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Channel: लघुकथा
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सोने की नसेनी

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अभी परसों रात की ही तो बात है जब बड़ी बाई समझा रही थीं
– पहले होत है लरका, फिर नाती। नाती सें लगो पन्ती और फिर पन्ती को बच्चा सन्ती। और ऐंसे जो अपनो सन्ती देख लेवे वा खों सीधो सरग मिलत…… सूधो परमात्मा को धाम
– हैं!!!
आठ साल के पिंटू ने आँखों को यथासम्भव गोल आकार देते हुए पूछा, उसका मुँह खुला का खुला रह गया
– अच्छा बड़ी बाई, जे बताओ अबे जब दिनेश भईआ की भौजाई कें लला होहे सो वो तुमाओ का लगो?
उत्सुकता पिंटू की उम्र के व्युत्क्रमानुपाती थी
– वोई तो भओ सन्ती…… तुम और दिनेशा लगे पन्ती और दिनेशा को बच्चा सन्ती। लेकिन…
झूला हो आई खाट पर करवट बदलते हुए बड़ी बाई ने उल्लास भरी आवाज़ में ज़वाब दिया था। अगर उनकी आँखों में बल्ब लगा होता तो निश्चित रूप से क्षण भर को वो अँधेरा कमरा रौशनी से भर जाना था।
– लेकिन का बाई!
चौंकते हुए पूछा था उसने
– सन्ती देखवे के बाद मरवे पे सोने की नसेनी बनवा कें चढ़ाने परत, तब कऊं जाकें मिल पात सरग
– सोने की नसेनी!
रात भर सपने में पिंटू बड़ी बाई को घर की छत पर टिकी सोने की नसेनी पर चढ़, बादलों के बीच से होकर स्वर्ग जाते देखता रहा। अगली सुबह उसकी आँख भाभी की पीड़ा भरी चीखों से खुली। नाईन काकी और अम्मा भाग-दौड़ में लगी थीं। छोटी भाभी ने उसे तैयार कर स्कूल भेज दिया और दोपहर बाद जब वो स्कूल से लौटा तो पता चला कि वो चाचा बन चुका था।
वह भागकर सबसे पहले बड़ी बाई के पास पहुँचा
– बड़ी बाई! बड़ी बाई!! सन्ती हो गओ
लेकिन वो गुमसुम बैठी रहीं लेकिन वह ज़िद करने लगा
– अब बनवाओ सोने की नसेनी
– हल्ला न करो, बैठो चुपचाप। कौनऊ सन्ती-वन्ती न भओ, मौड़ी भई
वह बड़ी बाई के भड़कने की वज़ह नहीं समझ सका।
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