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लघुकथा विधा का स्वर्णिम युग

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समकालीन साहित्य जगत् लघुकथा विधा के लिए स्वर्णिम युग माना जाएगा।  लघुकथाओं पर जाने कितने शोध किए जा रहे, लघुकथा की एकल और सम्पादित पुस्तकों का प्रकाशन उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर है। विश्व स्तर पर हिन्दी चेतना,अभिनव इमरोज़,सृजन संवाद,शोध दिशा ,लघुकथा कलश, अविराम साहित्यिकी,आधुनिक साहित्य , सरस्वती सुमन पत्रिकाएँ अपने विशेषांक निकाल चुकी हैं। लघुकथा डॉट कॉम विश्वस्तरीय नेट पत्रिका निरन्तर नए-पुराने  रचनाकारों के सशक्त मंच  की तरह काम कर रही है। अन्तर्जाल पर  विधा विशेष के रचनाकारों की रचनाएँ उपलब्ध हैं। उनकी रचनाओं का अध्ययन अब सुलभ है, बस जरूरत है जागरूक होने की और साहित्य के प्रति समर्पण की। विश्व स्तर पर आयोजित बहुत सारी प्रतियोगिताएँ इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। कथादेश की बहुचर्चित लघुकथा -प्रतियोगिता 2006 से अनवरत रूप में जारी है।

‘मेरी पसंद’ के तहत मैंने जिन दो कथाओं का चयन किया है, वे फेसबुक मित्रों की लघुकथाएँ ‘लघुकथा अनवरत-2016’( सम्पादक सुकेश साहनी और रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’) में उपलब्ध हैं। कुल 64 रचनाकारों को पढ़ते हुए मैं सभी की रचनाओं के लिए ‘वाह’ कह उठती थी। उनमें दो कथाओं का चयन वाकई मेरे लिए कठिन कार्य था। पुस्तक में उपस्थित सिद्धहस्त लघुकथाकारों की कथाओं से बहुत कुछ सीखने को मिला। सुकेश साहनी जी की लघुकथा ‘मेढकों के बीच’, डॉ सतीशराज पुष्करणा जी की ‘सहानुभूति’, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’जी की ‘विजय जुलुस’, श्यामसुन्दर अग्रवाल जी की ‘उत्सव’ ।

मेरी पसंद की पहली लघुकथा वरिष्ठ रचनाकार सुधा गुप्ता जी की  ‘कन्फ़ेशन’ है, जिसमें कथा का नायक जो जीवन भर अच्छाई और सच्चाई की राह पर चलता है, अंत समय में उन सभी नैतिक कार्यों के लिए फ़ादर के सामने कन्फ़ेशन करता है। फ़ादर को उसकी भूलों के बारे में जानने कि जिज्ञासा है किन्तु वह बार बार अपनी निष्ठा का बोध कराता हुआ कह उठता है कि वही उसका कन्फ़ेशन है। प्रस्तुत कथा में बिना कुछ कहे नायक का दर्द छलक उठता है। जीवन में आदर्श , निष्ठा और सच्चाई की बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ती है । जीवन के उत्तरार्द्ध में वही गुण, अवगुण जैसे प्रतीत होने लगते हैं जब उनकी कीमत कोई समझ नहीं पाता और व्यक्ति खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। कथा कई लोगों के मन की बात हो सकती है जिसे लेखिका ने चन्द शब्दों में उकेरा है। दूसरी बात, कथा के शीर्षक के लिए यदि हिन्दी शब्द ‘स्वीकारोक्ति’ प्रयोग में लाया जाता तो कथा अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाती । चूँकि कन्फ़ेशन यहाँ पर खास रिवाज़ है जहाँ व्यक्ति निश्छल हृदय से प्रभु के सामने स्वयं को समर्पित करते हुए क्षमाप्रार्थी बन जाता है। यह रिवाज़ यह भी दर्शाता है कि प्रत्येक मनुष्य को अच्छे बुरे का ज्ञान रहता है फिर भी वह भूल करता रहता है। अंग्रेजी शीर्षक से लघुकथा को कोई समस्या नहीं है, इस लघुकथा से यह भी भली भाँति स्पष्ट है। जब अंग्रेजी शीर्षक अधिक प्रभावशाली हों तो शीर्षक रखने में परहेज नहीं करना चाहिए।

मेरी पसंद की दूसरी लघुकथा सुनील गज्जानी जी की लघुकथा ‘खाना‘ है। भ्रष्टाचारी साथियों के बीच एक सच्चा ईमानदार मनुष्य का मन बार बार उनका रास्ता अपनाना चाहता है किन्तु इज्जत और डर के कारण वह कुछ कर नहीं पाता। अपने उसूलों पर अडिग रहने जैसी मानवीय प्रवृति दम तोड़ने लगती है जब साथी सहकर्मी बड़ी ही सुघड़ता से भ्रष्टाचार को अंजाम देते हुए ईमानदार साथी का मजाक भी बनाते रहते हैं। इस काम के लिए भी हिम्मत चाहिए। एक कहावत है कि एक कुशल चोर सौ चोरियाँ करके भी पकड़ा नहीं जाता । पकड़ में वही चोर आ जाता है जो नादान है, अनुभवहीन है। लेखक ने भ्रष्टाचार के लिए जो बिम्ब प्रस्तुत किया है , वह है ‘खाना’। खाना खाकर चुपके से डकार लेना सबके वश की बात नहीं। इस कथा में नायक अपने मानसिक उलझनों में फँसा खाना खाने की हिम्मत तो करता है पर खाना माँगने के लिए सही महाराज का चुनाव नहीं कर पाता। वह ऐसे मनुष्य से याचना कर बैठता है जो स्वयं ही मुश्किल से रोजी रोटी का जुगाड़ कर पाता है। ऐसे में पकड़े जाने से अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। कथा यह कहने में पूरी तरह सफल रही है कि कुछ गल्तियाँ करने के लिए आसपास का माहौल भी जिम्मेवार होता है॥

1.कन्फ़ेशन – डॉ सुधा गुप्ता

माइकेल कई बरस से बीमार था। साधारण सी आर्थिक स्थिति; पत्नी बच्चे सारा भार। जितना सम्भव था इलाज कराया गया; किन्तु सब निष्फल। शय्या- कैद होकर रह गया। लेटे लेटे जाने क्या सोचता रहता…अन्ततः परिवार के सदस्य भी अदृष्ट का संकेत समझ कर मौन रह, दुर्घटना की प्रतीक्षा करने लगे। एक बुज़ुर्ग हितैषी ने सुझाया-‘अब हाथ में ज्यादा वक्त नहीं, फ़ादर को बुला भेजो ताकि माइकेल ‘कन्फेस’ कर ले और शान्ति से जा सके।’ बेटा जाकर फ़ादर को बुला लाया। फ़ादर आकर सिरहाने बैठा, पवित्र जल छिड़का और ममता भरी आवाज़ में कहा- ‘प्रभु ईशू तुम्हें अपनीबाहों में ले लेंगे बच्चे ! तुम्हें सब तक़लीफ़ों से मुक्ति मिलेगी, बस एक बार सच्चे हृदय से सब कुछ कुबूल कर लो।’

माइकेल ने मुश्किल से आँखें खोलीं, बोला- ‘फादर, मैंने कभी किसी को धोखा नहीं दिया।’

फादर ने सांत्वना दी- ‘यह तो अच्छी बात है, आगे बोलो।’

माइकेल ने डूबती आवाज में कहा- ‘फादर, मैं झूठ, फ़रेब, छल-कपट से हमेशा बचता रहा।’

फादर ने स्वयं को संयमित करते हुए कहा-‘यह तो ठीक है पर अब असली बात भी बोलो…माइकेल!’

माइकेल की साँस फूल रही थी, सारी ताकत लगाकर उसने कहा-‘फादर , दूसरों के दुःख में दुःखी हुआ, परिवार की परवाह न कर दूसरों की मदद की…’

अब फादर झल्ला उठे-‘माइकेल, कन्फेस करो…कन्फेस करो…गुनाह कुबूलो…वक्त बहुत कम है…’

उखड़ती साँसों के बीच कुछ टूटे फूटे शब्द बाहर आए, ’वही…तो कर…रहा हूँ…फादर…!’

 2.खाना – सुनील गज्जानी

खाने की बहुत इच्छा थी मगर नहीं खा पा रहा था। उसे लग रहा था कि कोई उसे देख रहा है। एक डर एक आशंका थी मन में, परंतु वह देख रहा था कि उसके सहकर्मी, जिनकी तोंदें छिटकीं, कोई न कोई बीमारी से ग्रसित हैं फिर भी शौकीन हैं खाने के! एसिडिटी होने के बावजूद खा जाते हैं मगर वो दुबला छरहरा होकर भी खाने से घबराता है। मगर उसकी इच्छा भी थी कि उसके शरीर पर चर्बी चढ़े, थोड़ा थुलथुला बने। लेकिन अनजान था खाने की प्रणाली से, कि कहाँ और किस प्रकार खाए! जब कोई टिफिन भी लेकर आता तो किसी आशंका से इंकार कर देता। सहकर्मी उसकी इस दशा को देख खिलखिला उठते फिर अपने खाने के तरीकों का बखान करते। रोज-रोज सहकर्मियों के बखान से प्रेरित हो उसने एक दिन खाने की ठान ही ली और एक दयनीय वृद्ध को कह बैठा। वृद्ध जैसे तैसे अपना चूल्हा जला उसके लिए एक टिफिन की व्यवस्था कर लाया और उसे थमा व्यथित मुद्रा में बैठ गया। टिफिन की महक से उसके मुँह में पानी भर आया। खाने के लिए उसने जैसे ही रुपए निकाले, जो आशंका थी वह सच साबित हो गई। भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो कर्मचारी आ धमके। उसके खाने से चिकने हुए हाथ, कर्मचारियों द्वारा धुलवाने पर साफ होने की बजाय और सान गए, पीली चिकनाई से।

वृद्ध मुस्कुरा उठा, बोला- ‘माफ करना, मेरे बच्चों को खाना नसीब नहीं हो रहा, तुम्हे कैसे खिलाता?’

वो सकपकाया-सा कभी अपने सहकर्मियों को तो कभी वृद्ध को देखता रहा।

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