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पुलिसिए

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दस्तावेज

‘पुलिसिए’ लघुकथा का पाठ विनोद कापड़ी द्वारा बरेली गोष्ठी 89 में किया गया था। पढ़ी गई लघुकथाओं पर उपस्थित लघुकथा लेखकों द्वारा तत्काल समीक्षा की गई थी। पूरे कार्यक्रम की रिकार्डिग कर उसे ‘आयोजन’ (पुस्तक)के रूप में प्रकाशित किया गया था।लगभग 28 वर्ष बाद लघुकथा और उसपर विद्वान साथियों के विचार अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं-

पुलिसिए

विनोद कापड़ी

‘‘साब…., आज मैं आपको नहीं छोड़ पाऊँगा। मुझे ऑटो लेकर अभी घर जाना होगा, मेरे बच्चे का एक्सीडेन्ट हो गया है। साब….जाने दो….। एक ही बच्चा है मेरा….।’’ मेहर कब से गिड़गिड़ा रहा था।

‘‘अबे चुप्प। बहाना बनाता है।…..मुझे अगले चौराहे तक छोड़ देने से तेरा बच्चा मर जाएगा क्या?’’ वह पुलिस वाला अपने अहं के घोड़ों से उसकी गिड़गिड़ाहट को रौंदते हुए बोला। मेहर के पास अब कोई चारा न था। अपने मासूम बेटे का चेहरा यादकर उसके आँसू बहने लगे। वह विवशता से बोला ‘‘अच्छा…साब! मैं आपको छोड़े देता हूँ….पर दो मिनट रुकना। मैं अपने साथी को कह आऊँ ,जो अस्पताल की ओर जा रहा है।’’

उसके जाने के बाद उस वर्दीधारी ने अपनी वर्दी की तरफ देखा। नजर स्टेयरिंग पर पड़ी, जहाँ टेम्पो चालक के आँसू अभी तक चमक रहे थे। वह उठा, जेब में हाथ डाला। चुपचाप ऑटो से बाहर निकल आया। मेहर लौटा ,तो हक्का-बक्का रह गया….जिस जगह वह पुलिस वाला बैठा था, वहाँ बीस का नोट रखा हुआ था।

विमर्श

डॉ भगवानशरण भारद्वाज

विनोद कापड़ी की लघुकथा ‘पुलिसिए’ में पुलिस की वर्दी में छिपे दर्दमन्द दिल की झलक मिलती है।

डॉ.सतीशराज पुष्करणा

विनोद कापड़ी की लघुकथा को यदि एक नए हस्ताक्षर की रचना मानकर देखा, पढ़ा जाए तो किसी प्रकार की टीका -टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है, अन्यथा यह एक अस्वाभाविक कथानक वाली एक कमजोर लघुकथा है। कारण इस लघुकथा के आरम्भ में पुलिसवाले का जो चरित्र रखा गया है वह इस लघुकथा के अन्त में आते-आते मानवीय संवेदना से एकाएक इस कदर भर जाता है कि वह टैम्पू वाले के लिए टैम्पू में बीस रुपयै का नोट रखकर चला जाता है। यह किसी यात्री विशेष के साथ घटी सच्ची घटना तो हो सकती है ,मगर यथार्थ के धरातल पर कहीं नहीं टिकती। इसका शीर्षक ‘पुलिसिए’ भी सटीक नहीं है।

डॉ. स्वर्ण किरण

विनोद कापड़ी की लघुकथा ‘पुलिसिए’ जालिम के रूप में कुख्यात पुलिस के हृदय परिवर्तन की कथा है ,जो कुछ लोगों को अस्वाभाविक मालूम पड़ सकती है।

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

पुलिसवाले भी हमारे समाज के हैं। जब समाज में अच्छे लोग हैं, तो पुलिस में भी हो सकते हैं, अतः पुलिस के सिपाही की उदारता असहज नहीं है।

रामयतन यादव

‘पुलिसिए’ नवोदित लघुकथा लेखक विनोद कापड़ी द्वारा रचित एक साधारण स्तर की लघुकथा है, किन्तु यह लघुकथा कथाकार के उज्ज्वल रचनात्मक भविष्य की प्रति सम्भावना जगाती है। भाई कापड़ी से भविष्य में और भी बेहतर रचनाओं की अपेक्षा की जा सकती है।

जगदीश कश्यप

‘पुलिसिए’ में विनोद कापड़ी की पकड़ प्रशंसनीय है।

डॉ. शंकर पुणतांबेकर

विनोद कापड़ी की ‘पुलिसिए’। कथाकार की आरम्भिक रचना की दृष्टि से इसे सराहा जा सकता है। पुलिस में भी मानवीयता हो सकती है, इसे कई लोगों ने नहीं माना। पर पुलिस क्या….डाकू भी मानवीय होते हैं।

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