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Channel: लघुकथा
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मरहम

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अभी बीते परसों से ही जब तीन दिन की छुट्टी हुई तो वह कई दिन से लटके पड़े रसोई की मरम्मत के काम के लिए छुट्टी के पहले दिन से ही एक राजमिस्त्री और एक मज़दूर ढूँढ लाया था। खाली समय था सो बैठकर सुधार कार्य देखता रहा, उसने महसूस किया कि हर थोड़ी-थोड़ी देर पर मिस्त्री और मज़दूर दोनों बीड़ी या चाय के बहाने काम रोक देते। हालांकि तोड़-फोड़ का मलबा फेंकने में वह खुद भी मदद कर रहा था लेकिन शाम होते-होते लगने लगा कि जिस काम को वह एक-डेढ़ दिन का सोच रहा था उसमें तीन से कम नहीं लगेंगे।
दूसरे दिन एक दीवार तोड़ने का काम था सो उसने एक दिन के लिए मज़दूर की छुट्टी कर दी और खुद उसकी जगह काम करने का निश्चय किया, मज़दूर के चेहरे पर मायूसी साफ़ देखी जा सकती थी और मिस्त्री भी नाख़ुश था। दीवार तो तोड़ ली लेकिन उसने महसूस किया कि काम देखने में जितना आसान था उतना था नहीं।
आज तीसरे दिन जब दोपहर के वक़्त दोनों कामगार बीड़ी पी रहे थे और वह दोनों के लिए चाय बना रहा था तभी उसने दोनों को बात करते सुना। मिस्त्री कह रहा था
– काम तो बैंक में अफसर को करत है लेकिन है बड़ो चीस आदमी।
मज़दूर ने अपना दुखड़ा सुनाया
– हाँ भइया, तीन सौ रुपइया बचावे के लाने हमाए पेट पे लात मार दई कल, और कऊँ कामऊ ना मिलो।
– सो परदिया तोड़त- तोड़त पर तो गए हाथन में छाले….
– सोई तो कई गई के ‘जाको काम उसी को साजे, और करे तो….’
दोनों ने ठहाके लगाए, चाय पी और काम में लग गए।

शाम को काम ख़त्म हुआ और वह दोनों को जब तीन-तीन दिन का भुगतान करने लगा तो मज़दूर ने चौंक कर कहा– हम तो दोई दिन काम करे मालिक !
उसने हँसते हुए कहा– मैंने सोचा कि एक दिन को तुम भी छुट्टी की तनख्व्वाह का मज़ा लो, मुलू।

उसने देखा कि मुलू की आँखों में जो चमक थी वह किसी भी हीरे की चमक को मात दे सकती थी। शाम को उसे हथेली के छालों पर मरहम की जरूरत नहीं लगी।


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