इच्छा जताती है, जिसके जवाब में उसका पति रामबाबू उसे चेताता है कि
‘गरीब की बहू को कोई क्या देखने जाएगा।’ यह एक तरह का सामाजिक उलाहना -भाव है जो समाज में वर्गान्तर का अशोभनीय विचार को जन्म देता है!
लेकिन चमरू की पुतोहु के मुँह दिखाई की बात यहीं समाप्त नहीं होती है, बल्कि रघुबाबू इससे आगे भी गाँव आईं पुतोहु की मुँह दिखाई को लेकर अपनी पत्नी को सुझाते हैं कि गरीब – गुर्गों की बहू घर बैठने की नहीं होतीं।
अभी कल ही गोइंठा या उपले पाथने को या पानी भरने के काम से घर से निकलेगी ।ऐसे में पुतोहु की मुँह दिखाई सहज ही में हो जाएगी ।
फिर जैसा कि रघुबाबू ने सोचा था, ठीक वैसा ही घटित होता है । चमरू की पुतोहु गोइंठा चुनने को अगली सुबह निकलती है ।पुतोहु अपने सम्बन्ध में रघुबाबू द्वारा उनकी पत्नी से कही गई नकारात्मक बात को सुन लेती है और गांवों में भी नई पीढ़ी में पैदा हो चुकी प्रगति के स्वरों से मुखरित होकर अपने पर आए रघुबाबू के तीव्र कटाक्ष को करारा जवाब देती हुई कहती है कि, “हम लोग कोई हराम की तो खाते नहीं?”
श्याम श्यामल की यह लघुकथा तेज़ी के साथ मिट रहे सामाजिक -संदर्भों के विचारों से संश्लिष्ट होकर बदलते समाज का मुखौटा उजागर करती है ।
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1- मुखर होती सिहरन-सन्तोष सुपेकर.
पूरा परिवार मेले में जाने की तैयारी कर रहा था ।
बुजुर्ग माँ भी तैयार होकर बैठी थी । रामकिशन अपने सात और चार वर्ष के बच्चों की जेब में नाम -पता, मोबाइल नंबर लिखी कागज की पर्चियां रख रहा था, ताकि विशाल ,भीड भरे मेले में वे कहीं खो जाएं तो तुरंत पता चला सके।
बेटे की सजगता देख माँ पहले तो खुश हुई,फिर नर्वस हो उठी। उपेक्षित हालात की मारी वृद्धा को एकाएक कुछ याद आ गया, ‘पिछले साल इसी मेले में पड़ोस की पार्वती बाई गुम हो गई थी न !उसका आजतक कुछ पता नहीं चला ।’ अनपढ़ माँ की सोच अब सिहरन में बदल चुकी थी । ‘क्या उसके घरवालों ने उसके पास नाम-पता लिखी ऐसी कोई पर्ची रखी थी, क्या रामू बच्चों के साथ -साथ मेरे पास भी ऐसी कोई पर्ची रखेगा? नहीं , शायद नहीं, बिल्कुल नही! ” सोचते -सोचते माँ की सिहरन मुखर हो उठी और उससे निर्णयात्मक स्वर फूट पड़ा । ” रामू बेटा मैं मेले में नहीं जा रही हूँ।तुम लोग ही हो आओ,वैसे भी चोरी -चक्रीय के जमाने में घर को एकदम खाली नहीं छोड़ना चाहिए ।”
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2-हराम का खाना-श्याम बिहारी श्यामल
चमरू की नवोढ़ा पतोहू गोइठे की टोकरी माथे पर लिए सामनेवाली सड़क से जा रही थी। रघु बाबू पर पत्नी के साथ खड़े बतिया रहे थे। उसे देखकर उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘…..देखो, मैंने कहा था न कि इन छोटे लोगों की बहुओं को कोई क्या देखने जाए! वह तो खुद दो–चार दिनों में गोइठा चुनने, पानी भरने निकलेगी ही….!’’
यह बात चमरू की पतोहू ने सुन ली। बात उसे लग गई। बोली, ‘‘….हां, बाबूजी, हम लोग हराम का तो खाते नहीं हैं कि महावर लगाकर घर में बैठी रहूं। काम करने पर ही तो पेट भरेगा!’’ चमरू की पतोहू ने रघु बाबू को सुनाकर कहा और पूरे विश्वास के साथ आगे बढ़ गई।
रघु बाबू खिसियाते–से उसे आते देखते रह गए।
-0- डॉ.पुरुषोतम दुबे शशीपुष्प 74जे /ए स्कीम नंबर 71 इन्दौर 452009 , मोबाइल नं.9407186940