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लघुकथाएँ

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1-उसका दुःख

‘‘अरे रेहाना तुम ! वर्षों के बाद घर आई सहेली को देखकर शबाना एकाएक खुशी में चहक उठी।

“हां, तुम्हारे शहर में आज एक नौकरी का इंटरव्यू देने आई थी, सोचा, चलते वक्त तुमसे भी मिलती चलूँ।”

             ‘‘ये तो तूने अच्छा किया, लेकिन ये बता, यूँ नौकरी के लिए कब तक भटकती रहेगी, शादी-वादी करके घर क्यों नहीं बसा लेती।”’

 रेहाना मुस्कराई, बोली, ‘‘जैसे तूने घर बसा लिया और ऐश कर रही है।”

 ‘‘हॉ-हॉ, इसमें तो कोई दो-राय नहीं है।”

 ‘‘तूने तो साबिर से ही शादी की है न, तू चाहती भी उसे बहुत थी।”

 यह सुनकर शबाना शरमा-सी गयी, बोली, ‘‘तुझे भी तो असलम बहुत चाहता था, मगर तूने तो हमेशा उसे टाइम-पास समझा और उसे बेवकूफ बनाकर खूब खाती-पीती रही, बाद में उसने शमा से शादी कर ली थी। शादी के फकत दो साल बाद ही वो चल बसा। वह सरकारी नौकर था, इसलिये उसकी जगह शमा अब आफिस में नौकरी कर रही है।”

 रेहाना सब कुछ खामोशी से सुनती रही। फिर बोली, ‘‘हॉ वह मुझे बहुत चाहता था, यह बात मैं भी जानती थी। मैने, जब उसके मरने का सुना था, तो मुझे बहुत दुःख हुआ था।”

 ‘‘ अगर तू उससे शादी कर लेती ……’’

  ‘‘हॉ, …….शमा की जगह इस वक्त मैं सरकारी नौकरी कर रही होती।”

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2-मुहब्बत

” मैने कभी किसी लड़के की तरफ ऑखें उठाकर नहीं देखा, मगर तुम्हारे अन्दर  मैने न जाने क्या बात देखी कि तुमसे मुहब्बत कर बैठी। यह जानते हुए भी कि तुम विधर्मी हो, मुसलमान हो।”

“अच्छा, मुसलमान बुरे होते हैं क्या?” लड़के ने लड़की के चेहरे को अपने दोनों हाथों में लेकर थोड़ा झुककर उसकी ऑखों में झॉकते हुए पूछा।

“नहीं, मैं बुरे-अच्छे की बात नहीं कर रही, लड़की ने लड़के के दोनो हाथों पर प्यार से हाथ रखते हुए समझाने की कोशिश की।”

“फिर ?”

“दरअसल हमारे पहाड़ों पर कहावत है कि अगर कोई कहे कि सुई के छेद में से हाथी निकल गया ,तो उस पर विश्वास कर लो; किन्तु कोई कहे कि किसी मुसलमान ने वफा की है तो उस पर विश्वास मत करो।” लड़की की आँखें कहते-कहते पनीली हो आई।

“तो, तुम्हें कैसा लगता है?”

“गलत,सरासर गलत बात है ये, किसी भी पूरी कौम को किसी एक परिभाषा से नहीं बाँधा जाना चाहिए?”

“अच्छा, तुम इतनी पक्षधर क्यों हो?”

“क्यों कि मैने तुम्हें बहुत करीब से देखा है, जाना है, मुहब्बत करती हूँ तुमसे।”

“मुहब्बत करने से इस बात पर क्या फर्क पड़ता है?”

“फर्क पड़ता है, क्योंकि मुहब्बत का दूसरा नाम विश्वास है, ईमान है।”

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3-सह-अस्तित्व

            किसी के बहकावे पर एक दिन पेड़ ने पत्तों से कहा, ‘‘तुम बहुत घमण्डी हो गए हो, और यह भूल रहे हो कि तुम्हारा अस्तित्व मेरी कृपा पर निर्भर है।”’

            पत्ते कुछ देर खामोश रहे फिर बोले, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं हैं। हमारे बिना आपका अस्तित्व भी अधूरा है, यदि आप असहत है तो हम आपसे अलग हो रहे है।”’ इतना कहकर पत्ते नाराज होकर एक-एक करके पेड़ से गिर पड़े।

            काफी समय गुजर गया। उस पर पेड़ पर पत्ते नहीं हुए। तब वह पेड़ सूखा जानकर जड़ से काट दिया गया।

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4-शोर

            शाम होते ही गावँ के मन्दिर की घण्टी बजने लगी। तभी उसके समीप स्थित मस्जिद में मग़़रिब की अज़ान होने लगी। अजान की आवाज मन्दिर की घण्टी की आवज़ से दबने लगी। अगले दिन सुबह मुल्ला जी ने मुसलमानों से से सम्पर्क किया और मस्ज़िद में लाउडस्पीकर लगा दिया गया।

            दूसरी शाम मस्ज़िद की अज़ान की आवज़ से मन्दिर की घण्टियों की आवाज़ दब गई। अब पुजारी जी ने हिन्दुओं से सम्पर्क किया और शीघ्र मन्दिर में भी लाउडस्पीकर लग गया।

            अगली शाम वातावरण में घण्टी की आवाज़ और मस्ज़िद की अज़ान की आवाज़ आपस में गड्मड् हो गई और अब न घण्टी की आवाज़ सुनाई दे रही थी और न ही मस्ज़िद की अज़ान की आवाज़…..वातावरण में सिर्फ एक शोर सा व्याप्त था।

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विवशता

               वह बेहद टूट चुका था, बेरोज़गारी से। सारा दिन इधर-उधर भटकने के बाद उसकी भूख आक्रोश में बदल चुकी थी। वह कुछ करने के इरादे से एक अँधेरी वीरान-सी सड़क पर बनी पुलिया पर बैठ गया। आधी रात के बाद एक आकृति तेजी से चलती हुई नज़र आई। वह सचेत हो गया।

            उसने उस आकृति को पीछे से दबोच लिया। वह स्त्री थी। उसने स्त्री के मुँह पर हाथ रखकर उसके कान में धीरे से कहा, ‘‘अपनी इज़्ज़त बचाना चाहती हो, तो रुपये मेरे हवाले कर दो।”

वह तड़पी और तेजी से उसका हाथ पीछे हटाकर बोली, ‘‘मुझे इज़्ज़त की परवाह नहीं है, रुपये मैं नहीं दे सकती, क्योंकि मैं इज़्ज़त बेचकर ही ये रुपये लाई हूँ…।”

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