छात्र संघ के आह्वान पर पूरी तरह बन्द था। सड़कों पर पुलिस की गश्ती गाड़ियों के अलावा हाकिम-हुक्का और गिने-चुने अति विशिष्ट लोगों की ही गाड़ियाँ दौड़-भाग रही थीं। बन्द समर्थक छात्रों की टोलियाँ अपनी इस सफलता पर इठला रही थीं। रोज कमाने-खाने वाले उदास चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
जन-जीवन पूरी तरह ठप्प था।
दिहाड़ी मजदूर रमजानी चूड़ा-गुड़ खाकर अपनी झोंपड़ी में जमीन पर लेटा ऊपर देख रहा था। खपरैल छत से छनकर धूप के छोटे-छोटे टुकड़े उसके बदन पर यहाँ-वहाँ पड़ रहे थे। थोड़ी देर बाद धूप का एक नटखट नन्हा सा टुकड़ा उसकी आँख पर आ गिरा, तो उसकी शरारत से बचने के लिए उसने करवट बदल ली। नींद में कुछ अच्छे ख्वाब देखने की सोच ही रहा था कि तभी मुन्नू दौड़ता हुआ अन्दर आया और उसे झिंझोड़ते हुए बोला- ‘‘अब्बाऽ हाथी….हाथी वाला आया है।‘’
‘‘अरे, आया है, तो हम का करें? जाऽ जाके देख’’ वह बगैर पलटे ही झुँझलाया।
‘‘अब्बा, हम भी हाथी पर बैठेंगे, पैसा दो।
‘‘पैसा नई है बाऽऽप।‘’ वह खिसियाया हुआ उठ बैठा और मुन्नू के आगे अपने झलंग कुर्ते की फटी जेबें उलट दीं।
‘‘नाँऽ आँऽ नाँ,हम हाथी पर बैठेंगे पैसा दो, अब्बाऽ पैसा दो न।’’ मुन्नू ने एक जिद्दी बच्चे की तरह ठुनकना शुरू कर दिया। उसकी इस हरकत पर रमजानी को गुस्सा आ गया उसने मुन्नू का एक हाथ पकड़ा और लगभग घसीटता हुआ, उसे दरवाजे पर ला खड़ा किया, ‘‘हाथी देख ले ई जनम में, ऊ जनम में बैठ लेना….समझाऽ। खाने का ठिकाने नहीं है और हथिए पर चढ़ेगा साऽला।
‘‘….चुपचाप हिंए पर खड़ा रहो नई तो बतिसिए झाड़ देंगे अभी….’’
गुस्से में काँपता हुआ वह अन्दर आ गया।
मुन्नू अपने बाप का तेवर देखकर सहम गया था और गुम-सुम सा अपने दरवाजे के पास से मस्त हाथी को देखता रहा था एक टक। कॉलोनी के साफ-सुथरे बच्चे हाथी की पीठ पर बैठे चहक रहे थे। उनके माँ-बाप की आँखें भी चमक रही थीं।
थोड़ी देर बाद हाथी चला गया। तमाम साफ-सुथरे बच्चे थोड़ी देर तक दूसरे खेलों में मस्त रहे फिर अपने-अपने ठिकाने के हो लिए।
सड़क सुनसान थी और यह भोजन का समय था।
मुन्नू सुनसान सड़क को निहारते-निहारते थक गया ,तो हारकर झोंपड़ी के अन्दर आ गया। रमजानी अब भी दीवार की ओर मुँह करके लेटा पड़ा था। मुन्नू चुपचाप दीवार से टेक लगाकर बैठ गया और कच्चे फर्श पर बेमतलब आड़ी-तिरछी लकीरें खींचने लगा। रमजानी ने हौले से पलटकर देखा, अपने बेटे को इस तरह इतना उदास बैठा देखकर उसे गहरी चोट लगी। वह तिलमिला गया। किसी तरह वह अपनी जगह से उठा और हाथी बनकर झूमता-झामता अचानक मुन्नू के एकदम सामने आ गया। उदास मुन्नू उसे हाथी बना देखकर खिल उठा और चिड़िया की तरह फुदकता हुआ उसकी पीठ पर बैठकर चहकने लगा, ‘‘चलो मेरे हाथी पटना चल, चल मेरे हाथी दिल्ली चल, जल्दी चल, जल्दी चल…मेरे हाऽथी!”
हाथी मुन्नू को पीठ पर बिठाए झोंपड़ी के अन्दर चक्कर काट रहा था। मुन्नू के होंठों पर हँसी थी और हाथी रो रहा था।
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