करीब बाइस साल पहल की बात है, वीरगंज से काठमांडू की पैदल यात्रा के दौरान किसी गाँव से गुज़रते हुए एक भारतीय युवक को नेपाली दूल्हे की वेशभूषा में देखा था। नेपाली दुलहन की आँखें रोते-रोते लाल हो रही थीं, वह बार-बार माँ के गले लगकर रो पड़ती थी। बिल्कुल अपने यहाँ के वधू की विदाई के समय का-सा दृश्य था।
‘‘जो कुछ मेरी धन-सम्पत्ति है, यही है, तुम्हें सौंप रही हूँ।” ’ लड़के का पिता नेपाली भाषा में बार-बार यही शब्द दोहरा रहा था। उसे और कुछ सूझ ही नहीं रहा था।
‘‘चिन्ता न करें, अब आपकी लड़की मेरी धर्मपत्नी है।” युवक टूटी-फूटी नेपाली में कह रहा था। उसके चेहरे पर इस प्रकार के भाव थे मानो लड़की के माँ-बाप का दुख उससे देखा न जा रहा हो।
अपने देश से दूर इस रूप में किसी देशवासी के मिलने पर जिज्ञासावश मैंने उस से इस शादी के बारे में पूछा था। वह मेरी ओर देखकर बेशर्मी से हँसने लगा था। शायद उसने मुझे भी अपने जैसा समझ लिया था। नकली दूल्हा बने उस युवक की हँसी का राज बहुत बाद में मेरी समझ में आया था।
वह फिर अपने चेहरे पर दुख और पीड़ा के भाव लाकर लड़की के माँ-बाप के पास पहुँच गया था, ‘‘दुखी मत होइए, आपकी लड़की मुझे प्राणों से प्यारी रहेगी।” ’
मैं उसका नीच अभिनय देखकर दंग रह गया था।
इस एक घटना से अनुमान लगाया जा सकता है कि वेश्यावृत्ति के इस विश्वव्यापी तंत्र से जुड़े लोग किस तरह बिना पूँजी का व्यापार करते हैं, लड़कियों की मजबूरी का फायदा उठाते हैं। नकली शादी, फिल्मों का प्रलोभन, प्रेम का झांसा या नौकरी का वादा करके इन्हें कोठों और होटलों में बिठा देते हैं। देह व्यापार से जुड़े तमाम अच्छे-बुरे पहलुओं की पड़ताल करती कुछ लघुकथाएँ प्रस्तुत हैं।
भारतीय समाज के लिए अभिशाप बन चुका दहेज दानव अपना शिकंजा कसता ही जा रहा है। दहेज न दे सकने के कारण न जाने कितनी युवतियों का विवाह नहंी हो पाता। ऐसे में यदि युवक बिना दहेज लिए शादी करने के लिए सामने आता है तो माँ-बाप को जैसे भगवान मिल जाता है। बाद में पता चलता है कि लड़की की प्रत्येक रात का सौदा तो पहले ही पक्का हो गया था। (धंधा: अशोक लव)
देह व्यापार के लिए विवश नसीरन की सादगी और भोलेपन पर परसादी का दिल आ जाता है। वह कहता है, ‘‘नसीरन, इस चकले की जिंदगी से तो तू दुखी होगी, बोल तू मेरी बीवी बनेगी?’’ नसीरन सिसक उठती है, ‘‘मुझे बीवी बनाकर तू क्या करेगा? मैं पहले ही इस चकले के मालिक की बीवी हूँ…वह भी मुझे बीवी बनाने की कहकर ही लाया था।” ’ (बीवी का दर्द: बालासुंदरम् गिरि)
‘‘क्या तुम शादीशुदा हो?’’
‘‘हाँ!’’
‘‘फिर यह धंधा क्यों करती हो?’’
‘‘क्योंकि जब मेरी शादी हुई थी तो मैं दहेज नहीं लाई थी।” ’ (स्याह हाशिए: ब्रजेश्वर मदान)
आर्थिक संकटसे जूझते परिवार के बेरोज़गार युवक को जब लाख कोशिशों के बावजूद काम नहीं मिलता तो घर की लड़की को कमाने के लिए मजबूर होना पडता है-आधी रात को वह दबे पाँव घर में घुसता है ताकि माँ के रोज-रोज के सवाल ‘‘क्यों बेटा, कुछ मिला रे?’’ का सामना न करना पड़े। वह बिछौने की तरफ दो डग ही बढ़ता है कि माँ कहती है, उधर खीर-पूड़ी रखी है, तू भी पेट भर खा ले।” ’ वह चौंक जाता है, खीर-पूड़ी कहाँ से आई? घूमकर देखता है, आज माँ अकेली सोई हुई है। उसके कुछ बोलन से पहले ही माँ कहती है, ‘‘तेरी बहन आज से कमाने लगी है रे।” ’ (रोजी रोटी: विक्रम सोनी) इस राह पर निकल पडी स्त्री की विवशता को शराफत अली खान ने सशक्त तरीके से व्यक्त किया है-बेरोजगाार युवक की भूख आक्रोश में बदल जाती है। वह कुछ करने के इरादे से एक अंधेरी वीरान-सी पुलिया पर बैठ जाता है। आधी रात के बाद वहाँ से गुजरती स्त्री को दबोच लेता है, ‘‘अपनी इज्जत बचाना चाहती हो तो रुपए मेरे हवाले कर दो।” ’ स्त्री तड़प उठती है, ‘‘मुझे इज्जत की परवाह नहीं, रुपए मैं नहीं दे सकती, क्योंकि मैं इज्जत बेचकर ही ये रुपए लाई हूँ।” ’ इस श्रेणी में अन्य लघुकथाएँ हैं–नौकरी की तलाश: लक्ष्मण बिहारी माथुर, कनस्तर: संजीदा, आटा और जिस्म: सतीश राठी, बजट: हुमायूँ निसार फैजाबादी।
किसी पुरुष को किसी वेश्या के पास जाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। वह अपनी इच्छा से वेश्या के पास जाता है (घर लौटते कदम: डॉ. सतीशराज पुष्करणा) यदि पुरुष चाहे तो इस व्यवसाय को सीमित करने में काफी सहयोग दे सकता है परन्तु विभिन्न सर्वेक्षण बताते हैं कि समाज के तथाकथित सफेदपोश ही देह -व्यापार के निवारण में सबसे बड़े बाधक होते हैं, यही नहीं गरीब घरों की मासूम युवतियों को आर्थिक मदद के बहाने वेश्यावृत्ति की राह पर डाल देत हैं। (अनुकंपा: ज्योति रामाणी, निशाना: निर्मला सिंह, कटे हुए मोहरे: रतीलाल शाहीन, इंसाफ: आनन्द बिल्थरे, संबंध: श्याम बेबस)
देह-व्यापार के संदर्भ में पति-पत्नी संबंधों के बदलते रूप की सशक्त अभिव्यक्ति पति (मोहन राजेश) में हुई है-शैलमा कुछ देर तक एकाग्र-सी एजिला को नए ग्राहक के केबिन की ओर जाते देखती रहती है। फिर दूसरी लड़की की ओर मुखातिब होकर कहती है, ‘‘पम्मी! क्या हो गया है आजकल एलिजा को, बहुत जल्दी थक जाती है। अभी तो यह तीसरा….इधर इसकी डिमाण्ड बढ़ रही है और अभी से यह हाल।” ’
‘‘बात यह नहीं शैलमा, एलिजा थकी नहीं, टूटती जा रही है। अभी-अभी जो गया था न इससे पहले, जानती हो, वह कौन था?’’ पम्मी फुसफुसाकर राज की बात कहती है, ‘‘एलिजा का पति! जब यह उसके साथ रहती थी तब इधर-उधर की छोकरियों के चक्कर में इस मारपीट कर घर से निकाल दिया। अब दस-बीस का जुगाड़ बैठाकर हर दूसरे-तीसरे दिन यहाँ आ जाता है। कुत्ता!’’
पुरुष जब स्वार्थ सिद्धि हेतु स्त्री का इस्तेमाल करता है तो उसे पता ही नहीं होता कि उसने स्त्री को देह-व्यापार के प्रवेश द्वार के सामने ला खड़ा किया है-
‘‘तुम थोड़ा रिक्वेस्ट करो न सेठ से लड़कियों की बात लोग मान लेते हैं।” ’
‘‘नहीं।” ’
‘‘हाँ…यार! जरा समझो, मजबूरी।” ’
‘‘अच्छा ठीक है।” ’
‘‘चलें?’’
‘‘चलो!’’ (मजबूरी: राजेश झरपुरे)
पुरुष कभी-कभी अपने कैरियर के लिए पत्नी का इस्तेमाल करता है-शेखर बाबू की पत्नी रात को कुछ ज्यादा ही देर से लौटती है। उसके लड़खड़ाते पाँव देखकर वे तिलमिला जाते हैं, ‘‘तो अब तुम यहाँ तक पहुँच गई हो?’’ पत्नी उनकी तिलमिलाहट को वक्र दृष्टि से देखती है, ‘‘तुमने अपने कैरियर में ऊपर चढ़ने के लिए मुझे सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया और अब, जब मैं अपने कैरियर के लिए ,खुद अपने को इस्तेमाल कर रही हूँ तो…।” ’ (सीढ़ीः युगल)
कई बार पत्नी पति के शक के कारण प्रताड़ित होकर वेश्या बनने पर मजबूर हो जाती है (लौटते हुए: रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’)इस तरह के शक्की पति के प्रति सोबती का आक्रोश फूट पड़ता है, ‘‘चुप भी कर हिजड़े…रात भर बीड़ी के पत्ते मोड़े हैं और तू तन बेचना होता तो मुझे खसम ही क्यों करती?’’
इस श्रेणी में अन्य लघुकथाएँ हैं-रोजीः महेश दर्पण, शिकंजा: लक्ष्मी नारायण वशिष्ठ, समझौता: यशवंत कोठारी, उसके पापा: जैब अख्तर, रेगिस्तान: सुकेश साहनी, प्रमोशन: रमेश गौतम आदि।
वेश्याओं के प्रति संवेदनापूर्ण व्यवहार, उनके सामाजिक स्वीकार की कोशिश, उनके प्रति एक मानवीय दृष्टि, सम्मानपूर्ण नागरिक अधिकार और उनके लिए रोजी-रोटी का विकल्प तैयार करना आदि किसी भी सरकार की जिम्मेदारी होते हैं जिन्हें पूरा करने के लिए पुलिस, प्रशासन और नेताओं का सहयोग अपेक्षित होता है। वेश्याओं का सारी उमर का तजुरबा (योगेन्द्र कुमार) यही कहता है कि पुलिस द्वारा उनका शोषण ही किया जाता रहा है-
‘‘अरी चाची, काय की जान छूटी…इहाँ तो रोजाना मुश्किल से आठ-दस गिराहक निबटावें हैं हम.वहाँ तो दिन-रात मुश्टंडों ने छोड़ा ही नहीं मेरी तो देई अभी तक सीधी नहीं हुई है….’’
‘‘क्या कोई नया दरोगा आया है थाने में?’’
‘‘क्या बताऊँ चाची…जी…आवे था मरा खुद को दरोगा ही बताता हुआ आवै था…’’
‘‘अरी क्या बताऊँ.. मेरी तो सारी उमर का तजुरबा है, जब-जब कोई नया दरोगा आवै है ना….तब तब हम गरीबों पर मार पड़े है…।” ’
उतार लो (पारस दासोत) हमारे नेताओं की कथनी और करनी के अंतर को रेखांकित करती है-रेस्ट हाउस में नेता जी लड़की को बुलवाते हैं शरीर की भूख मिटाने के बाद वे कहते हैं-
‘‘साड़ी तो पहन लो।” ’
‘‘नहीं! यह साड़ी मेरी नहीं….तुम्हारी है।” ’ कुर्सी पर पड़ी साड़ी की तरफ देखते हुए वह बोली।
‘‘मेरी!’’
‘‘हाँ ,तुम्हारी! अभी कुछ दिन पहले ही तो तुमने चुनाव के समय बाँटी थी।” ’
अक्सर बेसहारा लड़कियों को नारी निकतन भेज दिया जाता है जो खुद भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं (शुरूआत: मधुकान्त) ।
इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएँ हैं-सभी का सच: बीर राजा, चरित्र समानता: सुरेन्द्र सुकुमार, रपट, ट्रांसफर: यशवंत कोठारी, दुश्मन: पवन शर्मा।
शहर की कुछ बिंदास लड़कियाँ महज शौक के लिए किसी पुरुष से शारीरिक संबंध स्थापित कर लेती हैं। पुरुष संबंध के बदले उसे कुछ देता है। लड़की को एहसास होता है कि उसके पास ऐसी चीज है जिसे भुनाया जा सकता है। अपनी देह के बल पर खूब कमाई करने के सपने एक दिन चकनाचूर हो जाते हैं (किस्त दर किस्त: वीरेन्द्र जैन) कुछ लड़कियाँ स्कूल में ही लड़कों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित कर लेती हैं, फिर उसे आनन्द और विलास का साधन बना लेती हैं और इसे छोड़ना नहीं चाहतीं। संभ्रांत परिवारों से होने के कारण इन पर किसी को शक भी नहीं होता। ऐसी ही लड़की जब चार-पाँच लोगों से लॉज में मिलने का समय तय करती है तो स्कूल के ‘सर’ हैरान रह जाते हैं (नुकसान: अशोक गुजराती) कई जातियों में देह-व्यापार का धंधा पीढ़ियों से चला आ रहा होता है। ऐसे परिवारों में यदि कोई लड़की धंधे से भागकर किसी स्कूल मास्टर के संग शादी कर घर बसा लेेती है तो ‘आवारा लड़की’ (विष्णु स्वरूप ‘पंकज’) कहलाती है।
देह व्यापार के विश्वव्यापी तंत्र में वेश्याओं का वही स्थान है जो कारखानों में किसी मज़दूर का। वह उस पूरे तंत्र का मुख्य भाग होते हुए भी भरपूर शोषण का शिकार होती है। मध्य प्रदेश में पत्थर तोड़ने वाली कई औरतों को आर्थिक कारणों से देह व्यापार अपनाना पड़ता है। ऐसी ही किसी रेजा (मज़दूरिन) को नवाब हॉस्टल में ले आता है। यहाँ भी उसे ठगा जाता है, कई लड़के अपनी शारीरिक भूख शांत करते हैं। हमारे समाज में शेखर जैसे ‘नपुंसकों’ की कमी नहीं है जो औरत के इस शोषण के खिलाफ इसलिए आवाज नहीं उठाते कि कहीं उन्हें नामर्द न समझ लिया जाए (नपुंसक: सुकेश साहनी)
कौशेलेन्द्र सिंह घुरैया की लघुकथा उसकी मर्जी पढ़ते हुए मंटो की कहानी ‘सौ कैण्डल पावर का बल्ब’ की याद आती है। दलाल लोग अपने चंगुल में फंसी औरत को तब तक नहीं छोड़ते जब तक उसके शरीर में जान रहती है-खूब सारा धन लेकर वह वेश्या के पास जाता है। एकान्त होते ही उससे कहता है, ‘‘आज मैं सोचकर आया हूँ कि तुम वही करो जो तुम चाहती हो।” ’ वह अविश्वास से उसकी ओर देखती है, उसे अपनी बात पर अडिग देख वह पलंग पर करवट लेकर बेसुध सो जाती है। लघुकथा की अंतिम पंक्ति वेश्या पर हो रहे अत्याचार, जिसमें उसे सोना भी नसीब नहीं होता, को बहुत मार्मिक ढंग से पेश करती है। माँ (रत्नेश कुमार) में वेश्या ग्राहक से रुपए न लेकर ‘अमूल स्प्रे’ का डिब्बा माँगती है। यहाँ लेखक संकेत करता है कि स्त्री को बच्चे के पालन-पोषण के लिए देह-व्यापार के धंधे में उतरना पड़ा।
वेश्या को एक ऐसा सेफ्टी वाल्व भी कहा जाता है जो समाज को दूषित होने से रोके रहता है। कुछ का मानना है कि समाज को स्वच्छ रखने के लिए वेश्याओं की उतनी ही ज़रूरत है जितनी कि किसी शहर में गटर की। देश-विदेश के साहित्यकारों ने वेश्याओं को अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। समाज के लिए गटर का रोल प्ले करने वाली इन वेश्याओं के चरित्र,संस्कार को उजागर करती अनेक लघुकथाएँ लिखी गई हैं-
उसने अपने अधो-वस्त्र निकाल दिए तथा ग्राहक से मुस्कराकर बोली, ‘‘एक मिनट ठहरो।” ’ और सामने की दीवार पर उपदेशी मुद्रा में विराजमान भगवान के चेहरे पर कपड़ा डाल दिया। (संस्कार: सतीश दूबे)
एक शर्मिला-सा लोंडा झिझकते हुए कोठे वाली के करीब आकर बोला, ‘‘क्या आप स्टूडेन्ट कन्सेशन देती हैं?’’
कोठे वाली उस स्टूडेन्ट को बड़ी ममता भरी आँखों से देखकर मुस्कराने लगी और उसके मुँह से बेइख्तियार निकल गया, ‘‘हाँ बेटे, क्यों नहीं?’’
(ताल: जोगेन्द्र पाल)
वह हर दिन और हर रात खुशी से बिका करती थी, जिंदगी जीने के लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं था। एक दिन उसकी कोठी पर किसी का खून हो गया, उसकी आँखों के सामने। कातिलों ने उससे कहा कि वे जैसा कहेंगे वैसा ही बयान देना होगा। वेश्या ने कहा कि जैसा देखा है वैसा कहेगी। कातिलों ने बहुत प्रलोभन दिए, पर वह नहीं मानी। कातिल झल्ला गए, ‘‘स्साली…एक रंडी होकर इस तरह बातें करती है। पाँच रुपए में बिकने वाली तू करेक्टर दिखाती है। तेरा भी कोई करेक्टर है!’’
‘‘जनाब, यही तो मेरा करेक्टर है, वो तो मेरा प्रोफेशन है।” ’
(करेक्टर: पृथ्वीनाथ पाण्डेय)
धोखे से कोठे पर पहुँच गए पाक साफ लड़के को मिरासी भद्दी गालियाँ देते हुए ठेलने लगते हैं, ‘‘अरे ऐसा पाक साफ था तो यहाँ दूध पीने आया था क्या?’’ उसकी दुर्दशा देखकर वेश्या कहती है, ‘‘छोड़ दो हरामियों,मारोगे इसे?’’ लड़की उससे कहती है, ‘‘आप इस जगह क्यों आए, भाईसाहब?’’ वह अपराधी-सा चुप खड़ा रहता है। वह जगन को कहती है, ‘‘इनके लिए यहीं कुर्सी डाल दो और नीचे से एक ठंडा ले आओ?’’(बुरी औरत: बलवीर त्यागी)
‘‘आज चला जा बाबू! मैं तेरे हाथ जोड़ती हूँ,….मजबूर मत कर, आज मैंने अपने लड़के के लिए होई माँ का व्रत रखा है….इसलिए पाक-साफ रहूँगी।” ’
(जवाब: गुड्डू गोविन्द)
अभी दोनों के बीच व्यापारिक समझौता चल ही रहा होता है कि एक कर्मठ पुलिस कांस्टेबल आ धमकता है। लड़का वेश्या को अपनी बहन बताकर कांस्टेबल से जान छुड़ा लेता है, फिर वेश्या से पूछता है, ‘‘अब बोल, कितने लेगी?’’ वह युवक की ओर घृणा से देखती है और जमीन पर थूककर कहती है, ‘‘निर्लज्ज, पानी में डूब मर कहीं जाकर….अपनी बहन के साथ कुकर्म करेगा….’’ और वह आगे बढ़ जाती है। (रिश्ते: कृष्ण शंकर भटनागर)
-उस इलाके की तवायफ टेªन में किसी बेटिकट युवक के लिए फाइन और किराया भर देती है। (थप्पड़: मार्टिन जॉन अजनबी)
‘‘ये रामायण कोठे पे कहाँ से आ गई?’’
‘‘क्यूँ…कहाँ से क्या मतलब! खरीद के लाई हूँ, बाबू!….हरेक मंगल कू पढ़ती हूँ….तुम नई पढ़ते रामायन?’’
‘‘मैं….मैं तो पढ़ताई हूँ खैर…।” ’
‘‘तो फिर….रमायन देख के ऐसे क्यूँ चौंके बाबू? जे धरम-करम की बात क्या तुम्हारेई नाम लिखी है ऊपर वाले ने!’’ (कोठा संवाद: महेश दर्पण)
वेश्याओं के ‘सामाजिक स्वीकार’ के लिए ईमानदार कोशिश होनी चाहिए। इसके लिए पुरुष को ही प्रयास करने होंगे क्योंकि वेश्या के पास जाना न जाना उसकी अपनी मर्जी पर निर्भर करता है। बेबस, लाचार युवतियों को इस धंधे में अधिकतर पुरुष ही डालते हैं। वेश्या भी नये जीवन की शुरूआत (कमलेश भारतीय) करना चाहती है। आवश्यकता है उसके प्रति एक मानवीय दृष्टि की….
वह दरवाजे पर थाप देता है, दरवाजा पाँच मिनट बाद खुलता है। वह अटैची लिए भीतर घुसता है…तभी एक खूबसूरत लड़का उसकी बगल से होता हुआ बड़ी तेजी से बाहर निकल जाता है। सारी स्थिति को नजर अंदाज करते हुए वह पत्नी के सामने अटैची खोलते हुए कहता है, ‘‘देखो सुधा, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ! यह जापानी साड़ी,यह नेल पालिश है…चांदी का हार….रिस्ट वाच…अब हमारे पास किसी चीज की कमी नहीं रही।” ’
‘‘हाँ, कोई कमी नहीं रही।” ’
‘‘फिर…फिर यह लड़का क्यों आया था?’’
वह फफक पड़ती है, ‘‘घर तो हमारे लिए है….उसके लिए तो….मैं तुम्हारे लिए बीवी हूँ, मगर उसके लिए तो वही न जिसके लिए कभी तुम खुद उसे लेकर आए थे…वह ग्राहक है ग्राहक…!’’
‘‘क्या जबरदस्ती?’’
‘‘ हाँ।” ’
‘‘तो?’’
‘‘अच्छा हो कि हम यह शहर छोड़ दें और किसी दूसरी जगह जा बसें, जहाँ घर घर रह सके।” ’ (घर: पृथ्वी राज अरोड़ा)
बीमार माँ की एकमात्र आकांक्षा को देखते हुए बेटा एक लड़की को माँ की देख-रेख के लिए घर ले आता है। माँ को लगता है कि यही उसकी होने वाली बहू है। माँ अच्छी होने लगती है। तभी एक दिन पड़ोसी से उसे पता चलता है कि लड़की वेश्या है। राज खुलते ही वेश्या तेजी से कमरे के बाहर जाने लगती है। माँ झट उसका आँचल पकड़ते हुए कहती है, ‘‘बहू, तुम इस घर से बाहर नहीं जा सकतीं….एक वेश्या मेरे घर की बहू बन सकती है लेकिन इस घर की बहू वेश्या बनकर बाजार में नहीं जा सकती।” ’ (बहू: रमाशंकर चंचल)
वेश्याओं के प्रति समाज का इसी प्रकार का संवेदनापूर्ण व्यवहार एवं साफ-सुथरी दृष्टि अपेक्षित है।