दस्तावेज
‘भीतर का सच’ लघुकथा का पाठ राजेन्द्र मेाहन त्रिवेदी ‘बन्धु’ वर्मा द्वारा बरेली गोष्ठी 89 में किया गया था। पढ़ी गई लघुकथाओं पर उपस्थित लघुकथा लेखकों द्वारा तत्काल समीक्षा की गई थी। पूरे कार्यक्रम की रिकार्डिग कर उसे ‘आयोजन’ (पुस्तक)के रूप में प्रकाशित किया गया था।लगभग 28 वर्ष बाद लघुकथा और उसपर विद्वान साथियों के विचार अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं-
भीतर का सच
राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’
झुग्गी झोपड़ी हटाने हेतु सरकारी आदेश की फाइल मेज पर रखते हुए सचिव ने अनुरोध करते हुए कहा-‘‘सर! झुग्गी झोपड़ी में रहने वालों को नोटिस भेज दूँ।’’
रामनाथ ने अप्रत्याशित विजय को खुशी में तेज स्वर में हँसते हुए कहा-‘‘अभी नहीं….कुछ समय गुजर जाने दो।’’
अचानक गम्भीर होते हुए पुनः कहना शुरू किया, ‘मेेरे विरोधियों के मुँह में कालिख लग गई होगी, वहाँ पर एक आलीशान होटल, स्वीमिंग टैंक, पार्क बनवाऊँगा….।’’ अब उसके ओठों पर कुटिल मुस्कान तैर रही थी।
उसे लगा कि उसका दिल बैठता जा रहा है और साँस फूलती जा रही है, वह तुरन्त एक गिलास पानी एक ही साँस में सुड़क गया लेकिन उससके ओंठ सूखते जा रहे थे।
उसने घबराहट में अपने आपसे कहा, ‘मुझे क्या होता जा रहा है?’ वह सोफे पर बैठ गया, उसकी नजर आदमकद शीशे पर पड़ी जिसमें उसकी ही आकृति उसे घृणित दृष्टि से देख रही थी, वह नफरत भरे स्वर में बोली ‘‘तू अहंकार का शिकार हो गया है। इन्हीं झोपड़ियों में तेरा अतीत छुपा है, इन गरीबों की आह से तेरा अस्तित्व नष्ट हो जाएगा….।’’
‘मैं क्या करूँ….मैं…..क्या करूँ?’ उसने अपने आपसे कहा। कुछ ही क्षणों में पुनः आवाज उसके अन्तर्मन में उभरी, रामनाथ! तू इन गरीबों की आह मत ले….इनको उजाड़ने से पूर्व इनके रहने की कहीं व्यवस्था कर दे, तभी तेरा कल्याण सम्भव है।’ वह बेचैनी से आकृति की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘मैंने गरीबों के साथ कोई अत्याचार नहीं किया, अपनी ही जमीन उनसे खाली कराना कोई जुर्म है। ‘नहीं…..। तुमने हेरा फेरी करके इसे सस्ते दामों पर सरकार से खरीद लिया है, जब कि तुम्हें मालूम था कि वहाँ गरीब लोग काफी समय से रहते हैं। अचानक चारों तरफ एक शोर उभरने लगा तुम खूनी हो…..खूनी हो…..। उसने दोनों हाथों से अपने कान बन्द कर लिए। घबराकर वह सोफे पर लेट गया……..मुझे क्या होता जा रहा है? उसे लगा कोई कह रहा है-‘रामनाथ……तुम चैन से नहीं रह सकोगे…….इन गरीबों की आहों से तुम्हारा परिवार फलीभूत नहीं होगा। इसलिए झोपड़ी में रहने वाले गरीबों को कहीं अन्यत्र व्यवस्था कर दो।’’
‘‘ठीक है……ठीक है….शहर के बाहर कहीं व्यवस्था अवश्य कर दूँगा।’’ धीरे-धीरे उसे अनुभव होने लगा कि उसके सीने पर रखा पहाड़ हट गया हो…….उसने राहत की साँस ली…….।