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लघुकथाएँ

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1-अपना अपना ईमान

 छह दिनों से मैं काफ़ी परेशान था। पाँच सौ रुपए का नकली नोट न जाने कहाँ से मुझे मिल गया था। नया–नकोर। वह नोट दिखने में तो बिल्कुल असली जैसा लगता था, पर था नकली। यह बात मुझे तब पता चली थी जब मैं बैंक में कुछ रुपए जमा करवाने गया था।

उसके बाद मैंने दो–तीन बड़ी–बड़ी भीड़–भरी दुकानों पर वह नोट चलाने की कोशिश की, पर सफल न हो पाया। बहुत व्यस्त होने पर भी दुकानदारों की तेज़ निगाहें नोट के नकली होने की बात जान लेती थीं।

मैं असमंजस में था कि नोट को कहाँ और कैसे चलाया जाए. फिर अचानक मुझे एक तरीक़ा सूझ ही गया।

रात के समय मैंने पटरी पर सब्ज़ी बेचने वाले से डेढ़ सौ रुपए की सब्ज़ी खरीदी और वही पाँच सौ का नकली नोट उसे पकड़ा दिया। मुझे उम्मीद थी कि लैम्पपोस्ट की मद्धम–सी रोशनी में वह सब्ज़ीवाला यह जान ही नहीं पाएगा कि नोट नकली है।

वह नोट लेने के बाद उस दुकानदार ने बाकी के नोट मुझे लौटाने के लिए रुपए गिनने शुरू किए, मगर रुपए गिनने में वह काफ़ी समय लगा रहा था। मुझे लगा कि कहीं उसे नोट के नकली होने की भनक तो नहीं लग गई.

मैंने उससे पूछ ही लिया, ” भइया, साढ़े तीन सौ रुपये ही तो वापिस करने हैं न मुझे।

इतने रुपए गिनने में इतना वक़्त लगता है क्या? ”

इस पर वह दुकानदार बाकी के रुपए मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोला, “बाबूजी, आपका नोट बिल्कुल नया था, अब ऐसे नए नोट के बदले आपको पुराने–पुराने नोट कैसे दे देता इसलिए नए–नए नोट छाँट रहा था आपको देने के लिए.”

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2-कोहरा

बड़ा अफसर अपने कमरे में छोटे अफसरों की मीटिंग ले रहा था। बाकी सब तो ठीक चला, पर एक छोटे अफसर को बड़े अफसर की खूब लताड़ पड़ी। यह नहीं कि उस छोटे अफसर का काम खराब था। उसका काम दूसरे अफसरों से कहीं ज़्यादा बढ़िया था, पर उस अफसर की सबसे बड़ी कमी यह थी कि वह बहुत ईमानदार और सच्चा था। न वह बड़े अफसर के सामने दुम हिलाता था और न अपने साथी अफसरों के खिलाफ़ चुगली किया करता था। बस अपने काम से मतलब रखता था।

छोटे अफसर के पास बड़े अफसर की डाँट सुनने के अलावा और कोई चारा नहीं था। मीटिंग खत्म हुई, तो वह अपने साथियों से नज़रें चुराते हुए जल्दी से अपने कमरे की ओर चल पड़ा।

छोटा अफसर अपने कमरे के पास पहुँचा ही था कि सामने से उसे रमेश आता दीख गया। रमेश उसी दफ़्तर में क्लर्क था। रमेश के साथ कोई और भी था।

छोटे अफसर को देखते ही रमेश ने बड़ी नम्रता से उसे अभिभावदन किया और फिर कहने लगा, “सर, आपने मेरा जो कई सालों से अटका हुआ तनख़्वाह बढ़ने वाला केस क्लीयर किया था, उसका एरियर मुझे मिल गया है। पूरे अस्सी हज़ार मिले हैं। आपका बहुत-बहुत’ शुक्रिया, सर।”

“अरे, इसमें शुक्रिया, की क्या बात है। तुम्हारा जो हक बनता था, तुम्हें मिलना ही चाहिए वह।” छोटे अफसर ने मुलायम-सी आवाज़ में कहा और फिर अपने कमरे की ओर बढ़ चला। चलते-चलते छोटे अफसर ने सुना। रमेश अपने साथी से कह रहा था, “ये सर बहुत ईमानदार हैं। इन जैसा ईमानदार मैंने कोई देखा नहीं अब तक।”

छोटे अफसर के मन पर बड़े अफसर की लताड़ के कारण छाया सारा कोहरा एकदम से छँट गया।

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3-परिवर्तन

उसे लग रहा था कि तनाव से उसका सिर ही फट जाएगा। वह बहुत पछता रहा था कि उसने बीवी–बच्चों को प्रगति मैदान में लगा व्यापार मेला दिखाने का कार्यक्रम बनाया ही क्यों। पहले तो भीड़भरी बस में प्रगति मैदान तक आते–आते हालत खराब हो गई थी और फिर जितनी उसे आशा थी, उससे कहीं बहुत ज़्यादा खर्च हो गया था। यहाँ तक कि आड़े वक्त के लिए बचाकर रखे गए दो सौ रूपये में से भी सौ से ज़्यादा रूपये उड़ गए थे। मगर इसके बावजूद उसकी बीवी और दोनों बच्चों के मुंह फूले हुए थे। मेले में तरह–तरह की चीजें देखकर उन्हें खरीदने की इच्छा उन सबकी हो आई थी। अपने दिमाग की चेतावनियों को नजरअन्दाज करके बीवी–बच्चों को कुछ छोटी–मोटी उसने ले दी थीं, पर फिर भी उनकी अनेक मनचाही चीजें खरीदने से रह गई थीं। न–न करते भी खाने–पीने पर काफी खर्च हो गया था। चीजों के रेट ही आसमान को छू गए थे।

प्रगति मैदान से बाहर आनेवाले गेट के पास वे पहुंचने ही वाले थे कि उसके छोटे बच्चे की नजर खिलौने बेचने वाले पर पड़ी और वह प्लास्टिक की एक छोटी बन्दूक दिलाने की जिद करने लगा। बन्दूक दस–पन्द्रह रूपये में ही आ जाती, पर अपनी खस्ता आर्थिक हालत के कारण उसे यह खर्च बिल्कुल फिजूलखर्ची लगा। उसने बच्चे को बुरी तरह झिड़क दिया और अपनी चाल तेज कर दी।

तभी उसने देखा गेट के पास उसके दफ्तर का साथी, खन्ना अपने परिवार के साथ खड़ा था। उन सबके हाथ खरीदी गई चीजों के पैकटों से लदे–फदे थे और एक आदमी उन लोगों के हाथों से कुछ पैकेट लेकर उनका बोझ हल्का करने की कोशिश कर रहा था। उसके दिमाग में आया कि हो न हो खन्ना ने दफ्तर में अपने पास आने वाली किसी पार्टी से मुफ्त में कार का जुगाड़ किया है और यह उसीकार का ड्राइवर है। खन्ना जैसे चालू आदमी के लिए ऐसे जुगाड़ करना बाएँ हाथ का खेल था और खुद उसके लिए महापाप। आदर्शवाद का भूत जो सवार था उस पर।

तनाव से भरा उसका दिमाग अब जैसे तनाव के समुद्र में गोते खाने लगा था अपनी स्थिति उसे और भी दयनीय लगने लगी थी। खन्ना के सामने वह किसी भी हालत में पड़ना नहीं चाहता था।

वह एकदम से रूक गया और खिलौने वाले को पास बुलाकर प्लास्टिक की बन्दूक खरीदने लगा।

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4-अपने-अपने संस्कार

 छुट्टी का दिन था और शाम को सात बजे भारत और आस्ट्रेलिया का ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट मैच होना था। उत्सुकता चरमसीमा पर थी क्योंकि इसी मैच की विजेता टीम को फाइनल में पहुँचना था।

अपनी उत्सुकता के वशीभूत मैच शुरू होने से कुछ मिनट पहले ही मैं टी.वी. लगाकर डबल बेड पर अधलेटा-सा बैठ गया था। गर्मी के दिन थे। मैंने अपनी छोटी बेटी, नित्या, को कहा कि फ्रिज में से मेरे लिए ठंडे पेय की एक बोतल ले आए. मैं पूरा लुत्फ़ उठाते हुए मैच देखना चाहता था।

मगर मेरी हर बात को तत्परता से माननेवाली नित्या उसी तरह खड़ी रही। मैं कुछ पल उसे देखता रहा कि वह बस जा ही रही होगी ठण्डा पेय लेने, पर वह उसी तरह सावधान की मुद्रा में खड़ी रही। इस पर मैंने थोड़ी तेज़ आवाज़ में अपनी बात दोहराई, लेकिन मुझे ऐसा लगा मानो उसने मेरी बात सुनी ही न हो। मैं आगबबूला होकर कुछ कहने की सोच ही रहा था कि वह कहने लगी, “पापा, ला रही हूँ कोल्ड ड्रिंक। मैच से पहले जन गण मन आ रहा था न।”

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5-वादा

बच्चा कई दिनों से एक विशेष खिलौने के लिए मचल रहा था। आज सुबह जब उसने खिलौने के लिए कुछ ज़्यादा ही ज़िद की, तो मैंने झूठ-मूठ उसे कह दिया कि शाम को दफ़्तर से आते हुए मैं वह खिलौना लेता आऊँगा। यह सुनते ही वह ख़ुशी के मारे झूमते हुए कहने लगा, “पापा, मैं शाम तक मैथ (गणित) के वे सारे सम्स (प्रश्न) करके रखूँगा जो आपने कल कहे थे।”

शाम को दफ़्तर से वापिस आते ही बच्चा मेरा बैग टटोलने लगा। मैंने खिलौना न ला पाने का कोई बहाना बना दिया। कुछ देर बाद जब मैं चाय पी रहा था तो बच्चा मैथ की कॉपी ले आया और कहने लगा, “पापा, मैंने सारे सम्स कर लिए हैं। आप चैक कर लो।”

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6-अपने-अपने दुःख

सुबह वह इसी उम्मीद के साथ घर से निकला था कि सेठ जी से कुछ पेशगी रकम ले लेगा और शाम को बच्चे का जन्मदिन मनाने के लिए मिठाई और खिलौना लेता आएगा। अगली तनख़्वाह मिलने में अभी दस दिन बाकी थे और पिछली तनख़्वाह तो कब की उड़नछू हो चुकी थी।

मगर सेठ जी से बहुत चिरौरी करने पर भी उसे कोई पेशगी रक़म मिल नहीं पाई. अपने एक-दो दोस्तों से भी उसने कुछ पैसे उधार लेने चाहे, मगर वहाँ भी निराशा ही उसके हाथ लगी।

मायूस-सा वह शाम को काफ़ी देर तक सड़कों पर यूँ ही भटकता रहा। आखि़र घर जाता भी तो क्या मुँह लेकर। देर रात जब उसे लगने लगा कि अब तक बच्चा नींद के आगोश में जा चुका होगा, तो धड़कते दिल से वह घर पहुँचा। दरवाज़े की घंटी बजाने की बजाय उसने दरवाज़े को हल्का-सा खटखटाया ताकि बच्चा नींद से जाग न जाए.

पत्नी ने दरवाज़ा खोला तो वह फुसफुसाती आवाज़ में पूछने लगा, “मिंटू सो गया है न?”

“कहाँ सोया है अभी तक! आपकी ही राह देख रहा है कि आप मिठाई और खिलौना लेकर आओगे।” पत्नी ने उसके ख़ाली हाथों की ओर देखते हुए जवाब दिया।

भारी कदमों से वह कमरे के अन्दर आया जहाँ उसका बेटा बिस्तर पर लेटा हुआ था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह बेटे से नज़रें कैसे मिला पाएगा। चोर नज़रों से उसने बेटे के बिस्तर की ओर देखा। बेटा तो जैसे घोड़े बेचकर सो रहा था। अपनी मजबूरियाँ देख उसकी आँखें गीली हो आईं। तभी बच्चे ने दूसरी तरफ़ करवट बदल ली। उसकी आँखों से भी आँसू बह रहे थे।

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