लघुकथा अपने समय की संवेदना को सबसे सरल और सशक्त रूप में पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करने वाली गद्य विधा है। वह न केवल युगीन यथार्थ की ओर प्रभावी संकेत करती है;बल्कि एक सार्थक प्रतिरोध की भूमिका भी तैयार करती है। लघुकथा अपने समकाल से आँख मिलाकर बात करती है। संरचना की दृष्टि से वह बहुत छोटी होते हुए भी संदेश की दृष्टि से बहुत बड़ी होती जाती है। एक तरह से लघुकथा जीवन, समाज और समय का अर्थ विश्लेषण करती है।
एक समय था जब ‘सारिका’ जैसी लब्धप्रतिष्ठ पत्रिका ने अपने पृष्ठों पर श्रेष्ठ लघुकथाओं का संचयन कर अपनी प्रसार संख्या में ईर्ष्याजनित इजाफा कर लिया था। प्रसन्नता की बात है कि आज ‘कथादेश’ जैसी प्रतिबद्ध पत्रिका लघुकथा को विशेष महत्त्व दे रही है। ‘हंस’, ‘कथादेश’ आदि पत्रिकाओं में लघुकथा को पहले पढ़ने की जिज्ञासा निश्चय ही इस विधा के लिए एक सुखद उपलब्धि है। लघुकथाओं में जीवन की अर्थवत्ता बहुत समीप से जीवन्त होती है; इसलिए वे पाठक का मन पकड़े रहती हैं।
एक मित्र की तरह बैठी हुई सुख-दुख को बाँटती हैं ; इसलिए संवेदनाओं का अनुभूतिगत प्रवाह इनका वैशिष्ट्य है। लघुकथाओं में जनमानस की आशा-निराशा रूपायित होती है ; अतएव इसकी संरचना में संवेदनाओं का सहज प्रवाह एक ऐसे शैल्पिक आग्रह की अपेक्षा करता है जिसमें शब्द बोलते हुए हों।
बतौर पाठक मुझे जिन लघुकथाकारों की रचनाएँ सर्वाधिक प्रभावित करती रही हैं, उनमें डॉ. सतीश दुबे, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, श्यामसुन्दर अग्रवाल, सुभाष नीरव, डॉ. अशोक भाटिया, डॉ. श्यामसुन्दर दीप्ति, सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल और रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ आदि प्रमुख हैं। उपर्युक्त सभी रचनाकारों की लघुकथाओं में युगबोध समग्रता के साथ अभिव्यक्त होता है। इनमें सुकेश साहनी जी की ‘ईश्वर’ नामक लघुकथा और रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘और सुबह हो गई’ लघुकथा मेरी पसंद के संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
‘ईश्वर’ लघुकथा में सुकेश जी जिस तरह भाषा की बिम्बात्मकता और सांकेतिकता के साथ कथ्य की मर्मस्पर्शी बुनावट करते हैं, वह विरल है। उनकी संवेदना भाषिक स्तर पर इतनी तरल हो जाती है कि सीधे पाठक के अन्तर्मन में उतर जाती है। समकालीन लघुकथा में उनकी भाषा का सृजनात्मक पक्ष अपना अलग महत्त्व रेखांकित करता है। उनकी भाषा पात्रों की मनःस्थितियों का रूपान्तरण करती है, उदाहरणार्थ ‘श्मशान से मेरी अस्थियाँ चुनकर नदी में विसर्जित की जा चुकी हैं। पत्नी की आँखों के आँसू सूख गए हैं। मेरी मृत्यु से रिक्त हुए पद पर वह नौकरी कर रही है। घर में साड़ी के पल्लू को कमर में खोंसे, वह काम में जुटी रहती है। मेरे बूढ़े माँ-बाप के लिए बेटा और बच्चों के लिए बाप बनी हुई है। पूजापाठ (ईश्वर) के लिए अब उसे समय नहीं मिलता…ईश्वर?…वह उसकी आँखों से झाँक रहा है।’ यह कहना उपयुक्त होगा कि सुकेश जी छोटी-छोटी स्थितियों को अपने सूक्ष्म विश्लेषण और भाषाई प्रयोगशीलता के साथ प्रस्तुत कर उन्हें बड़ा कर देते हैं। जीवनमूल्यों का ऐसा प्रभावी संदेश कि मनोमस्तिष्क आन्दोलित हो उठता है। पूरी लघुकथा के निहितार्थों को समझें तो उनमें वर्तमान जीवनस्थितियाँ और विडम्बनाएँ घटित होती हुई प्रतीत होती हैं। लघुकथा में ईश्वर एक ऐसा रूपाकार है जो पूरी लघुकथा में युगबोध और विसंगतियों को रेखांकित करता है और साथ ही अपनी उपस्थिति के सत्य के साथ तमाम धर्माडम्बरों को ध्वस्त करता हुआ कर्म की महत्ता को उद्घाटित करता है। कथ्य, बिम्ब, भाषा और यथार्थ सभी दृष्टियों से ‘ईश्वर’ एक ऐसी लघुकथा है जो मनुष्य को उसके भीतर के देवत्व से परिचित कराती है और शिल्प की कसौटी पर भी खरी उतरती है। लघुकथा के समापन में जीवनमूल्यों का संवरण मिलता है जो तथाकथित ईश्वरवादियों द्वारा प्रचारित धर्मोपदेशों पर भारी पड़ता है। लघुकथा में एक ही रूपाकार को पूरा अर्थ-संदर्भ प्रदान किया गया है। यही कारण है कि सुकेश जी की सृजन प्रक्रिया मानवीयता की सतत खोज करती है।
अपनी पसन्द की दूसरी लघुकथा के रूप में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ सुबह हो गई’ का उल्लेख करना चाहूँगा। हिमांशु जी लघुकथा के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं। ‘और सुबह हो गई’ लघुकथा में वे नारी मन के अन्तर्द्वन्द्व को गहन संवेदना के साथ व्यक्त करते हैं। उदाहरणार्थ— डबडबाई आँखों से सीधे परेश की आँखों में देखते हुए वह भर्राए स्वर में बोली— “आज चाय मैं बनाऊँगी” लघुकथा की मुख्य पात्र शालू का यह संवाद पूरी लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में देखें ,तो उसके भीतर के संशय को उद्घाटित करता है; किन्तु वहीं लघुकथा का समापन कथानायक के अटूट विश्वास के साथ होता है। संशय का पहाड़ एक क्षण में समतल हो जाता है। आज नारी विमर्श, सह अस्तित्व आदि की बहुत-सी चर्चाएँ होती हैं ;किन्तु यदि स्त्री-पुरुष के मध्य विश्वास के बीज अंकुरित होने लगें ,तो स्वतः ही सहअस्तित्व का विचार प्राणवान हो जाएगा।
लघुकथा स्त्री-पुरुष के बीच विश्वास का ऐसा मजबूत सेतु बनाती है। परेश जैसे युवक लाल सिंह जैसे धूर्त्त चरित्रों के बीच फँसी शालू जैसी विवश स्त्रियों को उन तमाम अन्तर्द्वन्द्वों से मुक्ति प्रदान करते हैं जो उन्हें नकारात्मक स्थितियों की ओर ले जाते हैं।
विचारणीय प्रश्न है कि जो नारी शून्य को विराट का रूप देती रही है उसकी वर्तमान स्थितियाँ कितनी त्रासद हैं। आज कहीं भी वह स्वयं को सुरक्षित अनुभव नहीं करती। हर जगह लाल सिंह जैसी लोलुपदृष्टि उसे अपने चारों ओर पसरी दिखायी देती है। हम कैसे एक स्वस्थ समाज की अवधारणा को सार्थक कर सकते हैं। आज स्त्री व पुरुष के बीच एक सापेक्ष सामंजस्य की आवश्यकता है, जो स्त्री व पुरुष के बीच हर रिश्ते के लिए वांछनीय है। स्वस्थ व विकारहीन समाज का निर्माण तभी सम्भव है। हर रिश्ते के बीच से संशय का अंधकार छाँटना होगा।
‘और सुबह हो गई’ लघुकथा संशय के इसी अंधकार को तिरोहित करती है। मनुष्य के भीतर चेतन या अचेतन में छिपे हुए विकार उसे अन्तहीन पराभव की ओर ले जाते हैं। लघुकथा का लाल सिंह इसी पराभव का प्रतीक है। वहीं मनुष्य होने की अनुभूतियाँ उसे ऊँचाइयों पर ले जाती हैं जिसका प्रतीक परेश है। परेश हमें स्थितियों से जूझने का आत्मबल देता है। परिवेश की विकृतियों के बीच लघुकथा नायक परेश एक सबल संस्कृति के रूप में व्यंजित होता है।
सृजन के स्तर पर लघुकथा नारी शोषण व स्त्री देह उत्पीड़न के विरुद्ध एक सकारात्मक सोच का पथ प्रशस्त करती है। परेश का चरित्र एक गतिशील बिम्ब की तरह उभरता है जो ढेर से बिखरे हुए मूल्यों को “मैं तुमसे ही शादी करूँगा, सिर्फ तुम से और किसी से नहीं” कहकर उन्हें समेटने का सुखद प्रयास करता है। अतएव दोनों लघुकथाएँ अपने उत्कर्ष में कथ्य और शिल्प की दृष्टि से नये मानक स्थापित करती हैं।
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2-ईश्वर
सुकेश साहनी
पेट में जैसे कोई आरी चला रहा हैं… दर्द से बिलबिला रहा हूं….। पत्नी के ठंडे, कांपते हाथ सिर को सहला रहे हैं। उसकी आंखों से टपकते आंसुओं की गरमाहट अपने गालों पर महसूस करता हूं। उसने दो दिन का निर्जल उपवास रखा है। मांग रही है कैंसरग्रस्त पति का जीवन ईश्वर से। …ईश्वर?
….आंखों पर जोर डालकर देखता हूं, धुंध के उस पार वह कहीं दिखाई नहीं देता…।
घर में जागरण है। फिल्मी गीतों की तर्ज पर भजनों का धूम–धड़ाका है। हाल पूछने वालों ने बेहाल कर रखा है। थोड़ी–थोड़ी देर बाद कोई न कोई आकर तसल्ली दे रहा है। ‘‘सब ठीक हो जाएगा, ईश्वर का नाम लो।’’….ईश्वर?….फिल्मी धुनों पर आंखों के आगे थिरकते हीरो–हीरोइनों के बीच वह कहीं दिखाई नहीं देता….
नीम बेहोशी के पार से घंटियों की हल्की आवाज सुनाई देती है। ऊपरी बलाओं से मुझे मुक्ति दिलाने के कोई सिद्ध पुरुष आया हुआ है…। नशे की झील में डूबते हुए पत्नी की प्रार्थना को जैसे पूरे शरीर से सुन रहा हूं। ‘‘इनकी रक्षा करो, ईश्वर!’’ ….ईश्वर?….मंत्रोच्चारण एवं झाड़–फूंक से उठते हुए धुँए के बीच वह कहीं दिखाई नहीं देता…
श्मशान से मेरी अस्थियाँ चुनकर नदी में विर्जित की जा चुकी हैं। पत्नी की आँखों के आँसू सूख गए हैं। मेरी मृत्यु से रिक्त हुए पर पर वह नौकरी कर रही है। घर में साड़ी के पल्लू को कमर में खोंसे, वह काम में जुटी रहती है। मेरे बूढ़े मां–बाप के लिए बेटा और बच्चों के लिए बाप भी बनी हुई है। पूजा पाठ (ईश्वर) के लिए अब उस समय नहीं मिलता। ….ईश्वर?…वह उसकी आंखों से झांक रहा है।
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2-सुबह हो गई- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
खाना खाने के बाद शालू परेश के कमरे में लालसिंह का बिस्तर लगाने लगी। न चाहकर भी उससे हँस–हँसकर बोलना पड़ रहा है। बड़ी बहन लतिका के ढलते हुए शरीर को देखकर वह भीतर तक दहल जाती है। पाँच साल में कितनी बेडोल हो गई है। शादी क्यों नहीं कर लेती दीदी? लालसिंह जैसी शादीशुदा जोंक से तो जान छूट जाती। लगता है इसके पास दीदी के कुछ आपत्तिजनक फोटो भी हैं। इसकी चुहलबाजी पर दीदी हमेशा चुप्पी साथ लेती हैं। बेशर्म होकर कुछ भी बक देता है।
दूसरे कमरे में बिस्तर लगाते देख लालसिंह ने टोका–‘‘तुम्हारा कमरा कौन बुरा है? उसी में बिस्तरा लगा दो। मुझे लाइट जलाकर सोने की आदत है। परेश बाबू को लाइट जलती रहने से परेशानी होगी।’’
शालू सहम गई। पता नहीं परेश उसके बारे में क्या राय बना ले। छह महीने से उसके क्वार्टर के एक कमरे में रह रही है। उसकी अच्छाई से वह आतंकित–सी रहती है। दफ्तर में उससे कभी बात ही नहीं होती।
‘‘मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।’’ परेश ने जैसे लालसिंह की चालाकी ताड़ ली थी।
‘‘शालू के ही कमरे में ठीक रहेगा।’’ लालसिंह ने ढीठ होकर कहा।
‘‘ठीक है।’’ कहकर परेश ने दोनों की तरफ विवशता से देखा।
लालसिंह शालू के कमरे में चला गया। कुछ दे ठिठककर शालू भी भारी कदमों से अपने कमरे में आ गई।
वह एक पल को भी नहीं सो पाई। उसका मन ग्लानि से भर गया। परेश के जगे रहने की आहट ने उसको और भी परेशान कर दिया। मुँह बाए सोता हुआ लालसिंह उसे राक्षस जैसा लग रहा था। वह रात–भर अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाती रही।
सुबह हो गई। परेश ने चाय बनाने के लिए रोज़ की तरह रसोई का दरवाज़ा खोला। शालू हड़बड़ाकर उठी और सिर झुकाए उसके पास जाकर खड़ी हो गई।
डबडबाई आँखों से सीधे परेश की आँखों में देखते हुए वह भर्राए स्वर में बोली–‘‘आज चाय मैं बनाऊँगी।’’
परेश चुप रहा।
‘‘आप मुझसे नाराज़ हैं?’’
‘‘नहीं शालू, मैं नाराज़ नहीं हूँ। मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ।’’ परेश के स्वर में दृढ़ता थी।
शालू डर–सी गई। यह स्वर उसने पहली बार सुना था। परेश ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया।
‘‘कहिए!’’
‘‘मैं तुमसे शादी करूँगा, सिर्फ़ तुमसे और किसी से नहीं।’’ वह और भी दृढ़ता से बोला।
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रमेश गौतम
रंगभूमि 78-बी, संजयनगर, बाईपास, बरेली(उ.प्र.)पिन-243005