Quantcast
Channel: लघुकथा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

मन को लुभाती लघुकथाएँ

$
0
0

वास्तविकता के धरातल पर यथा सम्भव कम से कम शब्दों से कथ्य को साधती हुई विधा है लघुकथा।जैसे जापानी विधा हाइकु बड़ी -बड़ी कविताओं की भाँति सारगर्भित होती है, वैसे ही लघुकथा भी अपने लघु कलेवर में अचूक प्रभाव छोड़ जाती है,पढ़कर आदमी गहन चिंतन में डूब जाए तो यह लघुकथा की बहुत बड़ी सफलता है ।
 हम साहित्यिक दुनिया के राही नहीं थे ।हाँ अपने मनोभावों को कविता जैसे फार्मेट में लिख लेते थे ।शैली, कथ्य, कथानक, कसाव लाकर कथ्य को कम शब्दों में समेटना चुनौती जैसा था। इसी बीच हमने लघुकथाओं को पढ़ना और समझना चालू रखा ।फेसबुक के ग्रुप में नवोदितों को पढ़ते रहे फिर अचानक गूगल के क्षेत्र में प्रविष्ट किया ।मानो खजाना हाथ लगा ।फिर वहां वरिष्ठों को पढ़ने का दौर शुरू हुआ ।पहली लघुकथा जिसे लोगों ने बिना कमी के लघुकथा कहा था, जो हमने पढ़ी थी 2014 में, वह थी ‘ऊँचाई’।तब लगा कि अच्छा इसे कहते हैं लघुकथा। बाद में इसे कई बार पढ़ा, जितनी बार सामने पड़ी और इसका वीडियो भी देखा ।पहली चीज जब आप के सामने से गुजरती है ,तो वह आपके दिल में पैठ जमा लेती है । फिर उसके बाद ही कोई दूसरी जगह पाती है । जब भी कोई पूछेगा नम्बर वन पर कौन ! तो ‘ऊँचाई’ लघुकथा ही रहेगी । 
इस विधा में दिलचस्पी लेकर वरिष्ठों के आलेख  पढ़े ,फिर समझे और लहलहा उठे । जहाँ रोहित शर्मा, शोभना श्याम, सुनील वर्मा, संध्या तिवारी,मधु जैन, चन्द्रेश कुमार छतलानी, नीता सैनी, शोभा रस्तोगी आदि हमारे सहयात्रियों की लघुकथाएँ लुभाती हैं , वहीँ वरिष्ठों की लघुकथाएँ दिल-दिमाग में अपना एक स्थान बना लेने में सक्षम हैं ।यथा —
रामेश्वर काम्बोज- ऊँचाई/पागल/ स्त्री–पुरुष/ धर्म-निरपेक्ष।सुकेशसाहनी—बैल/ ठंडी रजाई,कमलेश भारतीय/-किसान, । दीपक मशाल- रेनकोट/यकीन। पुष्करणा जी – कुमुदिनी का फूल, । शील कौशिक -ऐसे शिष्य, महेश शर्मा- निशानी/नेटवर्क, । सीमा जैन—पानी, । श्रवण कुमार उर्मलिया–कौआ, कान और प्रतिक्रियावादी, । अशोक जैन- गिरगिट, मैं जिन्दा हूँ, । रूप देवगुण – जगमगाहट, । सुभाष नीरव- डर/सफर में/ बर्फी, । भगीरथ परिहार- मुक्ति, डॉ संगीता सक्सेना- कामवालियाँ,  बलराम अग्रवाल- आधे घण्टे की कीमत/बिना नाल का घोड़ा। अशोक भाटिया-रंग,स्त्री कुछ नहीं करती, । नीरज सुधांशु- मंथन, ।मधुदीप गुप्ता.- नमिता सिंह, डॉ कमल चोपड़ा- गहरा विश्वास, । घनश्याम अग्रवाल- अपने अपने सपने, ।किशनलाल शर्मा- पद, । गोपाल बाबू शर्मा- एक और जाल, बलराम– बहू का सवाल, ।पृथ्वीराजअरोड़ा – ‘कथा नहीं’ अनिल शूरआज़ाद –अनुकरण, । ।
हमने ‘कथा नहीं’ को साल भर पहले पढ़ा था; लेकिन अपने नाम और कथ्य के कारण ‘ऊँचाई’  लघुकथा की तरह हृदय में अमिट छाप छोड़ दी ।यानी बिलकुल उसके पीछे जाकर खड़ी हो गयी यह कथा ।दिल को जो भायीं, अमिट छाप छोड़ने में कामयाब रही उनका जिक्र ऊपर कर ही चुके है ,लेकिन दो लघुकथाओं का जिक्र भी नियम तहत करना है उनमें पहला नाम है श्याम सुंदर अग्रवाल जी का । इनकी ज़्यादातर लघुकथाएँ सरल-सीधे शब्दों में कही गई हैं, इसलिए बहुत भाती हैं हमें ।इनकी लघुकथाओं से भी एक का चुनाव करना मुश्किल है ।कभी अनमोल खजाना, कभी सदा सुहागन सामने आती है ।लेकिन अभी हाल में ‘रिश्ते’ दुबारा पढ़ी, उसी को यहाँ दे रहे हम  । 
‘रिश्ते’ लघुकथा जो समाज का एक विद्रूप चेहरा हमारे सामने पेश करती है । मानुस जात एक तरफ कानून का सहारा लेकर अपना अधिकार अधिग्रहण करना चाहता है, वही दूसरी ओर सामाजिक बंधन की भी दुहाई देता है ।चित भी अपनी पट भी अपनी, कैसे सम्भव है भई ! जो कानून के डंडे का सहारा लेकर अपने जीवन को सुखद-समृद्ध बनाने के प्रयास में लगे हैं, उन्हें फिर सामाजिक बंधन, पारिवारिक मोहमाया, रिश्तें निभाने का चक्कर त्याग ही देना चाहिए ।दोधारी तलवार पर चलकर रिश्ता कभी निभाया जा सकता है क्या भला ।पारिवारिक रिश्ते का विद्रूप चेहरा दिखाती है यह लघुकथा।

पसंदगी की लाइन में खड़ी दूसरी कथा, जो उछलकर दिल के दरवाजे पर दस्तक देती है वह है सुभाष नीरव की ‘बाय अंकल’ । प्यारी-सी मार्मिक लघुकथा।जिसको पढ़ते समय कुछ अनहोनी की आशंका होती है ,लेकिन अंत में मासूम बच्ची बाय अंतल कहकर दिल में घुसपैठ कर जाती है ।जो कुछ बहुतायत में हो रहा है, उसे अपने लेखन के माध्यम से दिखाना ठीक है किन्तु जो कुछ अच्छा हो रहा, भले संख्या उसकी गिनी-चुनी हो, उसपर भी लेखनी चलनी चाहिए ।इसी कारण हमें यह लघुकथा बहुत ज्यादा भाई।उत्कृष्ट भाषा-शैली के माध्यम से पूरी कथा चलचित्र की भांति आपके समाने दृष्टिगोचर होती है ।पहले माँ की लापरवाही फिर औरत के दिल का डर, ड्राइवर की मनमानी, बच्ची की मासूमियत, कथा के नायक अंकल द्वारा जिम्मेदारी के साथ माँ के आने तक बच्ची के साथ रहना ।माँ के व्यवहार से आहत बच्ची की मासूमियत से भरे शब्द मलहम बनकर लगा, जिससे हल्का लगा घाव भर गया ।समाज में नेकी जिन्दा है अभी भी बस लेखक विसंगतियों पर चोट करते करते एक फार्मूले में बंधकर रह गये हैं उन्हें चाहिए अपनी कलम को छूट दें ।और ऐसी मासूम/मार्मिक  लघुकथा लिखकर एक मिसाल कायम करें ।

 -0-

1-रिश्ते

श्याम सुन्दर अग्रवाल

 “सरिता दीदी का फोन था, दोपहर बाद आ रही हैं।” कृष्णा ने सूचना दी।

“किसलिए? कुछ कह रही थीं क्या?” राजेश ने पूछा।

“बधाई दे रही थीं।” कृष्णा ने बताया।

“किस बात की?” राजेश को जानने की उत्सुकता हुई।

“साक्षी का रिश्ता तय कर दिया है, शादी भी इसी माह है।”

“साक्षी का रिश्ता हो गया! चलो, अच्छी बात है।” राजेश ने ठंडे-से स्वर में कहा।

“दीदी, भात के लिए न्योतने आ रही हैं।”

बहन के आने पर राजेश का चेहरा निस्तेज-सा था। कृष्णा चाय-पान ले आई। ननद से घर-परिवार की बातें भी पूछती रही। चाय-पान के बाद सरिता बोली, “भैया! तुम्हारी भानजी की शादी इसी माह की तीस तारीख की तय हो गई है। भाभी व बच्चों सहित पहुँचना है…और तुम्हारे जीजा जी ने कहा है, भात देते वक्त उनकी प्रतिष्ठा का ध्यान रखना…तुम्हारी बहन की इज्जत का भी सवाल है भैया।”

बहुत देर से खामोश बैठे राजेश ने आखिर चुप्पी तोड़ी, “दीदी, बात ऐसी है कि आपको मेरी हालत दिख ही रही है। किराए के मकान में हूँ। तनख़ाह में तो गुज़ारा भी बड़ी कठिनाई से होता है। बच्चों को ढंग से पढ़ा भी नहीं पा रहा। ऐसे में मैँ…।”

“भैया! सामाजिक रीति रिवाजों का निर्वाह तो करना ही पड़ता है। ऐसे वक्त तो भाई कर्ज लेकर भी अपना और बहन दोनों का मान रखते हैं…।”

राजेश को जैसे बड़ी शक्ति मिल गई; बोला, “दीदी, पिता जी जो छोटा-सा मकान छोड़ गए थे, उसमें से भी तुमने अपना हिस्सा ले लिया, तभी आज किराये के मकान में बैठा हूँ…।”

“भैया, मैंने तो कानून के अनुसार ही अपना हिस्सा लिया।” सरिता ने राजेश की बात बीच में ही काटते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे हिस्से का तो कुछ छीना नही।’’

“दीदी!…’’ सरिता की तिलमिलाहट भरी दलील सुनकर भी राजेश संयत स्वर में बोला, ‘‘जिस कानून के तहत आपने अपना हिस्सा लिया, उसमें यह तो कहीं नहीं लिखा कि मामा ने भांजे या भांजी की शादी में भात देना ही देना है!”

“भाई, ये तो सामाजिक रीति-रिवाज है…!” सरिता हक जमाती-सी बोली।

“दीदी, पारिवारिक रिश्तों में सरकार और समाज दोनों के कानून एक साथ नहीं चलते। उनमें से एक को ही चुनना होता है। आपने सरकार का कानून चुना, इसलिए समाज के रीति-रिवाज निभाने की दुहाई देने का कोई हक नहीं रह गया आपको…।”

सरिता कुछ देर सोचती सन्न-सी बैठी रही; फिर हताश-सी उठ कर चल दी।

                              -0-

2-सुभाष नीरव 
बाय अंकल 

बस ज्यूँ ही आगे सरकी, पीछे से चढ़ी एक औरत ज़ोर-ज़ोर से चीखने-चिल्लाने लगी।

 “अरे रोको-रोको… बस को रोको… मेरी बच्ची तो नीचे ही रह गई, चढ़ ही नहीं पाई…”

बस ठसाठस भरी थी। कुछ लोगों ने पीछे की ओर गर्दन घुमाकर आवाज़ की दिशा में देखा, पर खामोश रहे।  बस रुकने की बजाय स्पीड पकड़ गई। वह रुआंसी-सी हो आई और फिर से चीखने लगी, “कैसा बेहूदा ड्राइवर है, सवारी को चढ़ने भी नहीं दिया और बस भगा ली… अरे कोई बस रुकवाओ… मेरी छोटी-सी बच्ची बस स्टाप पर ही छूट गई… मुझे उतारो।” इस बार आसपास खड़ी कुछ सवारियों ने उसका साथ दिया।

“अबे ओ ड्राइवर… बस रोक… किसी का बच्चा नीचे ही रह गया…।” एक अधेड़ ज़ोर से चीखा।

“कहां है कंडक्टर, बस क्यों नहीं रुकवाता…” यह किसी युवक की आवाज़ थी।

कंडक्टर जो आगे की सवारियों के टिकट काट रहा था, उसने शोर सुनकर ज़ोर से सीटी बजाई तो ड्राइवर का पैर ब्रेक पर गया। बस रुकी तो औरत जैसे बस से कूद ही पड़ी। स्टैंड से काफ़ी आगे निकल आई थी बस। वह तेज़ी से उलटी दिशा की ओर बदहवास-सी  अपने आप में बड़बड़ाती  दौड़े जा रही थी – 

“मेरी ही मति मारी गई थी… पहले बच्ची को चढ़ाना था या उसे गोद में लेकर चढ़ना चाहिए था। नाशपिटा ड्राइवर यह भी नहीं देखता कि कोई चढ़ भी पाया है कि नहीं… हवाई जहाज बना रखा है बस को… हाय मेरी बच्ची…” अपने आप को और बस वाले को कोसती वह हांफती हुई दौड़े जा रही थी। उसका पूरा शरीर पसीने से तर हो चुका था।

दूर से उसने देखा, शिखर दोपहरी में बस स्टाप सुनसान पड़ा था। वह भीतर तक घबरा उठी, ‘ हाय, कहां गई मेरी बच्ची ? हे ईश्वर, मेरी बच्ची की रक्षा करना।’ वह कुछ और आगे बढ़ी तो उसकी नज़र शेड के नीचे छाया में खड़े एक अधेड़-से आदमी की पीठ पर पड़ी। उसने बच्ची को उठा रखा था। बच्ची रो रही थी और वो आदमी उसके सिर और गाल को बार बार सहला रहा था। माथा चूम रहा रहा था। शायद मुँह से कुछ बोल भी रहा था जो उसे सुनाई नहीं दिया। एकाएक उसके जेहन में इन दिनों बच्चियों के साथ हो रहे हादसे कौंध गए… एकाएक उसके पैरों में और तेज़ी आ गई और उसने लगभग झपटते हुए बच्ची को उस व्यक्ति के हाथों से छीन लिया। रोती हुई बच्ची ‘मम्मा-मम्मा’ करती उसकी छाती से चिपट गई।

“भैन जी… ये बच्ची न जाने कब से यहां धूप में खड़ी रोए जा रही थी…मैंने सोचा ज़रूर ये माता- पिता से बिछुड़ गई है या…इसने तो रो रोकर बुरा हाल कर लिया अपना… देखो तो, अभी भी कैसे सुबक रही है गुड़िया रानी… अल्लेअल्ले… अब रोओ मत अच्छी बच्ची…” कहते हुए उस व्यक्ति ने अपना बायां हाथ बढ़ा कर बच्ची का गाल सहलाना चाहा, पर औरत ने आग्नेय नेत्रों से देखते हुए उसके बढ़े हुए हाथ को तुरंत झटक दिया और बच्ची को फिर से कसकर अपनी छाती से लगा लिया। बच्ची अब शांत हो चुकी थी और गर्दन घुमाकर उस आदमी की ओर ही देखे जा रही थी।

इतने में एक स्कूल बस वहां आकर रुकी। उसमें से एक सात-आठ वर्षीय लड़की पीठ पर बैग और गले में पानी की बोतल लटकाये उतरी और दूर से ही ‘दादू…उ…उ… दादू…उ…उ…’ चीखती हुई दौड़कर उस आदमी से आकर लिपट गई। उसने पोती के सिर को प्यार से सहलाया, उसकी पीठ पर से बैग उतारा, अपने कंधे पर लटकाया और उसकी उंगली पकड़कर चल दिया।

तभी पीछे से आवाज़ आई, “बाय अंतल…”

उस व्यक्ति ने पलट कर देखा, मां के सीने से लगी बच्ची अपना दायां हाथ हिलाकर उसे ‘बाय-बाय’ कर रही थी। 

“बाय बेटा!” कहकर मुस्कराते हुए उसने भी अपना दायां हाथ हवा में लहरा दिया।

अभी कुछ क्षण पहले जो एक तीखी खरोंच का अहसास उसे हुआ था, वो अब जाता रहा था। 


Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>