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Channel: लघुकथा
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अतिरंजना और फैंटेसी में लिपटा क्रूर सामाजिक सत्य

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सुकेश साहनी कई दशकों से हिन्दी लघुकथा साहित्य के परिवर्द्धन में सक्रिय हैं। उनकी रचनाएँ कई भाषाओं में अनूदित और चर्चित रही हैं। सुकेश का लेखकीय व्यक्तित्व अपने समशील रचनाकारों की तरह यथार्थ की पकड़ और सम्प्रेषण की सहजता के आग्रह से निर्मित है लेकिन जो बात उन्हें अलग पहचान देती है वह उनके शिल्प की मौलिकता में निहित है। इसमें सन्देह नहीं कि उनकी लघुकथाओं का विधान किसी एक ढर्रे पर लीकोंलीक नहीं चलता, बल्कि कथ्य के अनुरूप अभिव्यक्ति को मारकता प्रदान करने के लिए वे शैली-शिल्प के स्तर पर तरह-तरह के प्रयोग करते दिखाई देते हैं। लघुकथा की प्रभवशीलता के लिए व्यंग्य, ध्वनि या व्यंजना की शक्ति को वे पहचानते हैं और उसका भली प्रकार इस्तेमाल करने में कुशल हैं। अतिरंजना और फैंटेसी का उन जैसा सटीक प्रयोग हर किसी के वश की बात नहीं। विस्मय और आकस्मिकता को भी सुकेश अच्छी तरह साध लेते हैं तथा साधारण स्थितियों के माध्यम से असाधारण निष्कर्षों को दर्शाना भी उन्हें अपनी विधा का उस्ताद बनाता है। संकेतों और अप्रस्तुतों की योजना उनकी कथाओं को काव्यभाषा का अतिरिक्त संस्कार प्रदान करती है। साथ ही यह भी कहना जरूरी है कि मनुष्य और समाज की तमामतर विकृतियों और विच्युतियों के समाकालीन बोध के बावजूद यह कथाकार पराजित या हताश नहीं है, बल्कि मनुष्यता की सर्वोंपरिता में विश्वास के कारण उसकी कलम जुझारू पात्रों का सृजन करने से बाज नहीं आती। यही वह चीज है जो सुकेश साहनी के लघुकथाकार को सामाजिक परिवर्तन के लिए समर्पित रचनाकार का दर्जा दिलाने में समर्थ है।
लघुकथा अपनी सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और व्यंजकता में बहुत बार कविता के सर्वाधिक निकट की विधा प्रतीत होती है। संक्षिप्तता या सामाजिकता तो इस विधा की केन्द्रीय शर्त है ही। यही कारण है कि यहाँ शीर्षक भी कथ्य और शिल्प का अविभाज्य अंग होता है। इस दृष्टि से सुकेश के कुछ शीर्षक खूब सटीक बन पड़े हैं-गोश्त की गन्ध, चादर, आइसबर्ग, नपुंसक, शिनाख्त। ये सभी कथ्य के सबसे मार्मिक और विचलित करनेवाले अंश को अंजाने ही अग्रप्रस्तुत कर देते हैं।
इसके अलावा अपनी इन लघुकथा रचनाओं में सुकेश समापन के सम्बन्ध में काफी सतर्क प्रतीत होते हैं। आरम्भ कहीं से भी कर सकते हैं वे, और उसे रोचक भी बना सकते हैं; पर अन्त के मामले में वे रिस्क लेने के पक्षधर नहीं है। वे अपने प्रतिपाद्य को पाठक के मन-मस्तिष्क में रोपित करना चाहते हैं ताकि लघुकथा अपने सामाजिक उद्देश्य में सफल हो सके; भले ही इसके लिए उन्हें अन्त में लेखकीय टिप्पणी जोड़नी पड़े। दरअसल इस तकनीक द्वारा वे व्यंजना को अभिधा में ढालते हैं और रचना को सुख-बोध बनाने का यत्न करते हैं। यही कारण है कि ‘गोश्त की गंध’ के अन्त में वे यह कहना नहीं भूलते कि ‘‘काश, यह गोश्त की गन्ध उसे बहुत पहले ही महसूस हो गई होती!’’ ‘चादर’ का अन्त भी प्रति उत्कर्ष से किया गया है जो पाठक को एक्टिव बनाना चाहता है-‘‘मैंने उसी क्षण उस खूनी चादर को अपने जिस्म से उतार फेंका।’’ ‘‘जागरूक’’ का अन्त इसकी तुलना में अधिक सांकेतिक है, ‘‘उनके आदेश पर बहुत-से वाचमैन लाठियाँ-डण्डे लेकर कोठियों से बाहर निकले और उस कुत्तों पर पिल पड़े।’’
‘आइसबर्ग’, ‘नपुंसक और ‘शिनाख्त’ का भी समापन लेखकीय टिप्पणी और चरम घटना को जोड़कर अत्यन्त कलापूर्ण और प्रभावी ढंग से किया गया है। ‘आइसबर्ग’ के अन्तिम अनुच्छेद में कई सारी भीतरी और बाहरी घटनाएँ तीव्रता के साथ घटित होती हैं और पाठक की चेतना को झटका-सा देती हैं। यह विचित्र विरोधाभास अथवा विडम्बना ही है कि अब तक असुरक्षित अनुभव करता हुआ जो युवक बार-बार भयग्रस्त होकर अपनी पहचान बदल रहा था, उत्तेजित सिखों के परस्पर झगड़ने पर खुद को सुरक्षित महसूस करता है। लेखक यहाँ यह भी सूचना देता है कि दंगाग्रस्त क्षेत्र में यह युवक अपने दोस्त के घर दो दिन बिताकर आया है इसीलिए उस युवक को दंगे के भयावह अमानुषिक दृश्य भी याद आते हैं, लेकिन लेखक अपनी कहानी को एक सकारात्मक नोट पर समाप्त करता है-बेटे को शरारतों की मधुर स्मृति के साथ। यथा-‘‘एकाएक लगा कि वह बेहद थक गया है। कर्फ्यू के बीच दोस्त के घर बिताए गए दो दिन उसकी आँखों में तैर गए-लुटती दुकाने….भागते-चीखते लोग…जलते मकान….टनटनाती दमकलें। उसने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया। अगले ही क्षण वह सीट से सिर टिकाए अपने बेटे की नन्हीं शरारतों को याद कर मुस्करा रहा था।’’ इसी प्रकार ‘नपुंसक’ का अन्त विपथन (डिफ्लेक्षन) की तकनीक से किया गया है। उठा लाई गई मजदूरिन पर सामूहिक दुष्कर्म कर रहे युवकों के बीच शेखर अपनी संवेदनशीलता के कारण विरल आचरण करता है परन्तु कापुरुष कहे जाने के डर से अपने साथियों पर इसे प्रकट नहीं करता। परिणामतः उसका अन्तरंग स्वयं उसे धिक्कारता है मानो मुक्तिदाता स्वयं पौरुषहीनता का शिकार हो-अपने कमरे की ओर बढ़ते हुए अपने ही पदचाप से उसके दिमाग में धमाके-से हो रहे थे-‘‘नपुंसक…नपुंसक…! मुक्तिदाता!….नपुंसक!’’‘शिनाख्त’ का अन्त इस दृष्टि से विशिष्ट है कि इसके माध्यम से आज के मनुष्य की पैसे की भूख का वह रूप सामने आता है जिसे लाशखोरी ही कहा जा सकता है। जैसे ही यह घोषणा होती है कि साम्प्रदायिक दंगबों में मारे गए लोगों के लिए पाँच-पाँच लाख रुपया मुआवजा दिया जाएगा, वैसे ही बलात्कार के बाद क्रूरतापूर्वक मार दी गई अज्ञात युवती के अनेक रिश्तेदार पैदा हो जाते हैं, ‘‘सर! ताज्जुब है…उस सिर कटी युवती की लाश पर अपना दावा करनेवाले बहुत-से लोग बाहर खड़े है, सर!’’
वस्तु-चयन में लेखक ने सामाजिक यथार्थ पर दृष्टि केन्द्रित रखी है। दहेज, घरेलू हिंसा, बलात्कार, स्त्री का बहुमुखी शोषण, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, क्रूरता, अमानुषिकता, भीड़ का उन्माद, मानवीय सम्बन्धों का क्षरण, मीडिया, श्रम से जुड़ा आत्मसम्मान, बालश्रम, वृद्धावस्था, गरीब की साधनहीनता, मध्य वर्ग की लालसा, हिन्दुस्तानियों की अंग्रेजियत और बाजारवाद का चक्रव्यूह जैसे प्रत्येक संवेदनशील प्राणी को विचलित करनेवाले ज्वलन्त विषयों को उन्होंने मार्मिक घटनाओं और जीवन्त पात्रों के सहारे झकझोरनेवाली अभिव्यंजना प्रदान की है। कथ्य और शिल्प की अनुरूपता के कारण ही ये लघुकथाएँ चुटियल होने का अहसास दिलाती हैं और साथ ही चोट भी करती हैं। मर्मस्थल पर वार करने में इनकी चरितार्थता का मर्म निहित है।
अतिरंजना, फैंटेसी, आकस्मिकता और विस्मय तत्त्व के सहारे बुनी गई लघुकथाओं में सुकेश ने सामाजिक यथार्थ के क्रूर और असामाजिक चेहरे के विद्रूप को रूपायित करने में पूरी सफलता पाई है। इस प्रकार की लघुकथाओं में पाठक को विचलित करने और आत्मसाक्शात्कार के लिए विवश करने की ताकत दिखाई देती है। अगर कहा जाए कि इस शिल्प में सुकेश साहनी की कहानी-कला सर्वाधिक प्रभविष्णुता के साथ उभरी है, तो शायद गलत न होगा। इस कथन को प्रमाणित करने के लिए ‘गोश्त की गंध’, ‘चादर’, ‘जागरूक’, और ‘ओए बबली’को देखा जा सकता है। ‘गोश्त की गंध’ में दामाद जब भोजन के लिए बैठता है तो यह देखकर वह सन्न रह जाता है कि सब्जी की प्लेटों में खून के बीच आदमी के गोश्त के बिलकुल ताजा टुकड़े तैर रहे थे। आगे यह भी बताया गया है कि सास, ससुर और साले के किस-किस अंग का गोश्त दामाद की खातिरदारी के लिए उतारा गया है और किस तरह उसे छिपाने की असफल कोशिश केवल इसलिए की जा रही है कि दामाद नाराज न हो जाए। ‘चादर’ भी प्रतीकात्मक है। पवित्र नगर और पवित्र पर्वत की कल्पना का रहस्य तब खुलता है जब आख्याता अपनी चादर पर खून से लाल और तर थीं जबकि सभी हट्टे-कट्टे थे और कोई खून-खराबा भी नहीं हुआ था। चेतना को झटका तो तब लगता है जब यह बात समझ में आती है कि जिसकी चादर जितनी अधिक रक्तरंजित है वह उतना ही आश्वस्त होकर मूँछे ऐंठ रहा है। साम्प्रदायिक दंगों की जेनेसिस पर ऐसी कहानियाँ शायद कम ही लिखी गई होंगी। ‘जागरूक’ की अतिरंजना और आकस्मिकता इन दोनों कहानियों से भिन्न प्रकार की है। यहाँ संकटग्रस्त युवती की चीख-पुकार पर सभ्य संभ्रान्त भद्रलोक कान मूँदे सोया रहता है; लेकिन लावारिस कुत्तों बदमाशों पर भौंकते हैं। वश न चलने पर कुलीन कोठियों के विशाल बन्द दरवाजों तक भी जाते हैं। व्यंग्यपूर्वक लेखक यह दर्ज करता है कि इस प्रयास पर लोहे के बड़े-बड़े गेटों के उस पार तैनात विदेशी नस्ल के पालतू कुत्तों उसे हिकारत से देखने लगे। अन्ततः जब गुण्डे बलात्कार के अपने उद्देश्य में सफल होते दीखते हैं गली का कुत्ता मुँह उठाकर जोर-जोर से रोने लगता है। लड़की का रोना जिन्होंने नहीं सुना उन्हें कुत्तों का रोना सुन जाता है क्योंकि कुत्तों का रोना अशुभ होता है। लड़की का रोना क्या होता है-शुभ या अशुभ? ऐसे समाज का क्या होगा-कल्याण या विनाश? कई सवाल पाठक को बेचैन करते हैं; और लेखक सूचना देता है कि भद्र लोगों के इशारे पर बहुत-से वाचमैन अशुभसूचक कुत्तों को मार रहे हैं। लावारिस कुत्तों की तुलना में हमारा यह तथाकथित भद्रलोक किस तरह का पामोरियन कुत्ता है! कुत्तों जागरूक हैं, और मनुष्य? ‘ओए बबली’ में लेखक ने स्वप्न की तकनीक अपनाई है। पानी की खोज! निरन्तर और असमाप्त खोज। पानी नहीं मिलता। रेता मिलती है। गंगा-जमुनी दोआबा रेगिस्तान में बदल जाता है। कुआँ मिलता है-टशन और प्यास के विज्ञापनोंवाली खूबसूरत लड़कियों के बीच। कुएँ में पानी नहीं है, बर्फ के ढेले हैं, कूल ड्रिंक की बोतले हैं। माँ के लिए पानी खोजती बेटी फ्रॅाक में बर्फ के ढेले भरकर दौड़ती है पर बर्फ तो बिना पिघले ही उड़नछू हो जाती है। इस बीच माँ कुआँ खोद लेती है। स्वप्न टूटता है माँ के इस निर्देश के साथ कि ‘‘चल…जल्दी कर बेटी! बर्तनों की कतारे लगने लगी हैं। पानी का टैंकर आता ही होगा। आज तो घरमें खाना पकाने के लिए भी पानी नहीं है…बबली!1’’ और इस तरह आभासी विश्व पर यथार्थ पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है।
अपनी कथाभाषा के गठन में सुकेश जहाँ सहजता और प्रतीकात्मकता को मुहावरेदानी और आमफहम शब्दावली के सहारे एक साथ साधते है, वहीं सटीक विशेषणों, उपमानों और विवरणों के सहारे अभिव्यंजना को सौन्दर्यपूर्ण भी बनाते हैं। ये उनकी कथा-रचना के वे इलाके हैं जो उन्हें कथाकार के साथ-साथ उत्कृष्ट शैलीकार के रूप में प्रतिष्ठित कराने के निमित्त पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध कराते है। अतः सामाजिक यथार्थ और कलात्मकता को अपनी लघुकथाओं में साथ-साथ सम्भव कर सकनेवाले लेखकों की पंक्ति में सुकेश साहनी की प्रतिष्ठा सुनिश्चित मानी जानी चाहिए।
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